Congress should take a lesson from its history! अपने इतिहास से ही सबक ले कांग्रेस! 

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पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। देश की सबसे पुरानी और आजादी दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी संकट में दिख रही है। केरल में लेफ्ट से, तो बंगाल में ममता और देश में भाजपा की चुनौती से जूझती कांग्रेस को पार्टी के अंदर जी-23 के हमलों का भी सामना करना पड़ रहा है। चुनावी राज्यों में राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका, जी जान से जुटे हैं मगर जी-23 का कोई नेता उनका सहयोगी नहीं है। उलट, वे सभी गांधी परिवार पर हमलावर हैं। भाजपा ने इसके लिए पूरी रणनीतिक बिसात बिछाई है। जो कांग्रेस को टुकड़ों में तोड़ने के लिए काफी है। माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नम आंखों से गुलाम नबी को विदाई देना इस रणनीति का हिस्सा है। ये नेता पांच राज्यों के चुनाव परिणाम का इंतजार कर रहे हैं। अगर कांग्रेस चुनाव में कमजोर प्रदर्शन करती है, तो इसका ठीकरा राहुल गांधी पर फोड़ते हुए कांग्रेस को टुकड़ों में बांट दिया जाये। बहुत से नेताओं को जी-23 में जोड़ने की कवायद शुरू हो चुकी है। ये नेता भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के संपर्क में हैं। भाई-बहन की जोड़ी कांग्रेस को बचाने के लिए रात दिन एक किये हैं। इन हालात में, कांग्रेस नेता उमेश पंडित का सवाल वाजिब है, कि कब तक हाईकमान ऐसे बड़े नेताओं को बख्शता रहेगा। सुविधाभोगी बड़े नेताओं पर कार्रवाई हो, तो छोटों में अच्छा संदेश जाएगा। हाईकमान को यह समझना होगा कि जो उसके हितैषी हैं, उन्हें संभालें और भीतरघातियों से दूरी बनायें।

कांग्रेस की बदहाली और उन्नयन को समझने के लिए उसके इतिहास को खंगालना जरूरी है। सत्ता में हिंदुस्तानियों की भागीदारी के उद्देश्य से 28 दिसम्बर 1885 को आज के मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में 72 सदस्यों ने कांग्रेस पार्टी बनाई थी। पहले अध्यक्ष आज के कोलकाता के व्योमेश चन्द्र बनर्जी बने और पूर्व अंग्रेज अधिकारी एओ ह्यूम पहले महासचिव। तत्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन ने पार्टी का समर्थन किया। ह्यूम को 27 साल बाद दिवंगत होने पर 1912 में नरम दल ने संस्थापक सदस्यों में जगह दी। उस वक्त इसे उच्च वर्ग की पार्टी समझा जाता था। कालांतर में स्वदेशी और स्वराज अभियान को लेकर पार्टी दो विचारधाराओं में बंट गई। 1907 में एक गरम दल बना, जिसके अगुआ बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्रपाल थे। इस गुट को लाल-बाल-पाल कहा जाता था, जो पूर्ण स्वराज मांग रहा था। दूसरा गुट यानी नरम दल, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व काम कर रहा था, जो ब्रिटिश राज में ही स्वशासन चाहता था। 1916 में लखनऊ अधिवेशन में दोनों दलों ने एक बार फिर एक होकर होम रूल आंदोलन की शुरुआत की। अंग्रेजो के राज में डोमिनियन स्टेटस की मांग रखी गई। इसके बाद भी कांग्रेस आमजन की पार्टी नहीं दिखती थी क्योंकि उसके नेता कुलीन वर्ग के विचारशील व्यक्ति मात्र थे। कमोबेश आज भी वही हाल है मगर अपने ही इतिहास से उसके नेता शायद सीखना नहीं चाहते।

