Movement of Democratic Rights and Democracy Index: आंदोलनों का लोकतांत्रिक अधिकार और डेमोक्रेसी इंडेक्स

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75 दिनों से चल रहा किसानों का दिल्ली धरना अब एक अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया है। इसी दौरान संसद का बजट सत्र भी चल रहा है और सदन में विपक्ष ने आंदोलन के पक्ष में और सरकार ने आंदोलन के खिलाफ अपने तर्क रखे हैं। इस आंदोलन के वैश्विक चर्चा के दो आयाम हैं। एक है, वे तीनों कृषि कानून जिन्हें सरकार, कृषि सुधार एजेंडे का एक अंग मानती है और किसान उसे कृषि विरोधी बता रहे हैं और दूसरा, शांतिपूर्ण आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिये आंदोलनकारियों को विभाजनकारी, आतंकवादी, अलगाववादी आरोपों से आरोपित करना और आंदोलन को येनकेन प्रकारेण खत्म करने के लिये सड़कों पर दीवारें, कंटीली तारों की बाड़ और इंटरनेट बंद करना। पहला विंदु, देश की संसद द्वारा पारित कानून के संवैधानिक विरोध से जुड़ा है, जो निश्चित ही देश का आंतरिक मामला कहा जा सकता है, पर दूसरा विंदु, मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों से जुड़ा है, जिसे देश की सीमाओं से आबद्ध नहीं किया जा सकता है। जब भी इस प्रकरण पर हो रही वैश्विक चर्चा पर कोई टिप्पणी की जाय तो, यह महीन पर स्पष्ट अंतर ध्यान में रखा जाना चाहिए। दुनियाभर में यह चर्चा, एक लोकतांत्रिक देश में, जनता के शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन के अधिकारों को लेकर हो रही है न कि कानून की मेरिट और डीमेरिट को लेकर।
यह चर्चा भी तब शुरू हुई जब दिल्ली सीमा पर कंटीली बाड़ लगी और इंटरनेट बंद हुआ। दुनियाभर के कुछ सेलेब्रिटीज़, ब्रिटेन और अमेरिका के कुछ राजनीतिक नेता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरण के लिए चिंतित लोग और संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार संगठन ने भी इस आंदोलन के संबंध में अपनी टिप्पणी की। सबसे पहले ट्विटर पर 10 करोड़ फॉलोवर वाली अमेरिकी पॉप स्टार, रियाना ने सीएनएन की एक खबर का उल्लेख करते हुए यह ट्वीट किया कि, हम इसके बारे में कोई चर्चा क्यों नहीं करते हैं ? एक सामान्य सा ट्वीट था पर इस ट्वीट ने इस आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में ला दिया। रियाना के बाद, स्वीडन की पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थुनबर्ग ने और मिआ खलीफा के ट्वीट आये। इन तीनो के ट्वीट के बाद, भारतीय विदेश मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया दी और फिर भारतीय सेलेब्रिटीज़, लता मंगेशकर, सचिन तेंदुलकर, अक्षय खन्ना, कंगना राणावत तथा अन्य के ट्वीट आने लगे और फिर यह आंदोलन ट्विटर पर एक अलग ही शक्ल में दिखने लगा। बाद मेंअमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस के भी ट्वीट आये। यह सिलसिला अब भी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि जारी है।
