Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | चाहें कोई कुछ भी कहे लेकिन कांग्रेस सांसद व नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की सरलता, सहजता और साफगोई अच्छे-अच्छों को हतप्रभ कर देती हैं। अपने राजनीतिक जीवन में राहुल गांधी ने अपने सियासी आचरण से यह सिद्ध किया है कि वे दिल के बेहद साफ-सुथरे नेता हैं। बाकी नेताओं की तरह उनमें सियासी छल-कपट और काट-छांट जैसी बातें ना के बराबर है। खुद को लोकप्रिय बनाने के लिए जनता के बीच जाकर अनाप-शनाप प्रलाप करना भी उन्हें नहीं आता। उन्हें शायद इस बात की परवाह भी नहीं है। वरना, वे बिहार चुनाव की इस गहमागहमी के बीच दिल्ली में इमरतियां तलने में अपना वक्त जाया नहीं करते। राहुल गांधी की टेढ़ी-मेढ़ी सियासी इमरतियों को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं।

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की दिल्ली में तली गई सियासी इमरतियों के बीच जिस तरह की खबरें बिहार से निकलकर देश के अन्य हिस्सों में पहुंच रही हैं, वह कुछ और ही हैं। चर्चा है कि विपक्ष की जो लड़ाई संविधान और वोटर अधिकारों की रक्षा को लेकर शुरू हुई थी, वह देखते ही देखते किसी भी कीमत पर सत्ता में हिस्सेदारी पाने के कुर्ता फाड़ संघर्ष में तब्दील हो गई। इसी बीच अपने ही द्वारा खड़े किए गए परिदृश्य से राहुल गांधी ने स्वयं को चुपचाप अनुपस्थित कर लिया। राहुल गांधी द्वारा पार्टी के दूसरे हिंदी-भाषी राज्यों में व्याप्त असंतोष और पराजय के लिए आरोपी रहे कांग्रेस के सेनापतियों को ही बिहार की आग बुझाने के काम में लगाया गया। फिलहाल, कुछ सुधार हुआ है, लेकिन आगे यह कायम रहेगा या नहीं, इस पर सवाल है।
यदि कुछ माह पहले की बात करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि बिहार चुनावों के जरिए राहुल गांधी जो सिद्ध करना चाह रहे थे, वह महागठबंधन के घटक दलों की कथित आपसी नाराजगी के बीच लगभग गुम हो चुकी है। इसे लेकर भी तरह-तरह की बातें हो रही हैं। सत्तारूढ़ दल की नीतियों का विरोध करने वाले लोग बिहार में महागठबंधन के संभावित सकारात्मक परिणाम को यही मानते हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं कि राहुल गांधी उस इंडिया ब्लॉक को पुनर्जीवित करेंगे जिसे भाजपा के मार्गदर्शन में ध्वस्त करने में प्रमुख भूमिका नीतीश कुमार की रही है। चुनाव के नतीजे उन लोगों के मनोबल को मजबूत या कमजोर करने वाले होंगे, जिन्होंने अपने संवैधानिक अस्तित्व को बिहार से भाजपा और राजनीति से नीतीश कुमार की विदाई के साथ जोड़ रखा है।
यह अलग बात है कि अब परिदृश्य थोड़ा बदला है, वरना मीडिया में तो यही चर्चा थी कि बिहार में महागठबंधन की लड़ाई अकेले राजद नेता तेजस्वी यादव लड़ रहे हैं और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में घंटेवाला स्वीट्स के यहां इमरतियां तल रहे हैं। देश देखना यह चाहता है कि 14 नवंबर को राहुल गांधी इंडिया ब्लॉक के लिये इमरतियों का स्वाद चखने जैसा रख पाते हैं या नहीं। बिहार की परिस्थितियां अन्य राज्यों से भिन्न हैं। सांसद राहुल गांधी भले इस बात से वाकिफ न हों, लेकिन यह सच है कि बिहार में राहुल गांधी को पसंद करने वालों की कमी नहीं है। पूरे देश की तरह बिहार भी कांग्रेस का गढ़ रहा है। यहां आज भी पुराने कांग्रेसी मौजूद हैं, जिनके परिवार के लोग हर हाल में कांग्रेस को ही वोट करते हैं।
अब बात राहुल गांधी की सियासी इमरतियों की, जो सोशल मीडिया में छाई हुई है। पिछले दिनों दिल्ली के चांदनी चौक की मशहूर घंटेवाला स्वीट शॉप पर राहुल गांधी खुद कारीगरों के साथ मिलकर इमरती और बेसन के लड्डू बनाते हुए दिखे। राहुल का यह दौरा सिर्फ एक नेता का दुकान पर आना नहीं था, बल्कि यह 200 साल से ज्यादा पुरानी एक ऐसी विरासत से जुड़ना था, जिसका इतिहास सीधे मुगल काल से जुड़ा है। दुकान का नाम घंटेवाला क्यों पड़ा। इस दुकान की शुरुआत 1790 में लाला सुख लाल जैन ने की थी। इसके सबसे बड़े फैन कोई और नहीं, बल्कि खुद मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय थे। उन्होंने इसे घंटे के नीचे वाली दुकान कहकर पुकारा, क्योंकि यह एक बड़े घंटे के पास थी। बाद में यह घंटेवाला हो गया।
कुछ लोगों का कहना है कि दुकान के संस्थापक लाला सुख लाल जैन अपनी ताजा मिठाइयां बेचने के लिए चांदनी चौक की गलियों में घंटी बजाकर घूमते थे। लोग उन्हें मिठाई वाले के नाम से नहीं, बल्कि घंटी बजाने वाले के नाम से पहचानने लगे। इस तरह दुकान का नाम घंटेवाला पड़ा। इस दुकान ने मुगल बादशाहों का दौर देखा, अंग्रेजों का राज देखा और आजाद भारत का इतिहास भी देखा। भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू भी इस दुकान के खास ग्राहकों में शामिल थे। राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी को भी यहां की मिठाइयां पसंद थीं। इतनी शानदार विरासत वाली इस दुकान पर एक वक्त ऐसा आया जब इसकी चमक फीकी पड़ने लगी। घटती बिक्री और कुछ कानूनी मुश्किलों की वजह से घंटेवाला स्वीट शॉप को 2015 में बंद करना पड़ा।
बताते हैं कि नवंबर 2024 में इस दुकान को एक बार फिर से खोला गया। राहुल गांधी का यहां आना और खुद इमरती बनाना इस बात का सबूत है कि घंटेवाला सिर्फ एक दुकान नहीं, बल्कि दिल्ली की एक ऐसी विरासत है, जिसका स्वाद और जिसका इतिहास दोनों ही ताजा रहेंगे। चूंकि राहुल गांधी देश के बड़े सियासी घराने से वास्ता रखते हैं, इसलिए इसे लेकर सियासत हो रही है। इसलिए उनके यहां पहुंचने के बाद लोगों को चटखारे लेने के मौके मिल गए। मौजूदा सियासी हालात को देख कटाक्ष भी किया जाने लगा कि आग लगी हमरी झोपड़िया में, हम गाएं मल्हार। कहते हैं कि बिहार में कांग्रेस संकट में है व राहुल गांधी इमरती बना रहे हैं। शुरू में बिहार चुनावों को लेकर राहुल गांधी के उत्साह से लगा था कि वे अकेले मैदान मार लेंगे। लेकिन वह जोश कहां चला गया?
