100 Years of RSS : सेवा, संस्कार, संगठन : संघ के 100 साल

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100 Years of RSS : सेवा, संस्कार, संगठन : संघ के 100 साल
100 Years of RSS : सेवा, संस्कार, संगठन : संघ के 100 साल

100 Years of Rss (कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा) : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) 2025 में अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यह अवसर केवल उसकी समकालीन भूमिका को नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र निर्माण में उसकी कम ज्ञात यात्रा को भी समझने का आमंत्रण देता है। हाल ही में संघ ने दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यान श्रृंखला का आयोजन किया

जहां सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने एकता, समावेशिता और भारत की मार्गदर्शक सभ्यता की भूमिका पर विचार रखे। उन्होंने श्रोताओं को याद दिलाया— ‘हिंदू वह है जो सभी मार्गों का सम्मान करता है,’ और यह भी कहा कि भारत का डीएनए चालीस हज़ार वर्षों से एक जैसा रहा है। उनके अनुसार, ‘हिंदू राष्ट्र’ कोई बहिष्कारी नारा नहीं बल्कि सौहार्द की स्वीकृति है—’हमारी संस्कृति एकता में जीने की है, संघर्ष में नहीं।’

अनुशासित चरित्र और शांत सेवा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का निर्माण

अक्सर केवल राजनीति के चश्मे से देखे जाने वाले संघ को एक विचार के रूप में समझना बेहतर है—अनुशासित चरित्र और शांत सेवा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता का निर्माण। संघ की कहानी एक युवा डॉक्टर से शुरू होती है। कलकत्ता में मेडिकल छात्र रहते हुए वे क्रांतिकारी मंडलियों से जुड़े, जो औपनिवेशिक सत्ता को चुनौती दे रहे थे। उस शुरुआती अनुभव से अनुशासन, गोपनीयता और बलिदान की भावना उन्होंने सीखी, जिसने आगे चलकर उनके सांस्कृतिक संगठन की दृष्टि को आकार दिया।

1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने एक जोशीला भाषण दिया और गिरफ्तार कर जेल भेजे गए। 1920 के दशक में वे कांग्रेस के सत्याग्रहों में सक्रिय रहे। परंतु समय के साथ उन्हें लगा कि आंदोलन जनता को जगा सकता है, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद उसे टिकाऊ बनाने के लिए अनुशासित नागरिकता की आवश्यकता होगी।

सोच जो नागरिकों में अनुशासन और समर्पण पैदा करे

100 Years of RSS : सेवा, संस्कार, संगठन : संघ के 100 साल
(कार्तिकेय शर्मा, सांसद, राज्यसभा)

यही सोच उन्हें एक ऐसे आंदोलन की ओर ले गई जो नागरिकों में अनुशासन और समर्पण पैदा करे। वे और कोई नहीं बल्कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार थे—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, जिनके योगदान ने इस स्थायी संगठन की नींव रखी। इसी सोच से शाखा का जन्म हुआ—एक दैनिक मंच जहां विभिन्न जाति और वर्ग के युवक प्रतिदिन मिलते, व्यायाम करते, प्रार्थना करते और राष्ट्र को एक परिवार मानना सीखते है।

1930 और 1940 के दशकों में स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता संग्राम में व्यक्तिगत स्तर पर योगदान दिया। संगठन ने स्वयं कभी सत्याग्रह का आह्वान नहीं किया, लेकिन उसके सदस्य आंदोलनों, भूमिगत संजाल और कई नगरों में कांग्रेस नेताओं को चुपचाप सहयोग देने में जुटे रहे। विदर्भ और बंगाल में स्वयंसेवकों द्वारा कार्यकर्ताओं को आश्रय देने और प्रतिबंधित साहित्य के वितरण की घटनाएं दर्ज हैं। नाना पालकर, एक वरिष्ठ प्रचारक, ने याद किया कि कैसे अनेक युवा स्वयंसेवक कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ सत्याग्रहों में शामिल होकर जेल जाने का जोखिम उठाते थे।

‘वी एंड द वर्ल्ड अराउंड’