यहीं एक सवाल उठता है कि क्या, नागरिक अधिकारों के समर्थन को किसी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाना चाहिए ? इस सवाल के उत्तर की खोज करने के पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि, जन सरोकारों, नागरिक तथा मौलिक अधिकारों, और सम्मान से जीने के अधिकारों को किसी राज्य या देश की सीमा में बांट कर नहीं रखा जा सकता है। आज किसान आंदोलन भी सम्मान पूर्वक जीने और अपनी कृषि संस्कृति को बचाने का आंदोलन बन गया है। इसके समर्थन में, दुनियाभर के सजग और सचेत नागरिक इस आंदोलन को अपना नैतिक, समर्थन दे रहे हैं तो, इसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह समर्थन न तो देश की संप्रभुता को चुनौती है और न ही सरकार के खिलाफ कोई विदेशी हस्तक्षेप। यह सजग और सचेत जनता का परस्पर संकट में साथ साथ खड़े होने का भाव है। धरती के नक्शे में खींची गयी रेखाएं देश, उसकी संप्रभुता, उनके कानून, आदि को भले ही परिभाषित करती हों, पर समस्त मानवीय आवश्यकतायें और उनके मौलिक अधिकार उस सीमाओं में आबद्ध नही है।
दुनियाभर में सभी देशों की जनता, ऐसे नगरिक अधिकारों के उल्लंघन पर एकजुटता दिखाती रहती है। किसान आंदोलन के समर्थन में दुनिया के अन्य देशों के नागरिकों द्वारा किया गया समर्थन न तो अनुचित है और न ही इससे सरकार को आहत होने की ज़रूरत है। अभी हाल ही में हुए अमेरिका के ब्लैक लाइव्स मैटर्स आंदोलन, फ्रांस में इस्लामी उग्रवादी तत्वों द्वारा चार्ली हेब्दो द्वारा बनाये गए कार्टून के बाद भड़काई गयी हिंसा का विरोध सभी लोकतांत्रिक देशों ने किया था और इसे अमेरिका और फ्रांस के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं माना गया था। इसी प्रकार चीन के थ्येन एन मेन स्क्वायर पर हजारों छात्रों को मार देने के विरोध में भी दुनियाभर से आवाज़ें उठी थीं।
साठ और सत्तर के दशक में अमेरिका द्वारा वियतनाम पर किये गए हमले के दौरान भारत मे जगह जगह वियतनाम के पक्ष में आवाज़ें उठी थीं, प्रदर्शन हुए, धन एकत्र किया गया, पर उसे अमेरिका और वियतनाम का निजी मामला किसी ने नहीं कहा। 1970 – 71 में जब पाकिस्तान ने अपने पूर्वी भूभाग पर अत्याचार करना शुरू कर दिया तो भारत ने पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, की जनता के अधिकारो और उनके जीवन रक्षा के लिये सभी जरूरी कदम उठाए। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं, जब दुनियाभर में, ऐसी आवाज़ें उठती रहती हैं। इस प्रकार के समर्थन में उठने वाली सारी आवाजे, जनता के मूल अधिकार और उसकी अस्मिता से जुड़ी हुयी हैं। यूएन का मानवाधिकार चार्टर किसी एक देश के लिये नही बनाया गया है, बल्कि, पूरी दुनिया के लिये ड्राफ़्ट किया गया है। यह बात अलग है कि, सभी देशों में मानवाधिकार के उल्लंघन होते रहते हैं। इस व्याधि से वे बड़े देश भी मुक्त नही हैं जो खुद को मानवाधिकार का ठेकेदार समझते हैं।
आज किसान कानून देश का आंतरिक मामला है। हमारी संसद ने उसे पारित किया है। उसमें कुछ कमियां हैं तो जनता उसके खिलाफ है। सरकार किसान संगठनों से बात कर भी रही है। पर जिस प्रकार से, धरने पर बैठे, आंदोलनकारियों की बिजली,पानी,नेट काट दिये जा रहे है, गाजा पट्टी की तरह, उन्हें अलग थलग करने के लिये, कई स्तरों की किलेबंदी की जा रही है, देश के नागरिकों को ही देशद्रोही कहा जा रहा है और सरकार इन सब पर या तो खामोश है या ऐसा करने की पोशीदा छूट दे रही है तो, यह सब नागरिकों द्वारा शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और असंवैधानिक भी। हालत यह है कि अब धरने पर बैठे किसान आंदोलनकारियों तक, स्वयंसेवी संस्थाएं, यदि कुछ मदद भी पहुंचानी चाहें तो वे मुश्किल से पहुंचा पा रही है। क्या यह देश की जनता को जो अपने हक़ के लिये शांतिपूर्ण धरने पर बैठी है के प्रति, सरकार द्वारा शत्रुतापूर्ण व्यवहार करना नहीं है ?
