My murderer is my judge..! मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है..!

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हमारे एक सहयोगी का रात फोन आया कि उसकी हालत बिगड़ रही है। वक्त रहते आक्सीजन बेड नहीं मिला, तो मर जाएगा। हमने दिल्ली के मुख्यमंत्री और केंद्रीय स्वास्थ मंत्री को कॉल और मैसेज किया। तत्काल कोई मदद नहीं मिली। हमने एम्स के निदेशक दिल्ली के मुख्य सचिव को मैसेज किया। सकारात्मक जवाब आया। उनकी मदद से साथी को इलाज मिल सका। पिछले साल यूपी सरकार ने दावा किया था कि देश का सबसे बड़ा कोविड अस्पताल बनाया है मगर वहां के हालात और भी बदतर हैं। हमारे एक साथी के पिता की सांसें उखड़ रही थीं। उन्हें केजीएमयू में एडमिट कराना था। हमने लखनऊ के सीएमओ और डीएम को कॉल की। उन्हें मैसेज किया, मदद नहीं मिल सकी। हारकर अपर मुख्य सचिव से आग्रह किया। उन्होंने प्रयास किया, मगर तब तक देर हो चुकी थी। शाम को सरकारी डाटा जारी हुआ, तो खुशी जाहिर की गई कि आज एक्टिव केसेज और मरने वालों की संख्या घटी है। मरने वालों के प्रति कोई संवेदना नहीं थी। अफसरों (संविधान के अनुसार लोक सेवकों) और सत्तानशीन जन प्रतिनिधियों के लिए मरने वाला एक संख्या मात्र था। शायद उन्हें यह आभास ही नहीं कि मरने वाला किसी परिवार के लिए पूरी दुनिया था। एक जिले के डीएम से बात हुई, तो बोले भाई, केसेज कम करने का निर्देश है। उसी को मैनेज कर रहा हूं। आंकड़े कम करना आसान नहीं होता है। केंद्रीय स्वास्थ मंत्री डॉ हर्षवर्धन दावा करते हैं कि देश में पौने पांच लाख लोग आईसीयू में और पौने दो लाख लोग वेंटिलेटर पर भर्ती हैं। उन्हीं की सरकार के आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी और सरकारी सभी अस्पतालों में एक लाख आईसीयू बेड और 50 हजार वेंटिलेटर बेड नहीं हैं। आखिर सरकार झूठ बोलकर क्या मैनेज कर रही है?

हमारी सरकार को अक्तूबर महीने में उनकी ही विशेषज्ञ समिति ने रिपोर्ट दी थी कि देश में कोविड-19 की दूसरी लहर आएगी। जो अधिक खतरनाक होगी। विश्व स्वास्थ संगठन, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ मंत्री डॉ हर्षवर्धन खुद उपाध्यक्ष हैं, ने भी चेताया था। ब्रिटेन और अमेरिका दूसरी लहर का प्रकोप झेल रहे थे। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने विश्व के विशेषज्ञों से चर्चा के बाद सरकार को ताकीद किया था। उस वक्त, हर्षवर्धन ने इस संकट को नकार दिया था। तब सरकार कोरोना से जीत का जश्न मनाने में व्यस्त थी। केंद्र और राज्य की सरकारों के स्तर पर दूसरी लहर से निपटने की कोई तैयारी नहीं की गई। नतीजतन, जब कोरोना ने अपने पांव पसारे तो दोनों लड़ने में जुटे थे। अदालतों के हस्तक्षेप और फटकार के बाद राजधानी दिल्ली को विशेष मदद मिली मगर तब तक हजारों लोग अपनी जान गंवा चुके थे। अब कोरोना वैक्सीन को लेकर केंद्र और दिल्ली में जुबानी जंग चल रही है। दिल्ली मर रही है। अफसर आंकड़ों को मैनेज करने में जुटे हैं। केंद्र सरकार सीरम और भारत बायोटेक की वैक्सीन को यूं पेश करने में लगी थी, जैसे उसने ही इसे बनवाया हो। जबकि सरकार का इसमें कोई योगदान नहीं है। प्रचार के जरिए प्रपोगंडा की राजनीति में सब व्यस्त हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार पर सरकार करीब सवा तीन करोड़ रुपये रोज खर्च कर रही है। मैट्रो सिटी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी क्यों पीछे रहें, उन्होंने 2021 की पहली तिमाही में अपने प्रचार पर रोजाना डेढ़ करोड़ रुपये खर्च किये।

