Editorial Aaj Samaaj: पुरवैया के आगे चले ना कोई जोर

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Editorial Aaj Samaaj: पुरवैया के आगे चले ना कोई जोर

Editorial Aaj Samaaj | राजीव रंजन तिवारी | रामा गजब ढाए, ये पुरवैया, नैया संभालो कित खोये हो खिवैया। होय, पुरवैया के आगे चले ना कोई जोर, जियारा रे झूमे ऐसे, जैसे बनमा नाचे मोर। जी, ठीक ही पढ़ा आपने। यह पुरानी फिल्मी गीत का एक अंश है। देश की सियासत को बारीकी से समझने की कोशिश करेंगे तो अब आपको कुछ इसी तरह का महसूस होगा। यहां जोर पुरवैया पर है। संक्षेप में पुरवैया को समझते हैं। पुरवैया मुख्य रूप से पूर्वी हवाओं के लिए एक शब्द है, जो देश के भोजपुरी क्षेत्र में विशेष रूप से खास है। यह शब्द दक्षिण-पश्चिम मानसून का भी प्रतिनिधित्व करता है, जब मानसून की हवाएं पूर्व से आती हैं और क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। इसका तार हम भारतीय सियासत से जोड़ रहे हैं। ठीक से समझिएगा।

Editorial Aaj Samaaj : पहले दादा, फिर पिता और अब बेटा
राजीव रंजन तिवारी, संपादक, आज समाज।

याद कीजिए, जब पुरानी चोटों में दर्द शुरू होता है तो बुजुर्ग कहते हैं कि ये पुरवैया हवा के कारण हो रहा है। जब पुरवैया हवा चलती है तो उससे पुराने चोटों के दर्द फिर से होने लगते हैं। दरअसल, ये हवा जिस और से आती है, वहां से वो वातावरण के शरद और गर्म प्रभाव तथा गंध को अपने साथ लेके बहती है। पूर्व से चलने के कारण ये हवा सुबह के समय ठंडी होती है, क्योंकि सूर्य अपनी भौगालिक स्थिति की वजह से सुबह के समय अधिक असरदार नही होता। वहीं दिन होते-होते ये अपनी दिशा छोड़ देता है। फलतः इस हवा के अंदर की नमी खत्म नही हो पाती। वहीं दिन में ये गर्म और ठंडी हवा के मिश्रण के रूप में होती है। जब ये ठंडी या मिश्रित हवा शरीर से टकराती है तो ये शरीर की त्वचा में ठंडी नमी बना देती है, जो कि शारीरिक तापमान को चुनौती देता है। हवा लगने से मासपेशियां सिकुड़ती हैं और उनमें खिंचाव होता है। इस वजह से दर्द का अहसास होने लगता है।

इस प्रकार आप समझ ही गए होंगे कि पुरवैया का असर मानव जीवन पर किस कदर होता है। अब बात करते हैं पूरब से बहने वाली सियासी हवा की, जिस पर किसी का कोई जोर नहीं चल पा रहा है। खासकर देश का विपक्षी खेमा कुछ ज्यादा ही परेशान है। वजह स्पष्ट है, सियासी पुरवैया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 13 से 15 सितंबर के बीच भारत के बेचैन पूरब की तीन दिवसीय यात्रा ने भाजपा की चुनावी रणनीति का अनोखे ढंग से खुलासा किया। मणिपुर के जातीय नरसंहारों के मैदानों से लेकर असम की बेदखली की गवाह जगहों तक और फिर चुनाव की ओर बढ़ रहे पश्चिम बंगाल और बिहार तक मोदी ने लगातार एक ही थीम पर जबानी हथौड़ा चलाया। यह थीम थी कि अवैध आप्रवासी भारत के जनसांख्यिकीय संतुलन के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं और केवल उनकी पार्टी इसे रोक सकती है। यह यात्रा हजारों करोड़ रुपए की विकास परियोजनाओं का उद्घाटन करने के लिए थी, लेकिन इसमें वह अभियान भी लांच हो गया जिसके विधानसभा चुनावों के लिए असरकारक माना जा रहा है।

बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद 2026 में असम और पश्चिम बंगाल के चुनाव होंगे। इन राज्यों की बांग्लादेश के साथ सटी सीमाएं सूराखदार हैं और दशकों की जनसांख्यिकीय हलचल की गवाह रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के कार्यक्रम का हरेक पड़ाव भारत में प्रवासियों के आने से जुड़ी चिंताओं के अलहदा पहलू की नुमाइंदगी करता था और इसकी बदौलत वे अपने संदेश को स्थानीय तकलीफों और शिकायतों के हिसाब से नाप-तौलकर गढ़ पाए। साथ ही मोदी ने जनसांख्यिकीय खतरे के बारे में राष्ट्रीय नैरेटिव भी खड़ा कर दिया। यूं कहें कि तीन दिनों के भीतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरब से जो सियासी पुरवैया बहाई, उसका असर कायम रहने वाला है। दिलचस्प यह कि इन यात्रा के समापन के तुरंत बाद उनका 75 वां जन्मदिन आ गया, जिसे उनके समर्थकों ने बड़े ही धूमधाम और उत्साह पूर्वक मनाया।

अब मुख्य बिंदु पर आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 13 सितंबर को मणिपुर की यात्रा का असाधारण प्रतीकात्मक महत्व था। यह मैतेई और कुकी-जो के बीच जातीय हिंसा फूट पड़ने के बाद राज्य में उनकी पहली हाजिरी थी। मई और अगस्त 2023 के बीच इस हिंसा में करीब 200 लोग मारे गए और 60,000 विस्थापित हुए। मोदी ने इंफाल में ऐलान किया कि केंद्र सरकार जनसांख्यिकीय मिशन लेकर आ रही है और पूरे देश को घुसपैठियों से मुक्त करके ही मानेगी। चुराचांदपुर और इंफाल की यात्राओं में जहां प्रधानमंत्री ने 8,500 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन किया, वहीं इन निश्चित तनावों का साफ-साफ जिक्र करने से बचते रहे। फिर भी सरहदी इलाकों में जनसांख्यिकीय साजिशों के बारे में उनकी चेतावनियों ने उस राज्य में लोगों के मन को जोरदार ढंग से छुआ जहां घुसपैठ की वजह से सांप्रदायिक हिंसा भड़कती रही है। उनकी सरकार उन लोगों की दलील को मानती है, हिंसक तौर-तरीकों का भले न करे, जो सीमा-पार आवाजाही को वजूद के खतरे की तौर पर देखते हैं।

इसके अलावा असम में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनावी अभियान का भरपूर मंच मिला। 14 सितंबर को दरांग जिले के मंगलदोई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अवैध प्रवासियों और उनके कथित राजनीतिक सरपरस्तों के खिलाफ बड़ा हमला बोला। इसके लिए चुनी गई जगह बेहद खास थी। दरांग में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा के प्रशासन के मातहत बेदखली का सबसे विवादास्पद अभियान चलाया गया, जहां प्रवासी मूल के बंगाली भाषी मुसलमानों को उस जगह से हटाया गया जिसे सरकार अतिक्रमित जमीन कहती है। दिलचस्प यह है कि दरांग में मोदी की भाषा मणिपुर में एहतियात से चुने गए उनके शब्दों के मुकाबले कहीं ज्यादा तीखी थी। उन्होंने आरोप लगाया कि विपक्ष इन घुसपैठियों को हमेशा भारत में बनाए रखना चाहता है। उनका यह कहना कि घुसपैठिये हमारी बहन-बेटियों पर अत्याचार करते हैं, देशज असमिया समुदाय के दिलों को छू लिया।

इस प्रकार प्रधानमंत्री ने विरोधियों के खिलाफ चुनावी नैरेटिव तैयार किया। कहा कि लिखवा कर ले लीजिए, मैं देखूंगा कि घुसपैठियों को बचाने के लिए आप कितनी ताकत लगाते हैं और हम दिखाएंगे कि घुसपैठियों को निकालने के लिए हम किस तरह अपना जीवन समर्पित करते हैं। यह बात इस तरह कही गई कि यह दस्तावेजों, नागरिकता और संबद्धता के पेचीदा मुद्दे को सीधे-सादे दोफाड़ में तब्दील कर देती है। वे जो भाजपा का समर्थन करते हैं, राष्ट्र की रक्षा करते हैं, जबकि वे जो विरोध करते हैं, घुसपैठियों की रक्षा करते हैं। याद कीजिए कि फरवरी 2014 में पूर्वोत्तर में अपने चुनाव अभियान के बिल्कुल पहले भाषण में मोदी ने कसम खाई थी कि उनकी सरकार के सत्ता संभालते ही अवैध घुसपैठियों को उनका बोरिया-बिस्तर समेटकर वापस भेज दिया जाएगा। उसके बाद भले एनआरसी लागू न हुई हो, लेकिन असम के 19 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया। उसी दिन गोलाघाट जिले के नुमालीगढ़ में मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने किस तरह असमिया संस्कृति के प्रतीक और प्रसिद्ध गायक भूपेन हजारिका सरीखी शख्सियतों का अपमान किया। यहां भी इशारा जनसांख्यिकीय चिंता ही था।