किसान आंदोलन का समर्थन करते समय, किसी भी सेलेब्रिटी ने देश की सम्प्रभुता, संसद, संसद द्वारा कानून बनाने की शक्ति, सरकार, और देश के कानून को चुनौती नही दी है। इन ट्वीट्स में जन आंदोलन को अपना नैतिक समर्थन देने की बात कही गयी है या फिर इंटरनेट बंद करने की आलोचना की गयी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के युग मे ऐसी प्रतिक्रियाओं को सामान्य उद्गार के रूप में लिया जाना चाहिए। यह सब वैयक्तिक प्रतिक्रियाये है न कि, किसी सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया दी है।सरकार की प्रतिक्रिया के उत्तर में, उसका राजनयिक उत्तर दिया जाना चाहिए । याद कीजिए, जब कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रुडो ने इस आंदोलन के बारे में कुछ कहा था तो हमारी सरकार ने उनके हाई कमिश्नर को बुला कर अपना विरोध जता भी दिया था। यह कूटनीतिक औपचारिकताये होती हैं और  इनका निर्वाह किया जाता है। हालांकि कनाडा के प्रधानमंत्री ने अपने कहे का औचित्य यह कह कर के सिद्ध करने की कोशिश की कि, कनाडा दुनियाभर में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के प्रति सजग और सचेत रहता है। भारत ने भी अक्सर दुनियाभर में होने वाली मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के हनन पर अपनी आवाज़ उठायी है।
अक्सर वैयक्तिक टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं , जनता या किसी खास जनांदोलन के साथ एकजुटता दिखाने के लिये की जाती है। एकजुटता प्रदर्शन की यह मानवीय और सामाजिक परंपरा, आज से नहीं है बल्कि यह समाज के इतिहास के प्रारंभ से ही है। संप्रभुता का यह अर्थ, कदापि नहीं है कि, हम दुनियाभर से आने वाली हर प्रतिक्रिया से इम्यून हो जाने की बात सोचने लगें। संप्रभुता का अर्थ है कि, हम अपने राजकाज, संविधान, कानून, सीमा आदि के बारे में खुद ही मालिक हैं और दुनिया के किसी देश के प्रति जवाबदेह नहीं हैं।
दुनियाभर के सजग नागरिक, इस बात पर अपनी एकजुटता दिखा सकते है कि, शांतिपूर्ण नागरिक प्रदर्शन को न तो उत्पीड़ित किया जाय और न ही उनकी इतनी किलेबंदी कर दी जाय कि उनकी मौलिक आवश्यकताएं ही बाधित हो जांय। बिजली, पानी, चिकित्सा आदि, किसी भी भीड़, समूह की ऐसी मौलिक आवश्यकताए हैं जिनकी चिंता सरकार द्वारा किया जाना चाहिए न कि, उन्हें बाधित कर के दुश्मनी निकालने की बात सोचनी चाहिए। 75 दिन से चल रहे, इस आंदोलन में, लाल किले की घटना को छोड़ कर किसानों का यह आंदोलन अब तक शांतिपूर्ण रहा है। लाल किले पर जो भी हिंसक घटना हुयी वह निश्चित ही निंदनीय है और उस घटना को अंजाम देने वालों और उसके सूत्रधार के खिलाफ सुबूत एकत्र कर कार्यवाही की जानी चाहिए। उस घटना की जांच हो भी रही है। यदि वर्तमान जांच मे कोई कमी हो तो, सरकार चाहे तो, उस घटना की न्यायिक जांच भी करा सकती है। पर आज पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में ही नहीं बल्कि देश भर, में, जो जनजागरण हो रहा है उसकी गम्भीरता को सरकार द्वारा अनदेखा नही किया जाना चाहिए।
सरकार के विरोधियों, विपक्ष के लोगों और अन्य आलोचकों की ओर से उठते अनेक सवालों और आशंकाओं को दरकिनार भी कर दें तो, डेमोक्रेसी इंडेक्स के ताजे आंकड़ों में हमारी स्थिति नीचे ही गिरी है। दुनिया भर के देशों में लोकतंत्र के स्तर की पड़ताल कर उसकी स्थिति का आकलन करने वाला सांख्यिकीय आंकड़ा,  ‘डेमोक्रेसी इंडेक्स’ की ताज़ा रिपोर्ट में भारत पिछले साल के मुक़ाबले दो अंक और नीचे लुढ़क गया है । साल 2014 की तुलना में आज हम लगभग आधे स्थान तक गिर गए हैं । इस इंडेक्स में 2014 में भारत की रैंकिंग 27 वीं थी, जो 2020 में घटकर 53 वें अंक पर आ गयी है। किसान आंदोलन के समर्थन में या, यूं कहें किसानों की समस्या, उनके सत्तर दिन से धरने पर बैठे रहने, सरकार द्वारा किसानों से दर्जन भर बातचीत करने के बाद भी इस समस्या का हल न ढूंढ पाने, दिल्ली को गाजा पट्टी बना कर कंक्रीट की बैरिकेडिंग, सड़को पर कील और कंटीले तारो की बाड़ लगा देने और इंटरनेट बंद कर देने के कारण दुनियाभर के कुछ सेलेब्रिटीज़ के ट्वीट क्या आने लगे, सरकार ने इसे अपनी संप्रभुता पर हमला औऱ अपने आंतरिक मामलों में दखल देना बता दिया। पर, 20 सैनिकों की शहादत के बाद भी प्रधानमंत्री का यह मासूम बयान कि, न तो कोई घुसा था और न कोई घुसा है, क्या यह चीनी घुडपैठ को नजरअंदाज करना नही था ?
