मनीषीसंत ने कहा अक्सर हम जिन चीजों से सहमत नहीं होते, उन्हें अनदेखा करते जाते हैं, हम उनसे खुद को बहुत दूर मानते हैं, जबकि सच्चाई कुछ और होती है। एक साधु थे, उनके जवाब बहुत अटपटे, मजेदार लेकिन जीवन दृष्टि से भरपूर थे. एक बार उनके पास कुछ लोग आए, उनसे पूछा कि अगर आपके ऊपर कभी कोई हमला कर दे, तो क्या कीजिएगा. आप यहां अकेले जंगल में रहते हैं. आपके साथ कोई दूसरा नहीं! साधु ने कहा, चिंता की बात नहीं. मेरे पास एक सुरक्षित किला है। हमला होते ही मैं वहां चला जाऊंगा। डरने की जरूरत नहीं। उनकी बात कुछ दूसरे साधु भी सुन रहे थे। जो अक्सर उनसे असहमत रहा करते थे. रात घिरते ही उन्होंने साधु को घेर लिया। धमकाते हुए बोले, हमें भी बताइए कहां है, किला. हमें तो कहीं दिखता नहीं।
मनीषीश्रीसंत ने अंत मे फरमाया शरीर को तो नष्ट किया जा सकता है, लेकिन इसके भीतर जो हृदय है, उसके रास्ते को जानना ही मेरा कवच है! वहां तक कोई नहीं पहुंच सकता! यह कहकर साधु महाराज ठहाका लगाकर हंसने लगे. उनकी हंसी जंगल में देर तक गूंजती रही। हमारे भीतर हिंसा हर जगह से ठूसी जा रही है। टीवी हमें गुस्सैल बनाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। हमारे नेता, युवा खिलाडिय़ों को नेशनल टेलीविजन पर गालियां देते सगर्व गुस्सा फेंकते दिखते हैं। कैसी दुनिया बुनते जा रहे हैं, हम. जरा-जरा सी बात पर हम मरने-मारने पर उतारू हुए जा रहे हैं। हमारे चेतन, अवचेतन मन पर हिंसा के दाग गहरे होते जा रहे हैं. हम हिंसा से भरते जा रहे हैं. हमारा गुस्सैल, हिंसा से भरते जाना पेड़ की जड़ कटने जैसा है. जैसे जड़ कटने का अहसास एक दिन में नहीं होता, वैसे ही हिंसा का दीमक कब भीतर से प्रेम, सद्भाव, संवेदना को चट करता जाता है, पता ही नहीं चलता! हमारे आसपास जो कुछ घट रहा है, जिस तेजी से घटा है, उस पर सजग दृष्टि रखना बहुत जरूरी है. अक्सर हम जिन चीजों से सहमत नहीं होते, उन्हें अनदेखा करते जाते हैं. हम उनसे खुद को बहुत दूर मानते हैं, जबकि सच्चाई कुछ और होती है।