
- सरकार से प्रतिदिन सदन की कार्यवाही वंदे मातरम से प्रारम्भ करने का अनुरोध किया
MP Kartikeya Sharma Speech on Vande Mataram | आज समाज नेटवर्क | चंडीगढ़/ दिल्ली। सांसद कार्तिकेय शर्मा ने उच्च सदन में वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर अपने विस्तृत वक्तव्य में इसे भारत की राष्ट्रीय चेतना की उस सभ्यतागत धारा का प्रतीक बताया। जिसने देश को राष्ट्रीयता की पहली और सबसे सशक्त भाषा दी। संसद में बोलते हुए शर्मा ने कहा कि ‘जब भारत वंदे मातरम के 150 वर्ष मना रहा है, तब मैं केवल एक गीत पर नहीं, बल्कि उस सभ्यतागत धरोहर पर बोल रहा हूं जिसने भारत को राष्ट्रीयता की पहली भाषा दी।
उस रचनाकार पर जिसका योगदान वर्षों तक व्यवस्थित रूप से उपेक्षित रहा। उस गीत पर जिसे राजनीतिक दबाव में काटा गया और उस सामूहिक जिम्मेदारी पर जो आज हम सबकी है — कि जो हमारा है, उसे हम पुन: प्रतिष्ठित और पुनर्स्थापित करें।’ 1875 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने जब वंदे मातरम की रचना की थी तब भारत के पास न संसद था, न संविधान था और न ही राष्ट्रीय ध्वज। फिर भी एक ऐसा गीत जन्मा जिसने भारत को भू-भाग नहीं बल्कि मां के रूप में संबोधित किया और राष्ट्रीयता की परिभाषा ही बदल दी।
शर्मा ने सदन को स्मरण कराया कि ब्रिटिश शासन वंदे मातरम से इसलिए डरता था क्योंकि यह राजनीतिक चेतना जगाता था। यह ‘कक्षाओं से जेलों तक, बंगाल से पूरे भारत तक, फुसफुसाहट से युद्धघोष तक’ फैल गया। उन्होंने 1905 के स्वदेशी आंदोलन में इसके नैतिक प्रभाव को रेखांकित किया और 1937 में मुस्लिम लीग के राजनीतिक दबाव के कारण इसे दो अंतरों तक सीमित किए जाने का उल्लेख किया। यहां तक कि पंडित नेहरू ने भी माना था कि जिन अंतरों पर रोक लगाई गई थी वह एक खास वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। जो लोग बंटवारे के पक्ष में थे उन्होंने हमेशा वंदे मातरम का विरोध जताया। राष्ट्रभक्त मुसलमानों ने हमेशा वंदे मातरम का ही पक्ष लिया है।
जिस जगह यह गीत रचा गया वह कई वर्षों तक उपेक्षित रहा : शर्मा
सांसद ने आधुनिक बंगाली साहित्य के जनक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थापत्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी की अकादमिक उपेक्षा पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि जिस स्थल पर यह गीत रचा गया, वह सात दशकों तक उपेक्षित रहा और हाल के वर्षों में ही उसे सम्मान मिला है।
उन्होंने कहा कि जो सभ्यता अपने निर्माताओं को भूल जाती है, वह स्वयं को भूल जाती है। उन्होंने वंदे मातरम को आत्मनिर्भरता, नैतिक साहस, ज्ञान और राष्ट्रीय आत्मविश्वास के सक्रिय दर्शन के रूप में वर्णित किया। उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए आत्मनिर्भर भारत के आह्वान में वही भाव नीतिगत रूप में व्यक्त होता है जिसे वंदे मातरम ने 140 वर्ष पहले काव्य में दिया था।
अपने वक्तव्य के अंत में उन्होंने सदन में कहा
‘मां भारत के सामने हम सब एक हैं।
पार्टी बाद में है, राष्ट्र पहले है।
राजनीति बाद में है, राष्ट्र पहले है।
धर्म और मजहब बाद में हैं, राष्ट्र पहले है।’
उन्होंने अपना वक्तव्य ‘वन्दे मातरम, कहकर समाप्त किया।
वंदे मातरम् हमारी सभ्यता की आत्मा है
संसद के बाहर मीडिया से बात करते हुए सांसद कार्तिकेय शर्मा ने कहा कि सरकार ने सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय चेतना को पुनर्जीवित करने के महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उन्होंने कहा कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की ध्वनि हर नागरिक को यह स्मरण कराती है कि किसी भी पहचान या विचारधारा से पहले वह भारतीय है।
शर्मा ने कहा ‘जब सिनेमा घरों में जन गण मन गूंजता है, तो हर नागरिक को यह स्मरण होता है कि वह किसी भी जाति, दल या विचारधारा से पहले भारतवासी है। राष्ट्रीय गान हमारी संवैधानिक पहचान है, और वंदे मातरम् हमारी सभ्यता की आत्मा है।’
उन्होंने संसद में भी प्रतिदिन एकता के इसी अभ्यास को अपनाने का आग्रह किया: ‘हर दिन सदन की कार्यवाही प्रारम्भ होने से पहले हम सभी खड़े हों और एक स्वर में वंदे मातरम गायें। यह केवल औपचारिकता नहीं होगी; यह प्रतिदिन का स्मरण होगा कि चाहे हम किसी भी दल या विचारधारा से आते हों, और हमारे राजनीतिक मतभेद कितने ही तीखे क्यों न हों — राष्ट्र सर्वोपरि है।