गृह मंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट कर बताया कि “मोदी सरकार ने PMGKAY के माध्यम से पिछले वर्ष 8 महीनों तक गरीबों को मुफ्त राशन दिया था। और इस बार भी मई और जून में 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को राशन मिले, इसकी व्यवस्था की गयी है। PMGKAY प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना है, जो यूपीए सरकार में बने खाद्य सुरक्षा कानून के तहत काम करती है। शाह से पहले केंद्रीय स्वास्थ मंत्री डॉ. हर्षवर्धन भी बता चुके हैं कि कोरोना से पनप रहे तनाव को कम करने के लिए लोगों को डार्क चॉकलेट खानी चाहिए। हर्षवर्धन चिकित्सक भी हैं, तो उनकी सलाह मानना बनता है। उनसे संवेदनशीलता की उम्मीद भी की जाती है। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जिस देश के 80 करोड़ लोग रोटी-दाल के लिए धक्के खाते भूखे सो जाते हैं, वहां डार्क चॉकलेट खाने के लिए रुपये कौन देगा? उनकी सरकार न तो वक्त पर दवायें, आक्सीजन, आईसीयू, वेंटिलेटर, बेड उपलब्ध करा पा रही है और न ही दूसरी लहर से निपटने के इंतजाम। फिर डार्क चॉकलेट कैसे खायें। पिछले साल 15 मार्च को हर्षवर्धन ने कहा था कि देश में कोविड-19 का कोई खतरा नहीं है, जबकि राहुल गांधी ने 8 फरवरी को इस खतरे से आगाह किया था। उन्हें खतरा तब महसूस हुआ, जब प्रधानमंत्री बोले।

विश्व के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल द लैंसेट में कोविड को लेकर बरती गई सरकारी और सियासी लापरवाही पर जो भी कहा गया, हम उस पर चर्चा नहीं करते। यूपी के पंचायत चुनाव हों या फिर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और कुंभ स्नान, उनमें जो हुआ, वह निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण था। कोरोना के बढ़ते आंकड़े और मौत इसके गवाह हैं। विश्व संगठन ने यूपी के फ्रंट लाइन स्वास्थ कर्मियों की सराहना की, तो सरकार ने इसे अपनी महानता की बता प्रचार किया। सच तो यह है कि पंचायत चुनाव की जिद में कोरोना का प्रकोप गांवों में भी फैल गया। वहां न अस्पताल हैं और न ही कोई संसाधन। स्वास्थ व्यवस्था पहले ही लाचार है। न जांच हो रही है और न वैक्सिनेशन। इसका एक उदाहरण बुलंदशहर का बनेल गांव है। जहां, आरएसएस के सरसंघचालक रज्जू मैय्या के पोते यानी भाई के पौत्र समेत दो दर्जन लोग इलाज के अभाव में मौत के मुंह में चले गये। साथ के गांव कैलावन में भी यही हुआ। दोनों गांव में महीने के भीतर 60 लोगों की मौत हो चुकी है। इन गांवों की आबादी करीब 19 हजार है मगर टेस्ट सिर्फ 138 लोगों का ही हुआ। उन्नाव से गाजीपुर, बलिया सहित नदियों के किनारे बसे तमाम जिलों में हजारों लाशें उतराती मिल रही हैं। जिनका कोई रिकॉर्ड नहीं है कि उनकी मौत कैसे हुई। शहरों के अस्पतालों में व्यवस्थाएं हैं नहीं, तो गांवों में उम्मीद बेमानी है।