डॉ. मनमोहन वैद्य ने अपनी पुस्तक ‘वी एंड द वर्ल्ड अराउंड’ में लिखा है कि प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने भी चेताया था कि भारत की स्वतंत्रता को किसी एक आंदोलन या विचारधारा तक सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा, स्वतंत्रता न तो ब्रिटिशों का ‘तोहफ़ा’ थी, न ही किसी एक दल की उपलब्धि, बल्कि ‘असंख्य छोटे और बड़े प्रयासों’ का फल थी, जिसने औपनिवेशिक शासन को टिके रहना असंभव बना दिया। इस कसौटी पर, संघ ने भी अपना योगदान दिया—ऐसे अनुशासित, सेवा-भावी युवकों को तैयार करके जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानते थे।

संघ का लंबे समय से अध्ययन करने वाले वॉल्टर एंडर्सन शाखा को ‘नैतिक प्रयोगशाला’ कहते हैं। यहीं पर एक नए प्रकार का राष्ट्रीय नागरिक तैयार होता था—जो जातिगत बंधनों से ऊपर उठना, शारीरिक अनुशासन से आत्म-संयम सीखता है और सामूहिक प्रार्थना व सेवा से कर्तव्य की भावना ग्रहण करता है। यह स्वतंत्रता संग्राम की बड़ी रैलियों या विद्रोहों जैसी चकाचौंध करने वाली गतिविधियाँ नहीं थीं, लेकिन एंडर्सन याद दिलाते हैं कि ऐसे दैनिक अभ्यासों ने नागरिक संस्कृति गढ़ी, जिसके बिना स्वतंत्रता की इमारत कमजोर रहती।

एकता का अर्थ समानता नहीं बल्कि साझा जुड़ाव

दार्शनिक दृष्टि से संघ का दृष्टिकोण वही चिंता प्रतिध्वनित करता है जिसे बाद में सैमुअल पी. हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक “हु आर वी?” में व्यक्त किया था—कि यदि राष्ट्र साझा संस्कृति खो दें तो वे बिखर सकते हैं। भारत के लिए, संघ का तर्क था कि विभाजन की दवा, धर्म को सभ्यतागत गोंद के रूप में पुनर्जीवित करना है—एकता का अर्थ समानता नहीं बल्कि साझा जुड़ाव है।

जैसा कि संघ के दूसरे सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर अक्सर कहा करते थे: ‘कोई श्रेष्ठ या निम्न नहीं है; सभी भाई हैं।’ डिवाइड एंड रूल’ की ब्रिटिश राज की नीतियों से खंडित समाज में, यह संदेश अपनी सादगी में क्रांतिकारी था। डॉ. भागवत ने इस शाश्वत भाव को और पुष्ट किया जब उन्होंने हिंदुत्व को तीन शब्दों में परिभाषित किया: सत्य, प्रेम और एकता – एक सभ्यतागत लोकाचार जो बंधुत्व को शक्ति के रूप में देखता है।

समय के साथ, यह दृष्टिकोण व्यापक सामाजिक कार्यों में बदल गया। संघ के सहयोगी संगठनों ने उसकी विचारधारा को विद्यालयों, श्रमिक संघों और सेवा परियोजनाओं तक पहुँचाया। विद्या भारती ने देशभर में स्कूल स्थापित किए; वनवासी कल्याण आश्रम के द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में कार्य किया; सेवा भारती शहरी झुग्गियों में उतरी; एकल विद्यालयों ने दूरस्थ गाँवों तक साक्षरता पहुँचाई।

इन्हीं शाखाओं में प्रशिक्षित स्वयंसेवक राष्ट्रीय आपदाओं में अग्रिम पंक्ति के राहतकर्मी बने। गुजरात भूकंप, ओडिशा चक्रवात और कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। हाल ही में 2025 में उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर की विनाशकारी बाढ़ में वे सबसे पहले पहुँचने और सबसे अंत में लौटने वाले रहे—लाशें उठाना, भोजन बाँटना, सांत्वना देना। उनके लिए सेवा दान नहीं, कर्तव्य है; और शाखा का अनुशासन संकट की घड़ी में सेवा की सहज प्रवृत्ति बन जाता है।

