Editorial Aaj Samaaj: जाति न पूछो वीरों की

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Editorial Aaj Samaaj: जाति न पूछो वीरों की

Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। यह प्रसिद्ध दोहा संत कबीरदास का है, जिसका अर्थ है कि किसी साधु या ज्ञानी व्यक्ति की जाति के बजाय उसके ज्ञान और गुणों का महत्व देना चाहिए। ठीक वैसे ही, जैसे तलवार का मोल उसकी धार से होता है, म्यान से नहीं। यह दोहा सामाजिक समानता को बढ़ावा देता है और कहता है कि व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान और कर्मों से होती है। तलवार की उपमा दी गई है कि उसकी असली कीमत उसकी धार में है, न कि उसके म्यान में। उसी तरह, किसी व्यक्ति का असली मूल्य उसके अंदर के ज्ञान और गुणों में है, न कि उसकी जाति या बाहरी रूप-रंग में।

राजीव रंजन तिवारी, संपादक, आज समाज।

इस चर्चा की प्रासंगिकता आज इसलिए बढ़ी है कि देश में रेजांगला के वीरों की जाति पर बहस शुरू हो गई है। दरअसल, फरहान अख्तर की नई फिल्म 120 बहादुर रिलीज हो चुकी है। इसमें रेजांगला के वीरों की बखान है। अब अहीर संगठनों का कहना है कि फिल्म के नाम में अहीर शब्द जोड़ा जाना चाहिए था। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को भी लगता है कि अहीरों की वीरता को देखते हुए अहीर रेजिमेंट की स्थापना होनी चाहिए। भारतीय समाज में जाति हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। खासकर राजनीति में तो इसकी बात ही कुछ और है। आज सामाजिक न्याय की मांग के नाम पर जाति कार्ड खेलना आम है। कमोबेश हर राजनेता और पार्टी इसमें शामिल हैं। जाति के वोट साधने में उसके प्रतीकों का स्‍मरण और यशगान इसी के निमित्त हो रहा है। वरना, ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं गया कि 1962 के युद्ध के शहीदों को जातिगत चश्‍मे से देखा जाए।

यह सर्वविदित है कि वीरों की अहमियत उनके साहस, दृढ़ संकल्प और निस्वार्थ सेवा में निहित है। वे न केवल संकटों का सामना करने और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने में मदद करते हैं, बल्कि समाज को प्रेरित भी करते हैं और उसे एकजुट रखते हैं। वीर विपरीत परिस्थितियों में भी निडर होकर चुनौतियों का सामना करते हैं और न्याय के लिए लड़ते हैं। वे समस्याओं को हल करने के लिए नए रास्ते ढूंढते हैं और अपनी मानसिक व आत्मिक मजबूती का प्रदर्शन करते हैं। वीर हमेशा दूसरों की मदद के लिए आगे आते हैं और अपने देश व समाज की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। वे बलिदान की भावना रखते हैं और अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा से पालन करते हैं। वीरों का जीवन उनके कार्य और बलिदान दूसरों को भी वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे समाज के लिए आदर्श बनते हैं और देशभक्ति और सम्मान की भावना जगाते हैं।

राष्ट्र की सुरक्षा और स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए वीर सैनिक और नागरिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनकी बहादुरी सुनिश्चित करती है कि राष्ट्र सुरक्षित रहे। वीरों के बीच एक मजबूत बंधन होता है जो सम्मान, समर्पण और एक-दूसरे के लिए खड़े होने की भावना पर आधारित होता है। यह बंधन समाज को मजबूत और एकजुट बनाने में मदद करता है। जीवन में साहस का महत्व यही है कि यह हमें संकटों और चुनौतियों का सामना करने की क्षमता देता है। वीरता एक ऐसी गुणवत्ता है जो किसी भी व्यक्ति में हो सकती है। यह किसी व्यक्ति की साहस, दृढ़ संकल्प और बलिदान की भावना को दर्शाती है। इस तरह के शानदार और गौरवमयी विशेषणों से उपमित वीरों को जाति के बंधन में बांधना तुच्छ मानसिकता का ही द्योतक है। वीर सबके लिए होते हैं, किसी एक जाति के लिए नहीं।

बीते दिनों समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की एक बात ने वीरों की जाति के मुद्दे को हवा दी। 26 नवंबर को लखनऊ में फरहान अख्तर की नई फिल्म 120 बहादुर की विशेष स्क्रीनिंग में शिरकत करते हुए उन्होंने रेजांगला युद्ध के वीर सैनिकों, जिनमें अधिकांश अहीर (यादव) समुदाय से थे, की बहादुरी की तारीफ की। उन्होंने कहा कि अहीर सैनिकों ने इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह हमारी सेना का गौरवपूर्ण अध्याय है, जिसे समझा जाना चाहिए। अखिलेश यादव का यह बयान न केवल फिल्म की सराहना के लिए थी, बल्कि अहीर समुदाय की ऐतिहासिक वीरता पर गर्व जताने वाला भी था। इसे लेकर राजनीतिक हलकों में वीरों की जाति की बात पर बहस छिड़ गई है। लोग सवाल कर रहे हैं कि आखिर अखिलेश यादव जैसे सुलझे हुए नेता को इस तरह की बात क्यों करनी पड़ी।

