Editorial Aaj Samaaj | आलोक मेहता | ‘कांग्रेस में काफी ठग पड़े हैं। आज ठगी का बड़ा जोर है। कांग्रेस में जिन लोगों पर कुछ भी शक है, वे कांग्रेस को छोड़ दें या उन्हें बाहर निकाल दिया जाए। कुछ जगहों में लोग कहते हैं कि काफी गुंडे हैं तो काम कैसे किया जाए। काम करने वाले गुडों को भी कह सकते हैं कि हम आपसे डरेंगे नहीं और काम करेंगे। गुंडा जहां होता है, वहां अच्छे आदमी भी रहते हैं और अच्छे आदमियों को चाहिए कि गुंडों से कहें कि आप हमें मारेंगे, तो हम मरेंगे, मगर भागेंगे नहीं।’

यह बात आज भारतीय जनता पार्टी या उसके किसी सहयोगी दल के नेता ने नहीं कही है। यह बात 18 मार्च, 1947 को महात्मा गांधी ने सांप्रदायिक दंगों के बाद मसौढ़ी के बीर गांव में देहात के प्रतिनिधियों की सभा में कही थी। 75 वर्ष बाद भी बिहार में इस तरह की चर्चा होती है। खासकर जब जंगलराज यानी लालू प्रसाद यादव के सत्ताकाल में अपराधों की पराकाष्ठा अथवा 1970 से 1990 के बीच कांग्रेस के सत्ताकाल में हुए भीषण सांप्रदायिक दंगे और बड़े पैमाने पर दलितों के हत्याकांड की याद दिलाई जाती है।
बिहार विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी यादव और उनके साथ सवारी कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता राहुल गांधी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सत्ताकाल में दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोप लगाकर अधिकाधिक वोट पाने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी सामने नहीं रखी है और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विश्वास जताते हुए समाज के विभिन्न वर्गों और अल्पसंख्यकों के वोट पाने के लिए अभियान चलाया हुआ है।
लेकिन तेजस्वी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को निशाना बना रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह अपने संदेश में कहा है कि बिहार की जनता जंगलराज को सौ साल तक नहीं भूल सकेगी। विपक्ष का गठबंधन गठबंधन नहीं, बल्कि लठबंधन (अपराधियों का गठबंधन) है क्योंकि दिल्ली और बिहार के उनके नेता जमानत पर बाहर हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि राहुल गांधी के सलाहकार बेलछी कांड में दलितों की हत्या के विरोध में आक्रोश व्यक्त करने के लिए 1977 में प्रतिपक्ष की नेता के रूप में इंदिरा गांधी के जाने से हुए राजनीतिक लाभ का जिक्र करते हुए दलितों पर अत्याचार का मुद्दा वर्तमान दौर में भी लाभदायक समझ रहे हैं। वे 1970 से 1990 के दौरान हुए दलित हत्याकांडों और बिहार के भागलपुर में हुए सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के तथ्य को कैसे भूल रहे हैं क्योंकि तब वहां कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि 1972 से पत्रकारिता में होने के कारण मुझे बिहार के मुख्यमंत्रियों केदार पांडेय, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, कर्पूरी ठाकुर, भोला पासवान शास्त्री, रामसुंदर दास, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार से मिलने और उनके कार्यकाल के दौरान घटनाचक्रों पर लिखने और बोलने के अवसर मिले हैं। जहानाबाद में दलितों के हत्याकांड और भागलपुर के सांप्रदायिक दंगों की भयावह घटनाओं के समय कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री थे और मैं स्वयं नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण का संपादक था। उस समय की घटनाओं पर सर्वाधिक रिपोर्ट और टिप्पणियां हमने लिखी और प्रकाशित की थी।
