Indian Cultural Traditions: आज भी जीवित हैं भारत की सांस्कृतिक परंपराएं

0
76
Indian Cultural Traditions:
देवी के साथ खेलते भीलों की सांस्कृतिक चेतना।

Bhil Community Gavari Tradition, कमलाकर सिंह, (आज समाज): भारत की सांस्कृतिक परंपराएं जितनी विविध हैं, उतनी ही गहन भी हैं। इनमें कुछ परंपराएं समय के साथ इतिहास में धुंधली हो गईं, तो कुछ आज भी जन-मन में जीवित हैं, अपनी पूरी सघनता और सार्थकता के साथ। राजस्थान के दक्षिणी अंचलों में निवास करने वाला भील समुदाय ऐसी ही एक जीवंत परंपरा गवरी का संवाहक है, जो न केवल उसकी धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक संवाद, लोक चेतना और सांस्कृतिक अस्मिता का भी सशक्त माध्यम है।

दिल्ली में हाल ही में लगाई गई थी प्रदर्शनी

हाल ही में दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित ‘देवी के साथ खेलना : मेवाड़ के भीलों की गवरी’ शीर्षक चित्र प्रदर्शनी इसी परंपरा को समर्पित थी। यह प्रदर्शनी केवल कलात्मक प्रस्तुति नहीं, बल्कि एक लोक समाज की जीवन दृष्टि, उनके रीतिरिवाज और मिथकीय आस्थाओं का गहन दस्तावेज भी थी।गवरी कोई साधारण नृत्य-नाटक नहीं, बल्कि भील समाज की सामूहिक चेतना की वह प्रकट अभिव्यक्ति है, जिसमें प्रकृति, देवत्व, समाज और आत्मानुशासन एक साथ ध्वनित होते हैं।

भाद्रपद के आगमन के साथ होती है गवरी की शुरुआत

गवरी की शुरुआत भाद्रपद मास के आगमन के साथ होती है और यह चालीस दिनों तक चलने वाला एक कठिन व्रत होता है। इस अवधि में भाग लेने वाले पुरुष कलाकार पूर्ण संयम का पालन करते हैं—मांस, मदिरा, जूते-चप्पल का त्याग करते हैं, जमीन पर सोते हैं और दिन में एक बार भोजन करते हैं। वे गांव-गांव घूमते हैं और ‘खेल’ नामक नाट्य प्रस्तुतियां देते हैं, जिनका आधार उनके मौखिक इतिहास ह्यझमटाह्ण में निहितहै। इस ह्यखेलह्ण में देवी पार्वती, जिन्हें भील अपनी बहन मानते हैं, के विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है। साथ ही शिव-पार्वती को केंद्र में रखकर जीवन के विविध पक्षों का मंचन होता है।

गवरी की प्रस्तुतियों में सामाजिक यथार्थ

गवरी की प्रस्तुतियां मात्र धार्मिक आख्यान नहीं हैं। इनमें सामाजिक यथार्थ भी उतनी ही मुखरता से उभरता है। नाटकों के विषयों में अक्सर पौराणिक कथाएं, इतिहास और सामाजिक मुद्दे शामिल होते हैं, जिनमें कृषि वित्त, लालची बिचौलियों, भ्रष्ट व्यापारियों जैसे विषयों पर तीखे व्यंग्यात्मक संवाद और कलाबोध झलकता है। यह परंपरा महिलाओं और बेटियों के सम्मान, पारिवारिक बंधनों और गांवों के बीच संबंधों को मजबूत करने के महत्व पर भी बल देती है।गवरी मनोरंजन से कहीं अधिक है। यह सामाजिक समरसता, गांवों के बीच एकजुटता और भील विरासत के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण शक्ति है।

किसी औपचारिक मंच की मोहताज नहीं परंपरा

यह परंपरा न किसी औपचारिक मंच की मोहताज है और न ही किसी तकनीकी सहायता की, फिर भी यह एक ऐसा आकर्षण बनाए रखती है जो दर्शकों को बांधे और संलग्न रखता है। मांदल की थाप, सामूहिक स्वर, वेशभूषा और जीवंत अभिनय दर्शकों को साधना के स्तर तक ले जाते हैं।गवरी में देवी कालिका, जिन्हें अंबाव और गौरी के नाम से भी जाना जाता है, की पूजा होती है। वे ऊर्जा और नारी शक्ति की प्रतीकहैं। भील जनजाति का विश्वास है कि यह शाश्वत, आध्यात्मिक रूप से प्रेरित और रोमांचक नृत्य-नाटिका न केवल सांस्कृतिक मूल्यों को जीवित रखती है, बल्कि उनके सामूहिक आत्मबल और दिव्या से भी जोड़ती है।