जानकार बताते हैं कि 18 नवंबर 1962 को भारत-चीन युद्ध के दौरान लद्दाख के रेजांगला दर्रे पर 13 कुमाऊं रेजिमेंट के मात्र 120 सैनिकों ने चीनी सेना के 3000 से अधिक सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था। ठंडे पहाड़ी इलाके में बिना पर्याप्त हथियारों और संसाधनों के इन बहादुरों ने अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी। परिणामस्वरूप, 114 सैनिक शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने चीनी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। इन 120 सैनिकों में से अधिकांश हरियाणा के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और गुड़गांव क्षेत्रों से थे, जो अहीर (यादव) समुदाय से संबंधित थे। कैप्टन रामचंद्र यादव जैसे वीरों ने अपनी जान की बाजी लगाई। इस युद्ध के लिए मेजर शैतान सिंह को परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। कहते हैं कि इतना के बावजूद अहीर समुदाय का योगदान अक्सर मुख्यधारा के इतिहास में पीछे छूट जाता है।

फिल्म 120 बहादुर इसी गाथा पर आधारित है, जो फरहान अख्तर के अभिनय से सजी है। लेकिन फिल्म रिलीज होते ही विवादों में आ गई है। अहीर समुदाय के संगठनों ने इसे इतिहास का विकृति करार देते हुए बहिष्कार की बात की है। उनका कहना है कि फिल्म में अहीर सैनिकों की जातिगत पहचान को ठीक से उभारा नहीं गया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने भी कहा था कि इतिहास से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं होगा। समुदाय के लोगों का कहना है कि फिल्म में राजपूत अधिकारी को अधिक महत्व दिया गया, जबकि ज्यादा शहीद अहीर बिरादरी के लोग हुए थे। सपा प्रमुख अखिलेश यादव की तारीफ ने इस विवाद को और भड़का दिया। अब सवाल यह है कि क्या वे लखनऊ में समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में बोल रहे थे या राजनीतिज्ञ के रूप में?

बात चाहे अखिलेश यादव की हो अथवा मोहन यादव की। वीरों की जाति पर गर्व एक गंभीर सवाल खड़े करता है कि क्या राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना ठीक है? रेजांगला के शहीद भारतीय सैनिक थे, न कि सिर्फ अहीर। फिल्म पर विवाद में अहीर संगठनों का कहना है कि उनकी जाति को दबाया जा रहा है, लेकिन क्या उल्टा यह नहीं है कि जाति पर जोर देकर हम उनकी राष्ट्रीय पहचान को कमजोर कर रहे हैं? इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि युद्ध में जाति मायने नहीं रखती, बल्कि देशभक्ति ही सब कुछ होती है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव का बयान निसंदेह अच्छा लगता है, लेकिन यह सेना में जाति-आधारित भर्ती या रेजिमेंट की मांग को मजबूत करता है, जो ब्रिटिश काल की मार्शल रेस थ्योरी को याद दिलाता है। यह अलग बात है कि अखिलेश की बातों से कुछ लोग असहमत भी होंगे।

वहीं दूसरी ओर यह भी कह सकते हैं कि रेजांगला युद्ध में 120 बहादुर सैनिकों को अहीर वीर कहकर सम्मानित करने वाले उनकी राष्ट्रीय वीरता का अपमान ही कर रहे हैं। क्या स्वतंत्रता संग्राम के नायकों जैसे महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, सरदार भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस या रानी लक्ष्मीबाई को जाति से जोड़कर उनका सम्मान करना ठीक रहेगा? ये सभी भारतीय थे, जिन्होंने जाति, धर्म या वर्ग से ऊपर उठकर लड़ाई लड़ी। राष्ट्रीय नायकों को जाति से जोड़ना न केवल अनुचित है, बल्कि सामाजिक एकता के लिए खतरा भी है। सम्राट अशोक या पृथ्वीराज चौहान जैसे महापुरुषों को जातिगत अस्मिता तक सीमित करने की कोशिशें हो रही हैं, जो इतिहास को तोड़-मरोड़ रही हैं। इस तरह हल्की बातों से सभी जाति-धर्म के लोगों को बचना चाहिए।

गौरतलब है कि कुछ दिन पहले सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा में गुर्जर शब्द जोड़ने पर विवाद हो गया था। इसे लेकर कई जगहों पर राजपूतों और गुर्जरों में विवाद होते होते बचा। यह वीरों के ऊपर जाति का ठप्पा लगाने की कोशिशों का ही परिणाम था। खैर, विवाद तो नहीं हुआ, लेकिन परिस्थितियां इस तरह की बनती रहीं। निश्चित रूप से यदि इस तरह की सोच को दुरुस्त नहीं किया जाएगा अथवा परिमार्जित नहीं किया जाएगा तो बवाल मचना लाजिमी है। इसके लिए समाज के हर वर्ग को गंभीरता से विचार करना चाहिए और अनावश्यक जाति व्यवस्था को वीरों के अलंकरण के लिए हावी नहीं होने देना चाहिए। फरहान अख्तर की नई फिल्म 120 बहादुर रिलीज होने वाली है। अब देखना यह है कि होता क्या है।

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