यह सवाल कांग्रेस कार्यकर्ताओं और राजनीतिक विश्लेषकों को सोचने को विवश कर रहा है। बताते हैं कि बिहार कांग्रेस में बवाल की जड़ें 2020 के चुनावों से ही हैं। जब महागठबंधन में कांग्रेस को महज 70 सीटें मिलीं, जबकि राजद ने 144 पर चुनाव लड़ा। 2020 में कांग्रेस के 19 विधायक जीते, लेकिन इस बार पार्टी अधिक महत्वाकांक्षी हो गई। राहुल के करीबी कृष्णा अल्लावरू को बिहार का प्रभारी बनाया गया, जिन्होंने वोटर अधिकार यात्रा और कन्हैया कुमार की पलायन रोक यात्रा के जरिए पार्टी को मजबूत करने की कोशिश की। लेकिन आपस में समन्वय न होने से कहानी बिगड़ती गई। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम, विधायक दल के नेता शकील अहमद खान और प्रभारी कृष्णा अल्लावरू ने हाईकमान से कहा कि पार्टी फिलर की भूमिका से ऊपर उठे तो ज्यादा बेहतर होगा।
उधर, पार्टी में टिकट वितरण में भ्रष्टाचार के आरोप लगे। एक विधायक ने तो यहां तक कह दिया कि प्रदेश अध्यक्ष, प्रभारी और सीएलपी नेता उगाही कर रहे हैं। सांसद पप्पू यादव पर आरोप लगा वे अनधिकृत रूप से टिकट बांट रहे हैं। इन तमाम हालातों के बीच राहुल गांधी की इमरतियों वाला प्रकरण सवालों के घेरे में है। वजह स्पष्ट है। अघोषित रूप से राहुल गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं। सबकी निगाहें उनके हर उस कदम पर टिकी हैं, जिसमें पार्टी के कार्यकर्ता और पदाधिकारी सियासत में अपना भविष्य देखते हैं। लेकिन बिहार की इस सियासी गहमागहमी के बीच राहुल गांधी का स्वाभाव थोड़ा विचलित कर रहा है। हालांकि इसका भी असर पड़ेगा, लेकिन वह क्या होगा, इस बारे में तो राहुल गांधी के निजी सलाहकार ही ठीक से बता पाएंगे।
राहुल गांधी के इमरती प्रकरण ने बिहार की सरजमीं पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों को थोड़ा असहज तब होना पड़ा, जब लड्डू बनाते राहुल मीम्स वायरल होने लगे। यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने तंज कसा, राहुल विदेश घूम रहे, देश घूम रहे, लेकिन बिहार नहीं आ रहे। भाजपा के आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने कहा कि राहुल गांधी की प्राथमिकताएं देखिए। बिहार चुनाव करीब, लेकिन छुट्टी प्राथमिक। पक्के कांग्रेसी इस बात पर अफसोस जता रहे हैं कि इमरती प्रकरण पर विपक्ष के हमले का कांग्रेस की ओर से कोई आधिकारिक और स्पष्ट जवाब भी नहीं दिया गया। अब सवाल यह है कि बिहार के सियासी परिदृश्य से राहुल गांधी गायब क्यों हुए। इसका सबसे बड़ा कारण सिर्फ यही है कि यहां कांग्रेस की स्थिति अन्य प्रमुख दलों के मुकाबले कमजोर है।
बहरहाल, राजद नेता तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के बाद बिहार में महागठबंधन की स्थितियां पहले से बेहतर होने लगी हैं। माना जा रहा है कि बिहार में राजद व अन्य दलों के सहारे कांग्रेस की प्रतिष्ठा अब बच जाएगी। इस तरह की परिस्थितियां भी राहुल गांधी के मार्गदर्शन में ही बनी है। स्वाभाविक है पार्टी के निष्ठावान नेता-कार्यकर्ता अब राहत की सांस ले रहे हैं। पर एक बात का अफसोस है कि जो काम 23 अक्टूबर (मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा) को हुआ, यदि वही पहले हो गया होता तो आज कहानी कुछ और ही होती। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।)
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