भागलपुर दंगे की शुरुआत अक्टूबर 1989 में हुई और यह कई महीनों तक चलता रहा। इस हिंसा में लगभग 1000 से अधिक लोगों की जान गई, जबकि हजारों लोग बेघर हो गए। अधिकांश पीड़ित मुस्लिम समुदाय से थे, परंतु हिंदू समुदाय के भी कई लोग हिंसा के शिकार बने। 24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर के परवती और लोदीपुर क्षेत्रों में जुलूस के दौरान विवाद हुआ। एक छोटी सी झड़प ने देखते-देखते पूरे शहर और आसपास के ग्रामीण इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया। कई गांवों में आगजनी और लूटपाट हुई, दर्जनों मस्जिदें और घर जला दिए गए, महिलाएं और बच्चे तक हिंसा से नहीं बचे।
अधिकारिक आंकड़ों के अनुसार करीब 900 से अधिक लोग मारे गए, जबकि स्वतंत्र रिपोर्टों में यह संख्या 2000 से ऊपर बताई गई। विपक्ष और मानवाधिकार संगठनों ने आरोप लगाया कि सरकार ने राजनीतिक कारणों से सख्त कदम नहीं उठाए। दंगे की जांच के लिए बाद में कई समितियाँ और न्यायिक आयोग गठित किए गए। मुख्य रूप से न्यायमूर्ति एन. एन. सिंह आयोग और बाद में न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद आयोग ने घटनाओं की विस्तृत जांच की। इन रिपोर्टों में स्पष्ट कहा गया कि पुलिस ने निष्पक्षता नहीं बरती, स्थानीय अधिकारियों ने हिंसा रोकने के लिए समय पर कदम नहीं उठाए।
भागलपुर दंगे ने बिहार और राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा। कांग्रेस की छवि धर्मनिरपेक्षता की मुखर पक्षधर होने के बावजूद कमजोर पड़ी। आगामी 1990 के विधानसभा चुनावों में जनता दल ने इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया, जिसके परिणामस्वरूप लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार मिली। यह घटना बिहार की राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई का भी अहम मोड़ बनी।
कई वर्षों तक दंगे के पीड़ित शरणार्थी शिविरों में रहे। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मुआवजे की घोषणाएं की गईं, परंतु ज्यादातर पीड़ितों को न्याय या पूर्ण पुनर्वास नहीं मिला। 1970 के दशक का उत्तरार्द्ध बिहार के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का अत्यंत उथल-पुथल भरा दौर था। जातिगत संघर्ष, भूमि विवाद, और राजनीतिक अस्थिरता ने राज्य के ग्रामीण समाज को गहराई तक प्रभावित किया। आपातकाल (1975–77) के बाद जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हुईं, तब बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की स्थिति काफी कमजोर पड़ गई थी। इसी राजनीतिक परिदृश्य में 1977 के बेलछी नरसंहार (कांड) ने देश को झकझोर दिया और एक बार फिर इंदिरा गांधी को जनता से सीधे जुड़ने का अवसर प्रदान किया।
यह घटना बेलछी गांव, (नालंदा) में 27 मई 1977 को हुई थी। बेलछी कांड मूलतः जातिगत हिंसा का वीभत्स उदाहरण था। गांव में भूमिहार और दलित (हरिजन, पासवान) समुदायों के बीच लंबे समय से जमीन और मजदूरी को लेकर विवाद चल रहा था। इसी विवाद ने 27 मई को भयावह रूप ले लिया जब सवर्ण भूमिहारों के समूह ने 11 दलितों और पिछड़ों को घेरकर एक झोपड़ी में बंद कर दिया और उन्हें जिंदा जला दिया।