सरकार के समर्थक इस बयान में लाख कूटनीतिक तत्व ढूंढ निकालें, पर यह बयान एक स्वाभिमानी और मज़बूत राष्ट्रप्रमुख का नहीं कहा जा सकता है।
जो सुधार के कार्यक्रम दिख रहे हैं वे निश्चित रूप से सुधार के लिये लाये जा रहे हैं, पर, जैसा आर्थिक आंकड़े बता रहे हैं, वे सुधार, पूंजीपतियों की लॉबी का ही करेंगे न कि देश की जनता की बहुसंख्यक आबादी का। जब यह सवाल उठेगा कि, क्या पूंजीवादी व्यवस्था के आधार पर अपने कानून बनाना क्या बहुसंख्यक जनता के हित को अनदेखा करना नही है ? तब यह कहा जा सकता है कि, यह तो ग्लोबलाइजेशन का दौर है, और विश्व आर्थिकी के इस प्रवाह से हम अलग कैसे रह सकते हैं। और यह तर्क सही भी मान लिया जाएगा। दुनिया एक गांव बन चुकी है और हम सब एक दूसरे पर निर्भर हैं । आज समाज मे आत्मनिर्भरता का अर्थ समाज से कट कर जीना नहीं होता है। पर इन सारे तर्को के बावजूद, देश की अधिसंख्य जनता को उनके सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता है।
अब दुनियाभर में लोकतंत्र की स्थितियों में भारत के बारे में उल्लेख करते  हुये, ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ (ईआईयू)  ने डेमोक्रेसी इंडेक्स जारी करते हुए कहा है कि
” भारत के सत्ताधारियों के ‘लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने’ और नागरिकों की स्वतंत्रता पर ‘कार्रवाई’ के कारण देश 2019 की तुलना में 2020 में दो स्थान  और फिसल गया है। भारत  6.9 अंकों के साथ 2019 के लोकतंत्र सूचकांक में 51वें स्थान पर था और  जो 2020 में घटकर 6.61  रह गये और वह 53 वें पायदान पर लुढ़क गया। 2014 में भारत की रैंकिंग 27वीं थी। भारत को 2014 में 7.29 अंक मिले थे जो अब तक का सर्वोच्च प्रदर्शन है।
‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ’ शीर्षक से जारी ईआईयू के ताज़ा‘डेमोक्रेसी इंडेक्स’ में नॉर्वे को शीर्ष स्थान मिला है। इस सूची में आइसलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड और कनाडा शीर्ष पांच देशों में शामिल हैं।”
डेमोक्रेसी इंडेक्स में 167 देशों में से 23 देशों को पूर्ण लोकतंत्र, 52 देशों को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र, 35 देशों को मिश्रित शासन और 57 देशों को सत्तावादी शासन के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत को अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील के साथ ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।
ईआईयू की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने,
‘‘भारतीय नागरिकता की अवधारणा में धार्मिक तत्व को शामिल किया है और कई आलोचक  इसे भारत के धर्मनिरपेक्ष आधार को कमजोर करने वाले कदम के तौर पर देखते हैं।’’
रिपोर्ट में कहा गया,
‘‘कोरोना वायरस वैश्विक महामारी से निपटने के तरीके के कारण 2020 में नागरिक अधिकारों का और दमन हुआ।’’
