Editorial Aaj Samaaj, राजीव रंजन तिवारी: भारतीय राजनीति धीरे-धीरे सांप-सीढ़ी के खेल की तरह होती जा रही है। कोई शिखर तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहा है तो कोई शिखर तक पहुंचने से पहले ही शून्य पर लुढक जा रहा है। सियासत के इस रोचक-मनोरंजक खेल में चुनाव आयोग कथित रेफरी/अंपायर की भूमिका में है। दिलचस्प ये कि इस प्रजातांत्रिक देश की जनता की नजर अक्सर सियासी मैदान में भिड़ने वाले खिलाड़ियों से हटकर रेफरी/अंपायर की भूमिका निभा रहे चुनाव आयोग पर आकर टिक जाती है। लोग जब चुनाव आयोग के खेल को देखने-समझने लगते हैं तो उन्हें मशहूर शायर बशीर बद्र की वह शायरी याद आ जाती है- ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता।’

पिछले कुछ दिनों से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के निशाने पर आने के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग (केंचुआ) कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के आरोप सही हैं या केंचुआ की शैली गलत है, इस बारे में मैं कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहता। हां, इतना जरूर कहूंगा कि यदि कुछ गड़बड़ है तो उसे करने की जरूरत क्या है। केंचुआ में उच्च शिक्षित अधिकारी और विधि विशेषज्ञों की लंबी-चौड़ी फौज है, बावजूद इसके निडर होकर काम करने में दिक्कत क्या है। केंचुआ पर राहुल गांधी द्वारा लगाए गए जिन आरोप पर लोगों की निगाह टिकी हुई है, वह यही है कि केंचुआ निष्पक्ष नहीं है। आखिरकार केंचुआ की फजीहत हो रही है।
सड़क से लेकर सदन तक बवाल मचा है। अदालत भी टिप्पणी कर रहा है। इस स्थिति में केंचआ को अपनी मर्यादा बचाए रखने के लिए सतर्क और सजग रहना चाहिए। जब उसे एक निष्पक्ष संस्था के रूप में स्थापित किया गया है तो उस पर लगने वाले पक्षपात के आरोप किसी गाली से कम नहीं है। केंचुआ को चाहिए कि उसके प्रति लोगों के मन में जो सम्मान है, वह कायम रहे। नेता और राजनीतिक दल अपना काम करें और केंचुआ अपना काम करे। उसे किसी के तरफ से भी खड़ा होने की जरूरत क्या है। हालांकि अभी आधिकारिक रूप से इस तरह के आरोप नहीं लगे हैं कि केंचुआ किसी सियासी दल के लिए काम करता है।
इस समय सबसे ज्यादा शोर बिहार के मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर सुनाई पड़ रहा है। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के तहत हटाए गए 65 लाख नामों का विवरण तथा उन्हें शामिल न करने के कारण सार्वजनिक किए जाएं, ताकि पारदर्शिता बढ़ाई जा सके। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की अनुमति भी दी कि जिन लोगों के नाम हटाए गए हैं, वे अपना आधार कार्ड लेकर चुनाव अधिकारियों के पास जा सकते हैं। यानी, आधार कार्ड स्वीकार्य होगा। मतलब ये कि केंचुआ का मामला पलट गया। अब अदालत की बात माननी होगी।
इस मामले में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने एसआईआर को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई करते हुए अपने आदेश में इस बात पर भी जोर दिया कि इस सूची के उपलब्ध होने के स्थानों की जानकारी जनता तक व्यापक रूप से पहुंचाई जाए। इसके लिए अखबारों, टीवी समाचार चैनलों और रेडियो के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाए। सूची को पंचायत स्तर के कार्यालय और जिला स्तर के रिटर्निंग अधिकारियों के कार्यालय में भी कारणों सहित प्रदर्शित करने का निर्देश दिया गया, ताकि जो लोग इंटरनेट का उपयोग नहीं करते, उनको भी पूरी जानकारी मिल सके।
बेंच ने मामले को 22 अगस्त के लिए सूचीबद्ध करते हुए चुनाव आयोग को 19 अगस्त तक स्टेटस रिपोर्ट पेश करने के लिए भी कहा। एक अगस्त को चुनाव आयोग द्वारा पहले से पंजीकृत मतदाताओं को (ड्राफ्ट) मतदाता सूची में शामिल न करने के जो कारण बताए गए, उनमें शामिल थे मृत्यु 22.34 लाख, स्थायी रूप से स्थानांतरित/अनुपस्थित 36.28 लाख और पहले से एक से अधिक स्थानों पर पंजीकृत 7.01 लाख मतदाता। केंचुआ की ओर से पेश वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि आयोग के पास कुछ निर्णय लेने के लिए पर्याप्त अधिकार हैं, लेकिन खेद जताया कि चुनाव आयोग कड़ी राजनीतिक शत्रुता के माहौल में काम कर रहा है, जहां उसके अधिकांश निर्णयों को चुनौती दी जाती है। फिलहाल आयोग दलों के संघर्ष में फंसा हुआ है।