देश अंग्रेजी गुलामी के भंवर में फंसा था। उधर, अफ्रीका में भारतीय बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी ने धूम मचा रखी थी। दूरगामी सोच के धनी पंडित मोती लाल नेहरू के आग्रह पर 1915 में महात्मा गांधी भारत लौटे। उन्होंने चंपारण और खेड़ा के किसान आंदोलन में हिस्सा लिया। इससे पहली बार कांग्रेस को जमीन की लड़ाई में हिस्सेदार बनने पर आम जन का समर्थन हासिल हुआ। 1919 में पंजाब में हुए जलियांवाला बाग कांड के बाद गांधी कांग्रेस के महासचिव बने। उनके प्रभाव में पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, महादेव देसाई और सुभाष चंद्र बोस सक्रिय रूप से आगे आये। कांग्रेस में संगठन खड़ा करने के लिए प्रदेश समितियों और विभागीय संगठनों का गठन हुआ। सभी पदों के लिए चुनाव की शुरुआत हुई। पार्टी की कार्यवाहियां भारतीय भाषाओं में शुरू हुईं। प्रांतीय और सामाजिक समस्याएं हल करने की शुरुआत हुई। इन नेताओं ने छुआछूत, पर्दाप्रथा और मद्यपान आदि के खिलाफ अभियान चला कांग्रेस को एक आंदोलन बना दिया गया। इस वक्त देशी हुकूमत में किसान तमाम राज्यों में आंदोलनरत हैं। दिल्ली की सीमाओं पर वह हमारे हक की लड़ाई पिछले 100 दिनों से लड़ रहे हैं, जिसमें करीब 250 किसान शहीद हो चुके हैं। बावजूद इसके आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर जगह नहीं बना पा रहा है। कारण, किसान आंदोलन को अराजनैतिक बताकर लड़ाई लड़ रहे हैं मगर यह भी सच है कि कोई आंदोलन बगैर राजनीतिक संबल के सशक्त नहीं हो सकता। वजह, नीति-नियमों की असली लड़ाई विधानसभाओं और संसद में ही होती है।

कांग्रेस की विडंबना है कि वह इतने बड़े किसान आंदोलन में सीधे नहीं कूद रही है, जबकि सत्तारूढ़ भाजपा के नेता सदैव इस आंदोलन को कांग्रेस पोषित बताकर हमलावर रहते हैं। सभी जानते हैं कि इस वक्त देश में दो ही राजनीतिक दल हैं, जो राष्ट्रीय राजनीति में एक दूसरे को चुनौती दे सकते हैं। एक धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा है, जो सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की रणनीति में माहिर है। उसकी विचारधारा का एक बड़ा काडर है, जो नेरेटिव सेट करने में माहिर है। भाजपा सत्ता के लिए उन स्थानीय दलों से भी समझौता करने में गुरेज नहीं करती, जो लंबे वक्त तक राष्ट्रवाद की खिलाफत करते रहे हैं। भाजपा का कोई नेता या संगठन उसकी इस नीति पर कभी सवाल नहीं उठाता है बल्कि बचाव करता है। वे जमीनी तौर पर खुद को मजबूत करने के लिए कुछ न कुछ करते दिखते हैं। दूसरी तरफ, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की जननी कांग्रेस पार्टी है। जिसके पास देश के लिए अपना सबकुछ बलिदान करने का इतिहास भी है। उसके नेता अपने घरों में आराम फरमाते हैं। वे सत्ता की खामियों के खिलाफ, आंदोलन खड़ा करने के बजाय अपनी ही पार्टी और नेताओं के खिलाफ बयानबाजी करने में लगे रहते हैं। ऐसे मीडियाजीवी नेताओं के कारण ही कांग्रेस लगातार जमीनी तौर पर कमजोर होती रही है। जहां भी उसने जमीनी लड़ाई लड़ी है, सफलता मिली है। बावजूद इसके, 90 फीसदी कांग्रेसी नेता यह सच समझने को तैयार नहीं हैं। वे सुविधाओं के लिए सत्तारूढ़ दल के इशारों पर खेलते दिखते हैं।

