Education, employment, industry, no development, only hate! शिक्षा, रोजगार, उद्योग, विकास नहीं, सिर्फ नफरत!

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विश्व को शांति और सौहार्द के साथ आंदोलन करना सिखाने वाले बुजुर्ग बैरिस्टर मोहन दास करमचंद गांधी की जब 30 जनवरी 1948 को कुछ आतंकियों ने तीन गोलियां मारकर हत्या की थी, तब देश ही नहीं ब्रह्मांड भी रोया था। उस वक्त भारत में आखिरी ब्रितानी वायसराय लार्ड माउन्टबेटन ने कहा था, ‘ब्रितानी हुकूमत इस कलंक से बच गई। आपकी हत्या आपके देश, आपके राज्य, आपके लोगों ने की है। अगर इतिहास आपका निष्पक्ष मूल्यांकन कर सका, तो वो आपको ईसा और बुद्ध के बराबर रखेगा। कोई कौम इतनी अहसान फरामोश और खुदगर्ज कैसे हो सकती है, जो अपने पिता समान मार्गदर्शक की छाती छलनी कर दे। ऐसा तो नृशंस बर्बर नरभक्षी कबीलों में भी नहीं होता है। अपने इस कृत्य पर उन्हें लज्जा और अफसोस तक नहीं है।’ उनकी बात पर 72 साल बाद भी हमारा सिर लज्जा से झुक जाता है कि किसी बुजुर्ग संत के हत्यारे किसी नफरत के रूप में और भी सबल हो जाएंगे। उसी दिल्ली के एक सियासी मंच से जनता के नुमाइंदे बनकर संसद से मंत्रिपद तक पहुंचा अनुराग ठाकुर नारे लगवाता है कि ’…गोली मारो सालों को’। दूसरा चुना गया नुमाइंदा प्रवेश वर्मा डराते हुए कहता है कि यह लोग घर में घुसकर बलात्कार करेंगे तो तीसरा अपने ही राज्य के नागरिकों को भारत-पाकिस्तान बना देता है। देश की राजधानी में यह देखकर हम क्या समझें कि हम विश्वगुरू की सोच वाले देश के नागरिक हैं या किसी आदमखोर कबीले के?
देश इस वक्त गंभीर हालात से गुजर रहा है। उद्योगों की हालत खस्ता है। रोजगार बढ़ने के बजाय घट रहे हैं। बड़े जतन से खड़े किये गये सार्वजनिक उपक्रम नीलाम हो रहे हैं। युवा भटककर आत्महत्या और हत्या की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। शिक्षा का बाजारीकरण चरम पर है। ज्ञान के नाम पर फांसीवादी इतिहास और संस्कृति गढ़ी जा रही है। विकास के नाम पर चंद कारपोरेट समूहों को लाभ दिया जा रहा है। किसान आत्महत्या करने को विवश हैं। नारी सबला होने के बाद भी वहसियों का शिकार हो रही है। न कोई सड़क पर सुरक्षित महसूस कर रहा और न घर में। अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है। न तो इसको लेकर नागरिकों में चिंता है और न सरकार के पास चिंतन का वक्त। सलाह मशविरे सिर्फ वोट बैंक तैयार करने के लिए हो रहे हैं। भविष्य के चुनाव जीतने के लिए कैसे बड़ा उन्मादी जनवर्ग तैयार किया जाये? इस चिंतन के बीच सब झूल रहा है। अंग्रेजी हुकूमत की नीति ‘फूट डालो राज करो’, को ध्येय बना लिया गया है। इसके लिए नफरत को हथियार बनाया गया है। राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पहले हिंदूवादियों को बड़ी जल्दी थी मगर पक्ष में फैसला आने के तीन माह होने पर भी अब उन्हें कोई जल्दी नहीं है। यह फैसला नफरत बढ़ाने के बजाय घटाने वाला बन गया तो नागरिकता संशोधन अधिनियम और एनआरसी का खेल चल पड़ा।
