Why is everything the same! सब कुछ एक जैसा ही क्यों हो!

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कानपुर के जिस गोविंद नगर मोहल्ले में मैं पला-बढ़ा, उसमें पश्चिमी पंजाब (जो बाद में पाकिस्तान बना) से आए पंजाबी रिफ़्यूजी रहते थे। उनमें से दो बुड्ढों को सब लोग खब्ती कहते थे। उनमें एक को सीता-राम कहने से चिढ़ होती और दूसरे को राधे-श्याम से। दरअसल एक को राम से प्रीति थी और दूसरे को कृष्ण से। दोनों एक ही समुदाय से, एक जैसी बोली बोलने वाले और एक ही उम्र के लेकिन पसंद अपनी-अपनी। इसी पंजाबी समुदाय में बहुत-से लोग देवी दुर्गा के उपासक थे और वे वैष्णो देवी की यात्रा करते।
कुछ को हनुमान जी से अनुराग था। जो सिख रिफ़्यूजी थे, उनमें भी कुछ नीली पगड़ी वाले अकाली, कुछ नामधारी, कुछ सहजधारी, कुछ सफेद साफे जैसा फाटा लपेटने वाले सतनामी और कुछ निर्मल सम्प्रदाय के थे। सिंधियों में झूलेलाल को मानने वाले, कुछ समुद्र के देवता वरुण देव के उपासक, बलूचिस्तान की हिंग्लाज देवी की आराधना करने वाले और कुछ श्रीकृष्ण प्रणामी सम्प्रदाय (गांधी जी का परिवार भी इसी संप्रदाय का था) के थे। लेकिन सबको पंजाबी ही कहा जाता।
पंजाबी एक पहचान थी और उन सबकी निजी आस्थाएँ अलग-अलग। ठीक इसी तरह भारतीय एक पहचान है और यहाँ हर एक की आस्था भिन्न है, बोली अलग है और कई बार तो परस्पर विपरीत भी है। फिर भी देखिए हजारों वर्ष से लोग रह रहे हैं इस जंबू द्वीपे, भरतखंडे, आर्यावर्त में। कोई भी किसी को उसकी आस्था से नहीं डिगा सका। समाज सुधार के आंदोलन हुए, उनमें से कुछ चीजें स्वीकारीं किंतु नीचे के स्तर पर उनके बीच यह मत-भिन्नता बनी रही। और यही किसी समाज के जीवंत बने रहने का शाश्वत सबूत है। लेकिन अब सरकार और उसके कर्णधार पूरे देश को एक झंडे, एक आस्था, एक पूजा-पद्धति, एक जैसा सामाजिक आचार-विचार मानने के लिए दबाव बना रही है। लोग बेचैन हैं। यही कारण है कि बंगाल से गुजरात तक और जम्मू से तमिलनाडु तक बीजेपी नेता जै श्रीराम का जयकारा लगा ही देते हैं। लेकिन भारतीय समाज की पहचान उसका वैविध्य है, उसकी एकरूपता नहीं। उसकी राष्ट्रीय एकता उसके वैविध्य से ही उपजी है। यह वैविध्य के अंदर एकता का सूत्र कोई समझौता नही बल्कि स्वाभाविक है।
इसे समझने के लिए उसको समझना आवश्यक होगा किंतु बीजेपी की समझ से यह परे है। यह उस समाज से बना देश है जहाँ मेवाड़ के राणा प्रताप से युद्ध के समय दिल्लीश्वर अकबर के सेनापति राजा मान सिंह होते है और सेनापति का सहायक बादशाह अकबर का बेटा शहजादा सलीम। उधर राणा प्रताप के सेनापति हाकिम सूर हैं। यानी धर्म, आस्था बीच में आड़े नहीं आती। ठीक इसी तरह शिवाजी जब अजमल खाँ से निहत्थे मिलने जा रहे थे तब शिवाजी के एक  मुस्लिम अंगरक्षक ने उन्हें सलाह दी थी कि अजमल खाँ का भरोसा नहीं किया जा सकता इसलिए आप अपने दाएँ हाथ की चारों अंगुलियों और अंगूठे में बघनख यूँ धारण कर लीजिए कि वे अँगूठी जैसी दिखें। शिवाजी को कितनी बार गाय खाने वाले पुर्तगालियों से समझौता करना पड़ता और टीपू सुल्तान ने सुअर खाने वाले फ्रÞांसीसियों से समझौता किया।
इसलिए एक संस्कृति, एक भाषा, एक जैसा खान-पान और एक जै श्रीराम कोई हल नहीं है। फर्ज़ कीजिए एक बार को बीजेपी उन्माद के जरिए अपने मकसद में सफल हो भी जाए तो क्या यह एकरूपता स्थायी होगी? जवाब है कतई नहीं।
क्योंकि इस देश की प्रकृति में कहीं भी एकरूपता नहीं है। उत्तर में पहाड़ हैं, पश्चिम में रेगिस्तान, दक्षिण में समुद्र है और पूर्व तक फैला विशाल उपजाऊ मैदान। सैकड़ों दो-आबे हैं। तब कैसे किसी एक सार्वभौमिक संस्कृति की बात की जा सकती है! संस्कृति बनती है किसी भी देश की भौगोलिक परिस्थिति से, वहाँ के उत्पादन के साधनों से तथा उनकी आस्थाओं से। इसे बनने में सैकड़ों साल का वक्त लगता है। इसे कोई एक संगठन, राजनीतिक दल या गिरोह सोचे कि वह इसे बदल देगा तो इसे उसकी हठधर्मिता ही कहा जाएगा।इसीलिए पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में जै श्रीराम का नारा लोगों को पच नहीं रहा। अगर बीजेपी ने असम, केरल, तमिलनाडु और पुद्दिचेरी में ऐसे ही नारों का आान किया तो उसके नियंताओं की राजनैतिक दृष्टि पर संदेह ही होगा।
