Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | रक्षाबंधन का पवित्र त्योहार केवल भाई-बहन के बंधन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह धर्म, संस्कृति, कमजोर और समाज की रक्षा का उत्सव है। मान्यता के अनुसार, यह पर्व भगवान विष्णु के वामन अवतार से शुरू हुआ। रक्षाबंधन का असली अर्थ है सभ्यता की रक्षा, जिसमें कोई भी पुरुष हो या महिला, कमजोर के संरक्षण के लिए रक्षा सूत्र बांध सकता है। पर, आज इसे निभाया कितना जा रहा है? सवाल यही है। आपस में दुआ-सलाम और स्वागत-अभिनंदन तक की परंपरा लोग लगातार भूल रहे हैं। फिर इस रक्षा और बंधन का क्या औचित्य? समाज में कटुता कथित रूप से चरम पर है। अधिकांश लोग एकदूसरे को संदिग्ध निगाह से देख रहे हैं।

कोई किसी को काम नहीं करने दे रहा है। यदि कहीं उल्लेखनीय और जनहित तथा समाजहित में कुछ हो भी रहा है तो उसे बेहतर बनाने और आगे बढ़ाने के बजाय टांग अड़ाने की परंपरा चल पड़ी है। सिर्फ खुद की बेहतरी के लिए काम करने की परंपरा तेजी से विकसित हो रही है। समाज में आए दिन इस तरह के लोग दिख जाएंगे, जो न कुछ करेंगे और ना ही करने देंगे, की वैचारिकी को समृद्ध कर रहे हैं। निश्चित रूप से यह मानव समाज के लिए ठीक नहीं है। सवाल यह उठता है कि आखिर इस तरह की सोच रखने वालों का उपाय क्या है? जवाब आसान है। वोट का चोट। वोट के चोट से ज्यादा इस देश में किसी में ताकत नहीं।
पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय स्तर एक शोर सुनाई दे रहा है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की वजह से देश में बहुत सारी खामियां हैं। नेहरू के किए गए कार्यों की वजह से बहुत सारे काम आज की तिथि में नहीं हो पा रहे हैं। यह आलोचनात्मक हमला केंद्र में बैठी सरकार से जुड़े लोग पूरे गर्व के साथ करते रहे हैं। इस हमले का हासिल यह होता है कि अंधभक्त टाइप लोग इसे लपकते हैं और नेहरू को गालियां देना आरंभ कर देते हैं। नतीजतन यह धारणा बनने लगती है कि शायद सच में नेहरू की वजह से ही देश का विकास नहीं हो पा रहा है। जरा सोचिए, नेहरू को इस धरती से गए हुए साठ वर्ष से अधिक हो गए। फिर भी उन्हें कोसते रहने का औचित्य क्या है।
दिलचस्प यह है कि नेहरू को कोसने वाले अक्सर खुद कठघरे में होते हैं। लोग नेहरू के आलोचकों से ही सवाल करने लगते हैं कि मृत व्यक्ति किसी के काम में बाधा कैसे डाल सकता है? इसके जवाब में कोई खास तर्क नहीं दिया जाता। बस यूं ही गोल-मटोल टाइप की बातें करके टरकराने का सिलसिला आरंभ हो जाता है। इस तरह का नैरिटिव राष्ट्रीय स्तर पर बनाने और बिगाड़ने का प्रयत्न चलता रहता है। हालांकि इसमें दम नहीं होता। क्योंकि देश के अधिकांश बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि नेहरू ने यदि कथित रूप से कुछ गड़बड़ किया है तो उसे सुधारना चाहिए, न कि शोर मचाना चाहिए। ये तो रही राष्ट्रीय स्तर की कपोल-कल्पित बातें, जो समाज में कटुता बढ़ा रही है।