इस वक्त देश के तमाम राज्यों में लॉकडाउन या कर्फ्यू लगा हुआ है। व्यापार व्यवसाय चौपट है। डेढ़ करोड़ लोग बेरोजगार हो गये हैं। सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही है। बेजा टैक्स ऊपर से लिया जा रहा है। महंगाई, कालाबाजारी और जमाखोरी के कारण लोग आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में केंद्र सरकार लोगों की जान बचाने के उपाय करने के बजाय राज्यों से वैक्सीन के लिए लड़ रही है। 1984 बैच के हमारे एक आईएएस मित्र ने कहा “स्वास्थ्य राज्य का विषय है। मगर मैं एक नागरिक हूं, राज्य का विषय नहीं”। हमारी सरकार विश्व में सबसे अधिक टैक्स लेती है। केंद्र सरकार जीएसटी, सर्विस टैक्स, कस्टम एंड एक्साइज टैक्स, कारपोरेट टैक्स और इनकम टैक्स वसूलती है। राज्यों को जीएसटी का अपना हिस्सा भी वक्त पर नहीं मिल रहा, जबकि कार्यक्रमों के क्रियान्वयन राज्य सरकार करती है। आपदा के वक्त में भी केंद्र सरकार नागरिकों के जीवन की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। दूसरी तरफ बंगाल के भाजपा विधायक हों या मोदी सरकार के “खास” उन्हें वाई-जेड-जेड प्लस आदि सुरक्षा दी जा रही हैं। इस आपदा से पूर्व सदैव टीकाकरण का खर्च केंद्र सरकार उठाती रही है मगर अब उसने मुंह मोड़ लिया है। बैड लोन कहकर कारपोरेट की बड़ी मछलियों को करीब 10 लाख करोड़ थमा दिये। आरबीआई से भी करीब इतना ही जमा धन निकाल लिया। दो हजार से अधिक बैंक शाखायें बंद कर दीं। दो दर्जन सरकारी कंपनियां बेच दी गईं। तमाम जमीनों के पट्टे कुछ लोगों को दे दिये गये। अपनी क्षवि बनाने के लिए प्रचार पर रुपये पानी की तरह बहाया जा रहा है। पूंजीपतियों के माफ किये गये, लोन का आधा भी सरकार नागरिकों का जीवन बचाने के लिए खर्च करने को तैयार नहीं है। बेरोजगारी और बीमारी रोज हजारों लोगों की जान ले रही है। अफसर आंकड़ों का प्रबंधन करने में लगे हैं।

एक बार जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने सवाल किया था कि आखिर हम भारतीय होने पर गर्व क्यों करें? गर्व करने का हमारे पास कोई कारण नहीं है। यहां सिर्फ नेताओं के भाषण हैं और उनके भक्तों की भीड़। लोगों की जान बचाने के लिए जब श्रीनिवास जैसा नेता या उनकी पार्टी आती है, तो उन्हें परेशान करने के लिए पुलिस भेज दी जाती है। गुजरात में सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष के यहां पांच हजार रेमीसीवर इंजेक्शन मिलते हैं, इसकी पूछताछ तक नहीं होती। बिहार के आरा में मरीजों की मदद कर रहे चंदन ओझा को गिरफ्तार कर लिया जाता है। कारण, उन्हें मदद करने को किसने अधिकृत किया था। पूर्व सांसद पप्पू यादव जब भाजपा सांसद की एंबुलेंस धांधली का खुलासा करते हैं, तो उन्हें 30 साल पुराने मामले में जेल भेज दिया जाता है। यह सब देखकर, सुदर्शन फ़ाकिर का शेर अनायास ही जुबां पर आ गया, मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है, क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा

जय हिंद!

(लेखक प्रधान संपादक हैं।)

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