संघ ने कभी दावा नहीं किया कि स्वतंत्रता या प्रगति केवल उसी की देन

स्वतंत्रता संग्राम संघ की सभ्यतागत परियोजना की बस शुरुआत थी। डॉ. हेडगेवार ने प्रसिद्ध रूप से कहा था कि असली राष्ट्र निर्माण का कार्य स्वतंत्रता के बाद शुरू होगा—जब भारत को अपनी सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक एकता पुनः खोजनी होगी। बीते सौ वर्षों ने उनकी इस दृष्टि को पुष्ट किया है। संघ ने कभी दावा नहीं किया कि स्वतंत्रता या प्रगति केवल उसी की देन है।

बल्कि उसने हमेशा यह रेखांकित किया है, जैसा कि आर.सी. मजूमदार ने कहा था, कि इतिहास अनेक हाथों, अनेक बलिदानों और अनेक विचारधाराओं का जोड़ है। इसी संदर्भ में डॉ. भागवत का यह स्मरण कि अखंड भारत कोई राजनीतिक परियोजना नहीं बल्कि सभ्यतागत विचार है, हेडगेवार की अंतर्दृष्टि के साथ मेल खाता है। एकता का अर्थ भिन्नताओं को मिटाना नहीं, बल्कि भाईचारे को पुनः खोज लेना है।

संघ का स्थायित्व समन्वय या आम सहमति बनाने पर टिका ,न कि थोपने पर

अपने शताब्दी वर्ष के संबोधन में, सरसंघचालक ने श्रोताओं को याद दिलाया कि संघ का स्थायित्व समन्वय या आम सहमति बनाने पर टिका है, न कि थोपने पर। उन्होंने भारतीय मजदूर संघ, जो श्रमिकों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, और लघु उद्योग भारती, जो छोटे और मध्यम उद्यमियों की आवाज़ है, जैसे सहयोगी संगठनों का उल्लेख किया। अपने स्वभाव से ही, श्रम और उद्योग की प्राथमिकताएँ अक्सर परस्पर विरोधी होती हैं, फिर भी संघ के भीतर उन्हें विचार-विमर्श, समायोजन और एक आम सहमति पर पहुँचने के लिए एक साथ लाया जाता है।

उन्होंने तर्क दिया कि आम सहमति की इसी भावना ने संघ को शिक्षा, श्रम, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य और संस्कृति के क्षेत्रों में बिना किसी विखंडन के विस्तार करने में सक्षम बनाया है। उन्होंने कहा, ‘कोई भी संगठन जो थोपता है, सौ साल तक जीवित नहीं रह सकता,’ और इस बात पर ज़ोर दिया कि स्वयंसेवकों ने हुक्म चलाने के बजाय बहस करना और समझाना सीखा है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि संघ इसलिए टिका हुआ है क्योंकि वह क्षणिक सत्ता के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र-निर्माण के गहन कार्य के लिए काम करता है। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन संघ ने हर प्रशासन का समर्थन किया है, जहाँ तक उसके कार्यक्रमों ने समाज और राष्ट्र को मज़बूत किया है।

सेवा दान नहीं, कर्तव्य 

स्थापना के सौ वर्ष बाद भी संघ का संदेश प्रासंगिक है। सेवा दान नहीं, कर्तव्य है। एकता समानता नहीं, बल्कि भाईचारा है। राष्ट्र केवल राजनीतिक समझौता नहीं, बल्कि सभ्यतागत धरोहर है। प्रगति का मापदंड मजबूत का सुख नहीं, बल्कि कमजोर का उत्थान है।

वॉल्टर एंडर्सन के अनुसार, संघ की ताकत केवल संख्या में नहीं, बल्कि उद्देश्य और जुड़ाव की उस भावना में है जो तात्कालिक राजनीति से परे जीवित रहती है। यही उसकी स्थायी विरासत हो सकती है, कि बदलावों, विचारधाराओं और वैश्विक चिंताओं से भरी एक सदी में भी संघ ने भारतीयों को उनकी सभ्यता की गहरी लय और अनुशासित सेवा की परिवर्तनकारी शक्ति की याद दिलाई है।