Editorial Aaj Samaaj: सावन में विलुप्त हुई झूला झूलने की परंपरा

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Editorial Aaj Samaaj | डॉ. रमेश ठाकुर | शनिवार को राखी का त्योहार है और सावन का आखिरी दिन। इन सबसे बीच एक चीज जिसे सभी मिस कर रहे हैं और वह हैं ‘झूले’? क्योंकि सावन का झूलों से गहरा संबंध रहा है। हिंदुस्तानी परंपराओं में झूला झूलना पर्वों में गिना जाता रहा है, इसलिए महादेव द्वारा निर्मित सावन माह का लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं। समय बदला है, तीज-त्यौहार और रिवायतें भी बदली हैं, साथ ही झूलों की परंपरा भी बदल गई हैं। सावन में लगने वाले झूले अब नहीं दिखाई पड़ते। ज्यादा नहीं, करीब दो दशक पहले से झूलों की परंपरा ने धराशाही होना शुरू किया जो आज धीरे-धीरे शून्यता के करीब पहुंच गई है। स्थिति आज ये है, झूलों का रिवाज अब इतिहास बनता जा रहा है।

सावन की बारिश और झूलों पर हिंदी फिल्मों के कई गाने फिल्माए गए। न वैसे अब गाने रहे और न ही झूले। ऐसा लगता है मानो जैसे आधुनिक मोह पास ने तमाम परंपराओं को समेट कर पिंजरे में बंद कर दिया हो। शहरों के मुबाकले ग्रामीण परिवेश में सावन माह का बड़ा महत्व हुआ करता था, कमोबेश स्थिति आज गांवों में भी शहरों जैसी हो गई है। सावन को वेद-पुराणों में पवित्र तो कहा ही गया है साथ ही दो और खास बातें जुड़ी हैं। अव्वल, बारिश और दूसरा झूला? बारिश के दीदार तो होते रहते हैं। पर, झूले कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते। झूलों का गुजरा जमाना रिमिक्स होकर लौटेगा, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता। गांव की सखियां का झुंड झूलों के बहाने बाग-बगीचों में मिलता था।

सखी की शादी होकर ससुराल भी चली जाती थी, तब झूले मिलाप का जरिया बनते थे। यही कारण था महिलाएं सावन के आने का बेसब्री से इंतजार करती थीं। बदलते युग के साथ उन्होंने इंतजार करना भी छोड़ दिया। सावन तो प्रत्येक वर्ष आता है पर झूले नहीं? इस परंपरा के खत्म होने के पीछे कोई एक नहीं, बल्कि कई कारण मौजूद हैं। आधुनिकता की चकाचौंध ने बहुत कुछ बदल दिया। समूचे हिंदुस्तान में झूला झूलने की परंपरा मानो धीरे-धीरे खत्म कर दी। झूला झूलने के लिए पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश व राजस्थान जैसे राज्य विख्यात थे। उनके लिए बिना झूलों के सावन अधूरा सा होता था। युवा लड़कियों के अलावा घरों की बूढ़ी औरतें भी सावन की फुहारों में सराबोर हो जाया करती थीं।

दस-पंद्रह वर्षीय बच्चों को तो पता नहीं होगा? लेकिल बीस वर्ष के नौजवान को जरूर याद होगा कि सावन के महीने में गांव की युवतियां पेड़ों पर झूला झूलते अक्सर देखीं जाती थीं। झूला खाते वक्त वह आपस में गीत गातीं थीं, हंसी-मजाक, व ठिठोलियां करती थीं। पर, अब ये दृश्य पूरी तरह से लुप्त हैं। मौजूदा पीढ़ी झूलों की परंपरा से तकरीबन अनभिज्ञ है। झूला और सावन माह के संबंध को बिल्कुल नहीं जानती। झूला झूलते वक्त लड़कियां और औरतें लोक गीत कजरी गाया करती थीं जिन्हें सुनने के लिए पुरूषों का भी जमावड़ा लगता था। झूला झूलते वक्त औरतें बड़े ही मनमोहक अंदाज से कजरी गाती थीं। दरअसल, कजरी देशी किस्म की वह विधा है जिसमें सावन, भादों के प्यार-स्नेह, वियोग, व मधुरता के मिश्रण का संगम समाया होता था।

धीमी-धीमी बारिश में भी युवतियां झूला झूलती थीं और कजरी गाती थी। सावन का सौंदर्य और परंपरागत कजरी की सुगंधित मिठास वर्षा बहार का जो वर्णन लोक गायन की विधा कजरी में थी वह किसी और में नहीं? लेकिन अब न झूले रहे, न कजरी को गाने वाली औरतें। माडॅन युग की औरतों को कजरी का जरा भी ज्ञान नहीं। निश्चित रूप से सावन को मनाने का अपना अलग ही उत्साह होता था। पेड़-पौधों की हरियाली मन मोहंती थी। मौजूदा समय में झूले नहीं है तो कोई बात नहीं, पर बारिश और हरियाली तो है। लेकिन इन सब पर कोरोना ने पानी फेरा हुआ है। लेडीज क्लबों में सावन का उल्लास, उत्साह और मस्ती को सेलिब्रेट करने के लिए अलग-अलग थीम पर कार्यक्रम आयोजित होते थे।

सखियां एक साथ रंग-बिरंगे परिधानों में सज धज कर हाथों में मेहंदी और बालों में गजरा लगाए झूले का आनंद लेती थी। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ कजरी गाती थीं। सावन पर आधारित विभिन्न खेलों और प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर इस त्यौहार को मनाती थी। लेकिन कोरोना ने इस मस्ती को भी किरकिरा कर दिया है।

मान्यता यह भी है कि सावन के पावन माह में भगवान शिव ने माता पार्वती के लिए प्रेमपूर्वक झूला डाला था और स्वयं उन्हें झूला झुलाया था। तभी से यह परंपरा जुड़ी हुई है। ऐसा माना जाता है कि इस मौके पर पति अपनी पत्नी को झूला झुलाते हैं, जिससे दांपत्य जीवन में प्रेम और सामंजस्य बढ़ता है और घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। इसके अलावा, सावन के शुभ अवसर पर यदि आप भगवान श्रीकृष्ण और गणपति बप्पा को हिंडोले में झूला झुलाते हैं, तो यह अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इससे केवल ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है, बल्कि परिवार के हर सदस्य के जीवन में सुख और समृद्धि आती है।

सावन में महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए झूला झूलती हैं और अपनी मनोकामनाएं ईश्वर तक पहुंचाती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, झूला झूलने की परंपरा की शुरूआत राधा रानी और भगवान श्रीकृष्ण से हुई थी। सावन के महीने में ही भगवान श्रीकृष्ण ने राधा रानी को झूला झुलाया था और तभी से यह परंपरा शुरू हुई। माना जाता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से झूला झूलते हुए अपनी इच्छाएं व्यक्त करता है, उसकी हर मनोकामना श्रीकृष्ण तक पहुंचती है और वह पूरी भी होती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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