यदि बात स्थानीय स्तर और छोटे जगहों की करें तो वह कुछ ज्यादा ही खतरनाक है। इन बातों से आम जनजीवन प्रभावित हो रहा है। विकास के काम बाधित हो रहे हैं। खास बात यह है कि इसके लिए जवाबदेह कोई नहीं है। उदाहरण के तौर पर आजकल अंबाला (हरियाणा) शहर के कांग्रेसी विधायक निर्मल सिंह और भाजपा के पूर्व मंत्री असीम गोयल के बीच का कथित सियासी जंग देखने लायक है। जमकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। कोई किसी से कम नहीं, वाली बात यहां चरितार्थ हो रही है। ज्यादातर लोग मौजूदा विधायक निर्मल सिंह की बातों को जायज ठहराते हुए पूर्व विधायक असीम गोयल को दोषी मान रहे हैं और उन्हें कोस रहे हैं।
दरअसल, अंबाला से कांग्रेस के विधायक निर्मल सिंह का आरोप है कि भाजपा के पूर्व विधायक असीम गोयल पिछले कुछ वर्षों से लगातार शहर और क्षेत्र के विकास में बाधा डाल रहे हैं। कांग्रेसजन कहते हैं कि राज्य में भाजपा की सरकार है, फिर भी गोयल आम जनता के हित में होने वाले कार्यों में अड़चने पैदा करने के लिए अधिकारियों को गुमराह करते हैं। फलस्वरूप कई स्थानों पर बनता हुआ काम भी बिगड़ जाता है। आरोप है कि विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद हर विकास कार्य का क्रेडिट खुद लेने के चक्कर में गोयल कामकाज में बाधा डालते रहते हैं। चूंकि राज्य में भाजपा की सरकार है, इसलिए अधिकारी कथित रूप से उनके दबाव में आ जाते हैं और उनकी बात सुन लेते हैं।
कांग्रेसी विधायक निर्मल सिंह की बातों की पुष्टि करते हुए चर्चित समाजसेवी वीरेश शांडिल्य कहते हैं कि अंबाला नगर निगम में जब शक्तिरानी शर्मा मेयर थीं, तब भी असीम गोयल शहर के विकास कार्यों में बाधा डालते थे। अब यहां दूसरी मेयर हैं। उनके कार्यों में भी बाधा डालते हैं। आरोप है कि असीम गोयल चाहते ही नहीं कि शहर का विकास हो। जबकि असीम गोयल का खेमा निर्मल सिंह और वीरेश शांडिल्य की बातों को सिरे से खारिज करता है। बावजूद इसके समाज में कटुता तो बढ़ ही रही है। हर कोई एक-दूसरे को संदिग्ध निगाह से देख रहा है। इसका परिणाम क्या होगा, यह सोचने वाली बात है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर मनभेद और मतभेद के अंतर समझकर काम करने की जरूरत है।
आरोपों के मुताबिक यदि समाज में असीम गोयल जैसे लोगों की रीति-नीति विकसित होती रहेगी तो आप प्यार और भाईचारे की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। हरियाणा में भाजपा की सरकार है और असीम गोयल अपनी पार्टी के प्रभावशाली नेता हैं। यदि वे चाहें तो शहर की खूबसूरती को चार चांद लग जाए। लेकिन वह नहीं करते। शायद उनके मन में यही भाव होगा कि यदि शहर का तेजी से विकास होगा तो उसका क्रेडिट कांग्रेसी विधायक निर्मल सिंह अथवा कांग्रेसी सांसद वरुण चौधरी को चला जाएगा। इसीलिए वे हर काम में अड़चन डालने की कोशिश में लगे रहते हैं। इस बात को शहर के लोग भी अब धीरे-धीरे भलि-भांति समझने लगे हैं।
यह तो एक उदाहरण था। स्पष्ट है कि समाज में इस तरह के लोगों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, जो न कुछ करने और ना ही कुछ करने देने में विश्वास रखते हैं। यदि आप खुद नहीं कर सकते तो कम से कम जो काम कर रहा है, उसे तो करने दीजिए। लेकिन नहीं। ना करेंगे, ना करने देंगे। चूंकि आज रक्षाबंधन का त्योहार है, इसलिए समाज में कुछ लोगों के कारण बढ़ रहे कथित विद्वेष की तरफ ध्यान आकृष्ट कराना था। यदि सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो प्यार-मोहब्बत और भाईचारे का प्रतीक रक्षाबंधन का उद्देश्य धीरे-धीरे कमजोर होता चला जाएगा। इसलिए समाज में गलत परंपरा विकसित न हो, इसका ध्यान और ख्याल हर किसी को पूरी गंभीरता से रखना चाहिए।