देश गंभीर संकटों से जूझ रहा है। आमजन के धन से खड़ी हुईं सार्वजनिक कंपनियों और निगमों को निजी हाथों में बेचा जा रहा है। बेरोजगारी और भ्रष्टाचार चरम पर है। महंगाई आमजन की कमाई चट कर रही है। महिलाएं-बेटियां और व्यापारी सुरक्षित नहीं हैं। अपराधी धमकाते खुलेआम घूम रहे हैं। शिक्षा के नाम पर मनगढ़ंत कहानियां रची जा रही हैं। यह एक फायदेमंद धंधा बन गया है। झूठे-मनगढ़ंत नेरेटिव सेट किये जा रहे हैं। संवैधानिक संस्थाओं पर सत्तारूढ़ दल ने अपनी विचारधारा की घुसपैठ करवा दी है। न्याय व्यवस्था सरकार के इशारे पर चलती है। सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने पर सरकारी जांच एजेंसियां हमले करती हैं। सैन्य बलों का भी राजनीतिकरण होने लगा है। सीमाएं सुरक्षित नहीं रह गई हैं और पड़ोसी देशों का अतिक्रमण जारी है। सरकार के तानाशाहीपूर्ण फैसलों से आमजन त्राहिमाम कर रहा है। वैश्विक इंडेक्स में हम हर मोर्चे पर लज्जित हो रहे हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम भरने के बावजूद हमारे यहां लोकतांत्रिक स्वतंत्रता आंशिक रूप से शेष बची है। विपक्ष और बुद्धिजीवी इसे अघोषित आपातकाल बताते हैं। मीडिया सरकार के गुणगान में व्यस्त है। क्षेत्रवाद, जातिवाद और सांप्रदायिक घृणा स्पष्ट दिख रही है। कुछ कारपोरेट घरानों को मालामाल करने के लिए सरकार नीतियां बना रही है। इतने मुद्दे होने के बाद भी कांग्रेस के नेता सड़क पर आंदोलन को तैयार नहीं हैं।

हमें याद है कि महात्मा गांधी कांग्रेस में आये थे, तब वह खांचों में बंटी थी। कांग्रेस जमीनी लड़ाई नहीं लड़ रही थी। गांधी ने कांग्रेस को जमीन पर उतार कर जन मुद्दों से जोड़ा। सभी वर्ग के युवाओं को पार्टी की कमान दी। आरामतलब बुड्ढों से किनारे किया। वित्तीय संकट खत्म करने के लिए चार आने की सदस्यता शुरू कर पार्टी को राष्ट्रीय बना दिया। स्वदेशी आंदोलन से लेकर अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन तक एक दर्जन जन आंदोलनों में जमीनी भूमिका निभाई। गांधी के आंदोलनों से देश की जनता एकजुट हुई। सभी क्षेत्रों, धर्म और जाति-वर्ग के लोग को जोड़ा। धीरे-धीरे पूरा देश और तमाम संगठन-दल, कांग्रेस के बैनर तले आ गये। हालांकि, कुछ कट्टरपंथी दल अंग्रेजी हुकूमत के साथ मिलकर कांग्रेस का विरोध करते रहे मगर जनता ने कांग्रेस को ही स्वीकारा। अगर, आज भी कांग्रेस के सभी नेता उसी तरह जनांदोलन बनकर जमीनी काम करें, तो तय है कि उनको कोई रोक नहीं सकता। इसके लिए गांधीवादी तरीका फिर से अपनाना होगा। आरामतलब नेताओं को किनारे लगाकर नये नेतृत्व को मजबूती से उतारना होगा। जब तक जमीनी जुड़ाव के साथ पार्टी आंदोलन का रूप नहीं धरेगी, तब तक कांग्रेस को बैसाखियों की जरूरत होगी। जरूरत संघर्षशील संगठन तैयार करने की है, न कि आरामतलबी को तवज्जो देने की। सुविधाभोगियों को बाहर का रास्ता दिखाकर जमीन पर जन और सामाजिक आंदोलन खड़ा करने से ही जन विश्वास जगेगा। ऐसा होने पर ही कांग्रेस वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी बन सकेगी। इतिहास गवाह है, लड़ाई सभी नहीं लड़ते हैं। आजादी की लड़ाई भी सिर्फ दो फीसदी लोगों ने ही लड़ी थी, भीड़ ने नहीं।     

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं) 

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