भारत के पड़ोसियों में से श्रीलंका 68 वें, बांग्लादेश 76 वें, भूटान 84 वें और पाकिस्तान 105 वें स्थान पर रहा। श्रीलंका को भी त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में रखा गया है, जबकि बांग्लादेश, भूटान और पाकिस्तान ‘मिश्रित शासन’ के वर्ग में है। अफगानिस्तान 139 वें स्थान पर है और उसे ‘सत्तावादी शासन’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। ईआईयू  की रिपोर्ट में एशिया और ऑस्ट्रेलिया क्षेत्र के देश न्यूजीलैंड का चौथा स्थान बरकरार है, लेकिन इस क्षेत्र का देश उत्तर कोरिया अंतिम 167 वें स्थान पर है। जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान 2019 की तुलना में इस सूची में ऊपर आ गये हैं। आस्ट्रेलिया का भी ‘पूर्ण लोकतंत्र’ का दर्जा बरकरार है। ऑस्ट्रेलिया इस इंडेक्स में नौवें स्थान पर है।
डेमोक्रेसी इंडेक्स में  नॉर्वे  9.8 अंकों के साथ पहले नंबर पर है। दूसरे नंबर पर आइसलैंड है जिसे  9.37 अंक मिले हैं। स्वीडन  9.26 अंकों के साथ तीसरे, न्यूज़ीलैंड 9.25 अंक के साथ चौथे और कनाडा  9.24 अंक के साथ पाँचवे नंबर पर है। नीचे से पाँचवे यानी 163वें स्थान पर चाड है जिसे 1.55 अंक मिले हैं। 164 स्थान पर सीरिया को 1.43 अंक मिले हैं। 165वें स्थान पर केंद्रीय अफ्रीकन गणराज्य है जिसे 1.32 अंक मिले हैं। 166 वांँ स्थान कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य का है जिसे 1.13 अंक मिले हैं और सबसे आख़िरी यानी 167 वें स्थान पर उत्तर कोरिया  है जिसे महज़ 1.08 अंक मिले हैं।
देश, देश होता है, कारागार नहीं। आज जब दुनिया एक वैश्विक गांव में तब्दील हो गयी है, दुनियाभर में घटने वाली हर घटना का असर, दुनियाभर में पड़ रहा है तो यह एक मूर्खतापूर्ण सोच है कि, लोग हमारे देश मे घट रही किसी घटना के बारे मे टीका टिप्पणी न करे, और ऐसी टिप्पणियों से हम असहज होने लगें। आलोचना पचाने की भी एक कला होती है और यदि ऐसी कला किसी मे विकसित हो जाय तो, वह अक्सर कई तरह के तनाव और असहजता से मुक्त भी रहने लगता है। सरकार  द्वारा, विदेशी सेलेब्रिटीज़ के किसान समर्थक वैयक्तिक ट्वीट के विरोध में हमारा राजनयिक स्टैंड लेना, यह बताता है कि हम कितने अस्थिर दिमाग से केभी कभी चीजों को लेने लगते हैं और इस मामले में हमारी प्रतिक्रिया का स्तर सोशल मीडिया के आईटी सेल के लोगों के ही स्तर पर आ कर स्थिर हो जाता है।
रहा सवाल दुनियाभर में घटने वाली घटनाओं के बारे मे वैयक्तिक प्रतिक्रिया का तो, उसे न तो रोका गया है और न ही रोका जा सकता है। हाल ही में नए नागरिकता कानून का सन्दर्भ लें। उस कानून में हमने पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले वहां के अल्पसंख्यक समुदाय को नागरिकता देने की बात कही है। यह बात सच है कि इन देशों मे वहां के अल्पसंख्यक समुदाय, हिन्दू सिख और ईसाई आदि पर अक्सर उत्पीड़न होता रहता है। वहां के उत्पीड़न पर हम अक्सर आवाज़ उठाते रहते है। हमारी सरकार ने यूएनओ में भी ऐसे उत्पीड़न पर आवाज़ उठायी है। तो क्या इसे भी वहां के आंतरिक मामलों में दखल मान लिया जाय ? हालांकि पाकिस्तान यही तर्क देता भी है। पर पाकिस्तान का यह तर्क गलत है। एक राज्य के रूप में पाकिस्तान भले ही, ऐसे उत्पीड़न में शामिल न हों, पर उत्पीड़न करने वाले अधिकारियों, व्यक्तियों, समूहों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की जिम्मेदारी से वहां की सरकार, यह तर्क देकर नहीं बच सकती है।