यदि देश के अन्य हिस्सों की बात करें तो वहां भी कमोबेश यही स्थिति है। चूंकि अब राष्ट्र में राजनीति का स्तर व्यापक हो गया है, इसलिए हर मसले पर इसका असर भी हो रहा है। दो दिन पहले नई दिल्ली में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर कई बड़े और गंभीर आरोप लगाए। इस पर चुनाव आयोग की तरफ जो प्रतिक्रिया आई, वह तो सामान्य थी। लेकिन चुनाव आयोग से पहले भाजपा की ओर से प्रतिक्रिया आ गई और राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जाने लगा। मतलब ये कि अब राजनीति में मतभेद और मनभेद दोनों साथ चल रहे हैं। मतलब ये कि चुनाव आयोग के पक्ष में भाजपा और विपक्ष में कांग्रेस खड़ी हो गई। इसका क्या अर्थ।
यही हाल बिहार में है। वहां इस वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पक्ष-विपक्ष के बीच जो सियासी झगड़ा चल रहा है वह देखने लायक है। निजी हमले तक हो रहे हैं। व्यक्तिगत आक्षेप लगाकर जनता को बरगलाने की कोशिश चल रही हैं। यह कोई एक पक्ष नहीं कर रहा, बल्कि दोनों ओर से हालात को बिगाड़ने की कोशिश चल रही हैं। यहां तो जनता को धन्यवाद देना चाहिए कि वह संयमित होकर चुपचाप दोनों पक्षों को सुन रही है और कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आ रही है। समझा जा रहा है कि चुनाव में इसका असर अवश्य पड़ेगा। कौन जीतेगा और कौन हारेगा वो तो बाद में पता चलेगा। फिलहाल सामाजिक कटुता तो बढ़ ही रही है, जो भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
यद्यपि देश में राजनीतिक अवसरवाद के कारण बढ़ी कटुता कोई नई बात नहीं है। राजनीतिक अवसरवाद का एक उदाहरण उस समय भी मिला था, जब उमा वासुदेव की इंदिरा गांधी पर लिखी दो पुस्तकें आईं। आपातकाल से पहले लिखी पुस्तक का शीर्षक था ‘इंदिरा गांधी रिवॉल्यूशन इन रिस्ट्रेंट।’ इसमें इंदिरा गांधी के ऐसे क़सीदे पढ़े गए थे, जिसकी कोई मिसाल नहीं थी। इसके ठीक तीन साल बाद उसी विषय पर उमा वासुदेव की दूसरी किताब का शीर्षक था, ‘टू फ़ेसेज़ ऑफ़ इंदिरा गांधी’ और इसमें इंदिरा गांधी को भारत की सबसे बड़ी खलनायिका के रूप में दिखाया गया था। दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने 26 साल बाद इंदिरा गांधी पर तीसरी किताब लिखी ‘करेज अंडर फ़ायर’ और इसमें इंदिरा गांधी फिर से उनकी हीरोइन बन गई थीं।
बहरहाल, स्थितियां लगातार बिगड़ रही हैं। सामाजिक संरचना भी धीरे-धीरे हिलने-डुलने लगी है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि पारंपरिक पर्व-त्योहारों के उद्देश्यों को ठीक से समझ कर उसे आत्मसात किया जाए और उसके संदेश को जन-जन तक पहुंचाया जाए। ताकि परिस्थितियां सुधरे और उदास चेहरों पर मुस्कान आए। हर तरफ से खुशहाली की बयार बहे और समाज में एकता और भाईचारा कायम रहे। इसे बचाए, बनाए रखना सबकी जिम्मेदारी है। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।)
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