जब बेलछी कांड की खबर उन्हें मिली, तो वे तत्काल वहां जाने का निर्णय लिया। उस समय बिहार में बारिश के कारण सड़कों की स्थिति बेहद खराब थी। वाहन से जाना लगभग असंभव था। उन्होंने पहले ट्रेन से पटना तक की यात्रा की, फिर जीप में आगे बढ़ीं। रास्ता खराब होने पर उन्होंने ट्रैक्टर और फिर हाथी का सहारा लिया। अंततः कई घंटे की कठिन यात्रा के बाद इंदिरा गांधी बेलछी गांव पहुंचीं। इंदिरा गांधी की इस यात्रा का प्रभाव तत्काल राजनीतिक स्तर पर देखने को मिला। जहां जनता पार्टी के नेता जातीय हिंसा और प्रशासनिक अक्षमता के आरोपों में उलझे थे, वहीं इंदिरा गांधी ने स्वयं को एक संवेदनशील और दृढ़ नेता के रूप में पुनः स्थापित किया।
1980 के दशक में बिहार के खासकर जहानाबाद और उसके आसपास के इलाकों में जमीन, जाति और राजनीतिक-पठित हिंसा ने सामूहिक हत्या और दमन का भयावह चेहरा दिखाया। स्थानीय जमींदार, जातिगत मिलिशिया, सशक्त दलित उठान तथा नक्सली गतिविधियों के आपसी द्वन्द्व ने नियंत्रणहीन हिंसा और बदले की कार्रवाईयों को जन्म दिया। ऐसी घटनाओं में अक्सर स्थानीय राजनीतिक संस्थाओं और नेताओं के समर्थकों पर भी संगठित हिंसा का आरोप उठते रहे।
जहानाबाद जिले में जून–जुलाई 1988 के आसपास नॉन्हीगढ़ और नागवान के पास दलित बस्तियों पर एक संगठित हमले में कई हरिजनों की हत्या हुई। कुछ रिपोर्टों के अनुसार इस हमले में 19 हरिजन मारे गए। इस घटना ने प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व पर तीव्र प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए थे। बाद में अभियुक्तों के खिलाफ मुक़दमों व सज़ाओं की कार्रवाई भी चली। इन कत्लेआम घटनाओं की पृष्ठभूमि सिर्फ जातिगत द्वेष नहीं रही। स्थानीय शक्तिशाली राजनीतिक इकाइयों, सांसद/विधायक या उनके निकटस्थ समर्थकों पर भी हमलों में भूमिका के आरोप उठते रहे। 1980 के दशक में कुछ मामलों में कांग्रेस (या अन्य स्थानीय राजनीतिक समूहों) के स्थानीय नेताओं/सपोर्टरों पर आरोप लगे कि उन्होंने या उनके समर्थकों ने हिंसा को संरक्षण या दिशा दी, पर हर मामले में राजनीतिक जुड़ाव बराबर प्रमाणित नहीं हुआ; कई मामलों में लंबी मुक़दमेबाजी और बिना-नतीजे वाली जांचों की शिकायत भी रही।
जहानाबाद और आसपास के इलाकों में 1980 के दशक की इन हत्याओं की कहानी केवल अतीत की कथा नहीं है। यह बताती है कि जब जमीन, जाति, व राजनीतिक शक्ति मिले तो सामाजिक सुरक्षा कहां फेल हो सकती है। इन घटनाओं ने यह भी उजागर किया कि त्वरित, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच तथा न्यायिक प्रक्रिया तथा सामाजिक-आर्थिक सुधार ही ऐसी हिंसा को जड़ से खत्म कर सकती हैं।
मानवाधिकार संगठनों, मीडिया और सामाजिक आंदोलनों की निरन्तर निगरानी एवं पीड़ितों की आवाज़ को न्यायपालिका तक पहुंचाना आवश्यक रहा। दुखद बात यह रही कि जहानाबाद में दलितों की हत्या करने वाले अपराधियों को कांग्रेस के बड़े नेता का संरक्षण मिलने का गंभीर आरोप रहा। लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने इसे निरंतर सांसद बनाए रखने में भी संकोच नहीं किया। इसे जातीय समीकरण के साथ धनबल और बाहुबली की राजनीति के रूप में याद किया जाता है। एक बार राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने मेरी अनौपचारिक मुलाकात के दौरान कांग्रेस पार्टी और सरकार द्वारा ऐसे बाहुबली नेता को प्रश्रय दिए जाने पर गहरा दुख व्यक्त किया था। इस तरह बिहार की राजनीति में जातीय और सांप्रदायिक संघर्ष का मुद्दा निरंतर रहा है। (लेखक आज समाज-इंडिया न्यूज के संपादकीय निदेशक हैं।)
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