‘दैत्य पर दैवीय विजय’ के विषय पर आधारित होता है गवरी प्रदर्शन

आमतौर पर रंगारंग गवरी प्रदर्शन ‘दैत्य पर दैवीय विजय’ के विषय पर आधारित होता है और मिथकों, इतिहास तथा समकालीन संदर्भों को रचनात्मक ढंग से पुन: प्रस्तुत करता है। केवल पुरुषों द्वारा किए जाने वाले इन प्रस्तुतियों में दस से पचास तक के समूह होते हैं, जो विभिन्न आयु वर्गों के होते हैं और हर भूमिका में जीवंतता भरते हैं। प्रत्येक प्रदर्शन में एक आध्यात्मिक आह्वान के साथ जीवन के गूढ़ संदेश समाहित रहते हैं। भील समुदाय का विश्वास है कि मुख्य पुजारी या देवी के आशीर्वाद से अनेक रोग व कष्ट समाप्त हो सकते हैं। इस परंपरा में निहित सादगी, समानता, सांप्रदायिक सद्भाव, पर्यावरण संरक्षण और प्राकृतिक दुनिया के प्रति गहरी कृतज्ञता आधुनिक मानवता के लिए प्रेरणा है।

‘मेवाड़ के भीलों की गवरी : देवी के साथ क्रीड़ा’

इस विलक्षण परंपरा को दृश्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने का कार्य सुप्रसिद्ध फोटोग्राफर और पद्मश्री से सम्मानित सुधारक ओल्वे ने किया है। उन्होंने लेखिका अदिति घोष मेहता के साथ मिलकर ‘मेवाड़ के भीलों की गवरी : देवी के साथ क्रीड़ा’ नामक त्रै खण्डीय श्रृंखला तैयार की है, जो न केवल छायाचित्रों का संग्रह है, बल्कि एक शोधपरक सांस्कृतिक यात्रा का परिणाम भी है।प्रदर्शनी में ओल्वे द्वारा खींचे गए चित्र भील समुदाय के भाव, श्रम, आस्था और सौंदर्यबोध को जीवंत करते हैं—हरफ्रेम में गवरी की आत्मा धड़कती हुई प्रतीत होती है।गवरी जैसी परंपराएं हमें यह स्मरण कराती हैं कि भारत की सांस्कृतिक विविधता केवल संग्रहालयों या पुस्तकों की वस्तु नहीं, बल्कि आज भी गांव-गांव में जीवित एक धड़कती हुई वास्तविकता है।

जड़ों की ओर लौटने का निमंत्रण देती है परंपराओं की उपस्थिति

जब हम वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद के प्रभाव में अपनी सांस्कृतिक पहचान से दूर होते जा रहे हैं, तब गवरी जैसी परंपराओं की उपस्थिति हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने का निमंत्रण देती है। यह परंपरा सिर्फ भील समाज की नहीं, बल्कि समूची मानव सभ्यता की उस चेतना की प्रतिनिधि है, जो धरती, देवी और समाज को एक अविभाज्य त्रिकोण के रूप में देखती है।हालांकि गवरी सदियों से चली आ रही है, लेकिन आधुनिकता और वैश्वीकरण के प्रभावों ने इस अमूल्य परंपरा को अनेक चुनौतियों के समक्ष ला खड़ा किया है।

भील जनजाति के युवा परंपरा में अब नहीं ले रहे उतनी रुचि

यह देखा गया है कि भील जनजाति के युवा अब इस परंपरा में उतनी रुचि नहीं ले रहे, वे पारंपरिक कलाओं को सीखने के बजाय मजदूरी को प्राथमिकता देने लगे हैं। इससे गवरी प्रदर्शन और उससे जुड़े विशिष्ट संगीत, कथाएं, दिव्यता तथा प्रदर्शन कला के स्वरूप विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं।गवरी के संरक्षण में सबसे बड़ी चुनौती इसकी सांस्कृतिक गरिमा की पुनर्स्थापना है। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मान्यता प्राप्त करना न केवल आवश्यक है, बल्कि संभव भी है। गवरी और उससे जुड़े ज्ञान को संरक्षित करने के लिए इसके दस्तावेजीकरण, डिजिटलीकरण और व्यापक प्रसार की आवश्यकता है।

गवरी परंपरा सांस्कृतिक चेतना का जीवंत मंचन

आईसीएच (Intangible Cultural Heritage) क्षेत्र में कार्यरत गैर-सरकारी संगठनों द्वारा सचित्र पुस्तकों का प्रकाशन, डॉक्युमेंट्री फिल्मों और वेबसाइट्स के माध्यम से इस परंपरा तक अप्रत्यक्ष पहुंच बनाई जा रही है। परंतु भील की जीवित विरासत को बचाने के लिए और अधिक ठोस प्रयास अनिवार्य हैं, शिक्षा, शोध, कला संस्थानों और प्रशासनिक सहभागिता के साथ। गवरी परंपरा आदिवासी ज्ञान, लोक संवेदना और सांस्कृतिक चेतना का जीवंत मंचन है, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क को झकझोर देता है।

जीवन के गहरे अर्थों को उद्घाटित करने वाली एक सामूहिक साधना

यह केवल लोक-मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन के गहरे अर्थों को उद्घाटित करने वाली एक सामूहिक साधना है। सादगी, सामूहिकता और देवी के प्रति अगाध श्रद्धा से ओतप्रोत यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि उत्सव केवल रंग-बिरंगे मंचों या आयोजनों में नहीं, बल्कि वहां होता है जहां एक पूरा समुदाय एक होकर देवी के साथ जीवन का अभिनय करता है—मिट्टी की गंध में, ताल की थाप में और लोक की सांस में।

यह भी पढ़ें : Dharam: वैशाख अमावस्या पर करें यह काम, मिलेगी पापों से मुक्ति, होगी मोक्ष की प्राप्ति