जैसे आप अपने घर मे अपनी पत्नी, बच्चों, बूढ़े मातापिता को प्रताड़ित करके यह आड़ नही ले सकते कि यह आंतरिक मामला है, उसी प्रकार कोई भी देश यह कह कर बच नही सकता है कि वह अपने नागरिकों पर जो भी कर रहा है वह उसका आंतरिक मामला है। नागरिकों के मौलिक और नागरिक अधिकार हमारे यहां किसी भी देश की तुलना मे अधिक उदात्त हैं। अगर उत्पीड़न की बात की जाय तो, दुनियाभर की तुलना में हमारे यहां उत्पीड़न भी कम ही है। लोकतांत्रिक इंडेक्स में गिरावट के बावजूद हम कई देशों से मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में बेहतर हैं।
दक्षिण अफ्रीका का रंगभेद, कू क्लक्स क्लान की व्हाइट सुपरमैसी या गोरा श्रेष्टतावाद, आईएसआईएस, तालिबान, आदि कट्टर इस्लामी संगठनों, चीन द्वारा उइगूर मुसलमानों पर किये गए अत्याचारों आदि के खिलाफ, दुनियाभर में पहले भी आवाज़ें उठती रही है और इन सब जुल्मों पर दुनियाभर की सरकारें समय समय पर आलोचना और कार्यवाहियां भी करती रही है। जनता के लोगों या सेलेब्रिटीज़ ने भी इन पर अपनी बात कही है और आलोचना की है। वैयक्तिक आलोचनाये, टीका टिप्पणी, सेमिनार, आलोचना के केंद्र में आये देशों के  दूतावास के सामने जनता के धरने प्रदर्शन होते ही रहते हैं। पर इसे, किसी देश की सम्प्रभुता पर हमला नही माना जाता है, भले ही सरकारें सम्प्रभुता की आड़ में ऐसी आलोचनाओं को नजरअंदाज करने की कोशिश करें।
इस आंदोलन को ले कर,  दुनियाभर में हो रही, प्रतिक्रिया, आलोचना और टिप्पणियों को भी सरकार को, ध्यान में रखना चाहिए। सरकार किसानों से बात करने को राजी है, और दर्जन भर बार, बात कर भी चुकी है। कुछ बड़े संशोधनो के लिये भी सरकार कह रही है कि, वह राजी है। पर वे संशोधन क्या होंगे, यह अभी सरकार ने खुलासा नहीं किया है। इन तीनो कृषि कानून को सरकार, होल्ड करने के लिये भी सहमत है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे फिलहाल स्थगित कर भी रखा है। हालांकि, अदालत का यह भी कहना है कि वह अनन्त काल तक इसे स्टे रख भी नही सकती है। एक तरफ से देखिए तो सरकार की यह सारी पेशकश, उसके द्वारा उठाये जाने वाले, सकारात्मक कदमों की तरह दिखेंगे। पर सरकार ने इन पेशकश का कोई औपचारिक प्रस्ताव भी रखा है क्या ? संसद का अधिवेशन चल रहा है। सरकार अपने इन सकारात्मक कदमो के बारे में सदन में अपनी बात कह सकती है। इससे जनता के सामने कम से कम सरकार का स्टैंड तो स्पष्ट होगा।
एक तरफ बातचीत की पेशकश और दूसरी तरफ, सड़को पर कील कांटे, कंक्रीट की दीवारें, कंटीले तार, पानी बिजली की बंदी, देशद्रोह के मुकदमे, इंटरनेट को बाधित करना, यह सब सरकार और जनता के बीच, पहले से ही कम हो चुके परस्पर अविश्वास को और बढ़ायेंगे ही। यह बैरिकेड्स, कीलें, और कंटीले तार, इस बात के भी प्रतीक हैं कि, किसानों और सरकार के बीच गहरा अविश्वास पनप रहा है। ऐसे गहरे अविश्वास के लिये सरकार के ही कुछ मंत्री, मूर्ख समर्थक और भाजपा आईटी सेल के लोग जिम्मेदार हैं। यह अविश्वास जनता के लिये उतना नहीं, बल्कि सरकार के लिये ही आगे चल कर घातक सिद्ध होगा। सरकारें बनती बिगड़ती हैं, न कि जनता। जब सरकार और जनता के बीच परस्पर विश्वास ही नही जम पा रहा है या जो भी आपसी भरोसा है, वह निरन्तर कम होता जा रहा है तो, सरकार और किसानों के बीच, किसी भी बातचीत के तार्किक अंत तक पहुंचने की उम्मीद मुश्किल से ही की जा सकती है।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
( विजय शंकर सिंह )
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