अब बात बंगाल की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 सितंबर को कोलकाता के दौरे पर थे। उनकी यह यात्रा जनसभाओं के बजाय संयुक्त कमांडर सम्मेलन पर केंद्रित थी। दरअसल, पश्चिम बंगाल घुसपैठ की बहस के लिए सबसे सरगर्म रणभूमि है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुद को कामयाबी के साथ बंगाली भाषी मुसलमानों की रक्षक की स्थिति में आसीन कर लिया है और उनका कहना है कि इन लोगों को गलत ढंग से बांग्लादेशी घुसपैठिया बताया जा रहा है। राज्य ने बंगाली मुसलमानों को भाजपा शासित राज्यों में संदिग्ध विदेशी बताकर हिरासत में लिए जाने और भारतीय नागरिकता साबित होने के बाद छोड़े जाने की घटनाएं बार-बार होती देखी हैं। बंगाल में भाजपा की चुनौती खास तौर पर पेचीदा है। क्योंकि यहां उसे बंगाली हिंदुओं (जिन्हें वह बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों से रिझाती है) और बंगाली मुसलमानों (जिन्हें वह जनसांख्यिकीय खतरे के तौर पर पेश करती है) के बीच फर्क करना ही होगा। नागरिकता की इस भाषाई व्याख्या ने ममता को सियासी हथियार दे दिया है, जिससे वे भाजपा को बंगाली विरोधी बता सकती हैं।

इसी क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार में पूर्णिया हवाई अड्डे के उद्घाटन के साथ अपनी यात्रा का समापन किया। इसे भी सियासी नजरिए से देख सकते हैं। बिहार में फिलहाल विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की कवायद चल रही है, जिसके लिए 2003 के बाद पंजीकृत मतदाताओं को अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करनी पड़ रही है। बंगाल और नेपाल की सीमा से सटे बिहार के सीमांचल इलाके पर भाजपा का खास ध्यान है। यहां कुछ जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक 68 फीसद से ऊपर हो गए हैं, जिससे घुसपैठ के जरिए जनसांख्यिकीय बदलाव के भाजपा के दावों को बल मिलता है। अब जब चुनाव आयोग ने तस्दीक कर दी है कि एसआईआर पश्चिम बंगाल और असम सहित देश भर में शुरू किया जाएगा। इससे अवैध घुसपैठ के नैरेटिव का और तीखी धार अख्तियार करना तय है। केंद्र सरकार ने इस विमर्श को विधायी आधार पर ही दे दिया है। अप्रैल में संसद ने औपनिवेशिक काल के चार कानूनों को मिलाकर आव्रजन और विदेशी अधिनियम 2025 बनाया था।

इससे इतर 18 सितंबर केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने बिहार में जबरदस्त ढंग से सियासी नैरेटिव सेट किया। यहां उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर विपक्ष पर हमला करने के अलावा घुसपैठियों का मुद्दा भी उठाया। मतलब साफ है कि मोदी और शाह ने पूरब से जो पुरवैया बहाई है उसका असर आगामी विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा। परिणाम क्या होगा, यह तो चुनावों के उपरांत ही पता चलेगा। लेकिन इतना जरूर है कि पुरवैया हवा का जोर इन चुनावों में चलेगा, जिसे मोदी-शाह ने सेट किया है। बहरहाल, कह सकते हैं कि मोदी और शाह ने अपनी यात्राओं से जो पुरवैया बहाई है, उससे विपक्षी दलों के पेशानी पर पसीना आना तय है। वैसे भी कहा जाता है कि पुरवैया पर किसी का जोर नहीं चलता। अब देखना यह है कि मोदी-शाह द्वारा बहाई गई इस सियासी पुरवैया का कितना असर होता है। (लेखक आज समाज के संपादक हैं।) 

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