द्विवेदी ने कहा कि एक सावधानीपूर्वक अनुमान के अनुसार लगभग 6.5 करोड़ लोगों को बिहार में एसआईआर के लिए कोई दस्तावेज जमा करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वे या उनके माता-पिता 2003 की मतदाता सूची में पहले से पंजीकृत थे। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह जानना चाहा कि 2003 में बिहार में हुए व्यापक मतदाता सूची पुनरीक्षण के दौरान किन दस्तावेजों पर विचार किया गया था। बेंच ने कहा कि हम चाहते हैं कि चुनाव आयोग बताए कि 2003 की इस कवायद में कौन-कौन से दस्तावेज लिए गए थे। उक्त टिप्पणी तब आई जब एक पक्ष की ओर से पेश हुए वकील निज़ाम पाशा ने अदालत के कथित रूप से यह कहने का उल्लेख किया कि यदि एक जनवरी 2003 (पहले वाले एसआईआर की तारीख) की तारीख चली जाती है, तो सब कुछ चला जाता है।
पाशा ने कहा कि मुझे यह कहना है कि यह तिथि क्यों रखी गई, इसका कोई आधार नहीं दिखाया गया। यह धारणा दी गई कि यह वह पूर्व तिथि है, जब मतदाता सूची के संशोधन के लिए गहन (इंटेंसिव) अभ्यास किया गया था। यह कहा जा रहा है कि उस समय जारी किया गया एपिक (मतदाता) कार्ड, समय-समय पर किए गए संक्षिप्त (समरी) अभ्यास के दौरान जारी किए गए कार्ड से अधिक भरोसेमंद है, यह गलत है। केंचुआ हर साल चुनाव से पहले मतदाता सूचियों में नाम जोड़ने और हटाने के लिए संक्षिप्त संशोधन करता है, जबकि व्यापक संशोधन एक राज्य में लंबे समय के बाद मतदाता सूचियों के गहन पुनरीक्षण के लिए किया जाता है।
पाशा ने सवाल किया कि अगर व्यापक और संक्षिप्त संशोधन दोनों में नाम दर्ज करने की प्रक्रिया समान है, तो संक्षिप्त अभ्यास के दौरान जारी किए गए एपिक कार्ड को कैसे अमान्य किया जा सकता है? उन्होंने कहा कि 2003 की तिथि अवैध है और यह किसी समझ में आने वाले अंतर पर आधारित नहीं है। उन्होंने कहा कि मेरे नामांकन (एन्यूमरेशन) फॉर्म की रसीद या कोई दस्तावेज़, जो रसीद की प्राप्ति को स्वीकार करता हो, नहीं दिया जा रहा है, और इस कारण सब कुछ बूथ स्तर के अधिकारियों के हाथ में है तथा इन निचले स्तर के अधिकारियों के पास यह तय करने का अत्यधिक विवेकाधिकार है कि फॉर्म लेना है या नहीं। वरिष्ठ वकील शोएब आलम ने चुनाव आयोग की अधिसूचना में अपर्याप्त कारणों की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि यह प्रक्रिया न तो संक्षिप्त है और न ही गहन, बल्कि सिर्फ अधिसूचना की एक रचना है।
इस मामले में एक याचिकाकर्ता योगेंद्र यादव ने कहा कि आधार कार्ड उन 65 लाख लोगों के लिए बारहवां दस्तावेज़ होगा, जिनके नाम चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची से हटाए गए हैं। उन्होंने कहा कि यह एक अस्थाई राहत है लेकिन अंततः यह हर किसी पर लागू हो सकती है। मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बीच बिहार में, चुनाव आयोग ने पूरे राज्य में पोलिंग स्टेशनों का पुनर्गठन और संगठित करने का कार्य किया है, जिसे राजनीतिक दलों ने ज़मीन पर भ्रम बढ़ाने वाला बताया है। राज्य में पोलिंग स्टेशनों की संख्या अब 77,895 से बढ़कर 90,712 हो गई है।
सनद रहे कि 24 जून के एसआईआर आदेश का पालन करने के लिए उठाया गया है, जिसमें प्रत्येक पोलिंग स्टेशन में मतदाताओं की संख्या को पहले की 1,500 की सीमा से घटाकर 1,200 करने का निर्देश था। लेकिन, चुनाव आयोग के इस कदम ने मतदान केंद्रों के स्थानांतरण और बीएलओ के बदलाव को जन्म दिया है। इस बदलाव के चलते मतदाताओं में भ्रम बढ़ गया है, क्योंकि कई मतदाता और स्थानीय अधिकारी अपने नए बूथ और बीएलओ की जानकारी को लेकर उलझन में हैं। मतदाता अपने नामों को खोजने और सही बूथ का पता करने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं। जिससे मतदान प्रक्रिया को सुचारू ढंग से चलाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। इस पूरे बदलाव का मकसद मतदान केंद्रों पर भीड़ कम करना, मतदान प्रक्रिया को तेज करना और मतदाता सुविधा बढ़ाना है।
अब चुनाव आयोग ने यह भी सुनिश्चित किया है कि मतदाताओं को अपने बूथ तक पहुंचने के लिए 2 किलोमीटर से अधिक यात्रा न करना पड़े, लेकिन बदलाव से उत्पन्न भ्रम को दूर करने और मतदाताओं को सही जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता है। इसलिए, बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यह प्रक्रिया चुनाव आयोजन की तैयारी का अहम हिस्सा है, लेकिन जमीन पर इसे लेकर पोलिंग एजेंटों, अधिकारियों और मतदाताओं के बीच बेहतर संवाद और जानकारी पहुंचाने की जरूरत महसूस की जा रही है। बहरहाल, तमाम अवरोधों, विरोधों और उलझनों के बीच केंचुआ की शैली पर अब दया आने लगी है। यदि अदालत के आदेश पर उसने खुद को सुधार लिया तो उसे माफ कर देना चाहिए। क्योंकि किसी न किसी मजबूरी में ही उसे अपने रूप बदलने पड़े होंगे। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।)
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