श्रीराम बहुत से लोगों की आस्था के केंद्र हो सकते हैं किंतु पूरे देश की आस्था से उन्हें कोई मतलब नहीं। कई बार तो यह भी लगता है कि आजादी के पहले जब अंग्रेज भारत की एकता को तोड़ना चाहते थे तब उन्होंने सबसे पहले भारत के इस वैविध्य को नष्ट करने की चाल चली थी। हिंदू-मुस्लिम को बाँटा और फिर उनके फिरकों को। इसके लिए उन्होंने भी हिंदू का अर्थ श्रीराम को ही बताया था। अन्यथ क्या कारण है कि जो हिंदू-मुसलमान बाबर से बहादुर शाह जफर तक राम मंदिर के नाम पर कभी नहीं लड़े वे अचानक बाबरी मस्जिद प्रकरण को ले आए और उधर पाकिस्तान बनाने के प्रबल पक्षधर शायर इकबाल राम को ही इमामे-हिंद बताने लगे। इनके पहले भी हिंदू थे, मुसलमान थे, ब्राह्मण थे, दलित थे, शूद्र थे किंतु फिर भी एक थे। लेकिन अब राम का अर्थ हिंदू है और रहीम के मायने मुसलमान। यह परस्पर उन्माद फैलाने के तरीके हैं। लेकिन इसे भी समझने के लिए एक कथा को सुन लेना चाहिए। एक बार एक गुरुकुल से निकला स्नातक प्रयागराज में संगम घूमने गया।
शाम ढल रही थी और वह नाविक को लेकर संगम स्थल की तरफ चला जा रहा था। अचानक उसने नाविक से पूछा, कि हे नाविक! तुमने धर्मशास्त्र पढ़ा है? नाविक ने कहा नहीं। तब तो तुम्हारा चौथाई जीवन व्यर्थ गया यह कहते हुए उसने नाविक से पूछा, कि तुमने तर्क शास्त्र पढ़ा है? नाविक का जवाब नहीं था। नाविक का आधा जीवन व्यर्थ बताते हुए उस बटुक ने अगला सवाल किया, नाविक तुमने गणित पढ़ा है? फिर नाविक का जवाब नहीं में था और बटुक ने उसके तीन चौथाई जीवन को व्यर्थ बता दिया। अचानक आसमान में बादल घिर आए और बिजली चमकने लगी। नाविक ने पूछा, हे ब्राह्मण! तूने तैरना सीखा है? बटुक बोला, नहीं। नदी में छलाँग लगाते हुए नाविक बोला, युवक तेरा तो समूचा जीवन व्यर्थ गया। ग्रीक दार्शनिक प्लेटो राज्य चलाने वाले तंत्र की व्याख्या करते हुए कहता है, कि जब कुछ लोग नाव में बैठे हों तब नाव चलाने के लिए नाविक का चयन वोट से नहीं, नाव चलाने की उसकी योग्यता से होता है।
यही प्रक्रिया वे राज्य के तंत्र को चलाने के लिए योग्य नायक पर लागू करते हैं। यानी समाज का वह छोटा-सा वर्ग जो राज्य को चला सकता है। इसे ही बाद में रिस्टोक्रेसी कहा गया। इसके विपरीत डेमोक्रेसी वह है, जहां तंत्र को चलाने वाले का चयन हम चुनाव से करते हैं। प्लेटों के अनुसार   एरिस्टोक्रेसी में नेतृत्त्व क्रमश: कमजोर होने लगता है, क्योंकि शासक के मन में लोभ, वंशवाद और सत्ता के केंद्रीकरण की इच्छा पैदा होने लगती है। उधर डेमोक्रेसी की अनिवार्य परिणिति तानाशाही या एकाधिकारवाद है क्योंकि वहाँ कोई भी चतुर नेता लोगों को धर्म, संप्रदाय और जाति के नाम पर भड़का कर सत्ता पर काबिज रहने की चेष्टा करने लगता है। इसके अतिरिक्त पूँजीवादी क्रांति के बाद एक और शब्द आया रिपब्लिक।
अर्थात वह शासन व्यवस्था जब जनता ही अपने लोगों के बीच से कुछ लोगों का चयन तंत्र को चलाने के लिए करते हैं। इसके साथ ही कम्युनिज्म आया, जिसमें राज्य की समस्त जनता को समान माना गया। इसी के साथ आॅटोक्रेसी, आॅलीग्राकी, थियोक्रेसी और फासिज्म का उदय हुआ। इनमें से किसी को भी बहुत पुराना या नया नहीं कहा जा सकता। तंत्र के सभी प्रकार आज भी मौजूद हैं। लेकिन तंत्र जब फासिज्म की तरफ आ जाता है तो वह समाज के लिए घातक तो हो ही जाता है खुद के लिए भी आत्म-हंता साबित होता है। 19वीं और 20वीं सदी का इतिहास इसका गवाह है। जब मानव ने चौपाये से दोपाये की शक्ल ली होगी और लाखों वर्ष तक विकसित होते-होते इस मानव में परिवार और निजी सम्पत्ति बनाने की समझ आई होगी, तब से ही राज्य का तंत्र भी खड़ा हुआ होगा।
किंतु सदैव वही तंत्र बेहतर माना गया है, जिसमें सभी का हित करने की क्षमता हो। लेकिन अब नए हुक्मरान यह बात समझने को राजी नहीं हैं कि राज का मतलब है लोक-कल्याण।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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