नफरत के इस खेल में कुछ प्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं तो कुछ परोक्ष रूप से। जो ज्ञान सोशल मीडिया और व्हाट्स एप्प पर बांटा जा रहा है, उससे भारतीय सनातन परंपरा के खत्म हो जाने का आभास होता है। हमारे एक मित्र पंजाब राज्य के डीजीपी के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आजकल व्हाट्सएप्प पर उनके जो संदेश आते हैं, वह जीवन को बेहतरीन और खुशहाल बनाने के नहीं बल्कि भारतीय नागरिकों के बीच हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी तलाशते दिखते हैं। यही नहीं हम जब कभी अपने परिवार के ग्रुप में देखते हैं तो स्वयं मेरे पिता सहित परिवार के कई सदस्यों के भी इसी तरह के संदेश देती कहानियां और वीडियो क्लिप होती हैं। मेरे पिता भी सेवानिवृत्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं और परिवार में कोई भी ऐसा नहीं जो उच्च शिक्षित न हो। हम कई बार समझ नहीं पाते कि घर और समाज के यह बड़े लोग हम छोटों को सिखाना क्या चाहते हैं? नफरत! इस नफरत से हमें हासिल क्या होगा? दुनिया में नफरत करने वाले देशों और उनके समाज को क्या हासिल हुआ है? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। नफरत फैलाने वाले हमारे निकटस्थ लोग क्या हमें भी पाकिस्तान और आईएसआईएस की संस्कृति को अपनाने की सीख दे रहे हैं? अगर वे इस तरह का नफरत हमें सिखाना चाहते हैं तो बचपन से जवानी तक उन्होंने हमें सबके साथ प्यार और भाई चारे से रहना क्यों सिखाया था? क्यों साबिर अली और मुईद अंकल पिताजी के सच्चे दोस्त थे। उन्होंने हमें अकबर और सरफराज से दोस्ती न करने की सलाह क्यों नहीं दी थी? क्यों उन्होंने राम के चरित्र को अपनाने और ऋषि भारद्वाज की तरह ज्ञानवान बनने की प्रेरणा दी थी? अगर वह सही था तो अब गलत राह क्यों दिखा रहे हैं? मनगढ़ंत इतिहास क्यों सिखाना चाहते हैं? यूं कहें कि नफरत उनके दिमाग में गोबर भर रही है, जो अपने बच्चों का भविष्य बरबाद करने की सीख देती है। वामपंथी विचारधारा हो या दक्षिणपंथी, सभी का ध्येय एक श्रेष्ठ समाज और देश तथा नागरिक बनाने का है। निश्चित रूप से विचारधारा कोई भी हो, उसमें मतभिन्नता जरूर होती है। पर, जब कत्ल करके अपनी विचारधारा को स्थापित करने की होड़ मचती है तब फांसीवाद पनपता है। यही कारण है कि बुद्धिजीवियों ने सदैव मध्यम मार्ग अख्तियार करने को सबसे बेहतर बताया है। जहां हर धर्म, जाति, लिंग और क्षेत्र को यथोचित सम्मान दिया जाये। नफरत के बजाय प्रेम और सौहार्द का पाठ पढ़ाया जाये। वैदिक धर्म हमें तो यही सिखाता है। हमें आगे बढ़ना है और साथ वाले को भी आगे बढ़ाना है। सत्य-अहिंसा के मार्ग पर चलना और चलाना है। ज्ञान देना और लेना है मगर बगैर किसी घृणा के। राम ने भी रावण से नतमस्तक होकर ज्ञान लिया था तो हम क्यों न ऐसा करें। विश्व के तमाम छोटे-बड़े देश आगे बढ़ने को व्याकुल हैं। लेकिन, वही देश तेजी से आगे बढ़ सके, जिन्होंने धार्मिक कट्टरता को छोड़कर सबको साथ लेकर चलने का रास्ता अपनाया। विश्व में सबसे प्रसन्नता वाले देश वो हैं जो किसी धर्म को नहीं मानते। समृद्ध अर्थव्यवस्था वाले देश भी वही हैं जो किसी में भेद व नफरत नहीं करते, बल्कि हर अच्छी चीज और ज्ञान को अपनाते हैं। पाकिस्तान जैसे तुच्छ देश से जब हम अपनी तुलना करते हैं तो खुद बेहद छोटे हो जाते हैं। हम अमेरिका, चीन और यूरोपीय देशों से अपनी तुलना क्यों नहीं करते? शायद नफरत की विचारधारा वालों ने हमारी सोच को गुलाम बना लिया है।
यह महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे त्यागियों-बलदानियों का देश है। यह बहादुर सपूतों और संत आत्माओं का देश है। हमें उनके जीवन से सीख लेकर सभी की समृद्धि और शांति के मार्ग को अपनाना चाहिए न कि नफरत की राह को। नहीं तो कथित ‘रामभक्त…’ जैसा मानसिक विकलांग जामिया के नाम पर आपको भी गोली मार देंगे। आप अपने बच्चों को आत्महत्या करते या कत्ल होते देखना चाहते हैं या फिर खुशियों से खिलखिलाते? फैसला आपको करना है कि फिर कोई लार्ड माउंटबेटेन आपको लज्जित करने सामने न आ जाये।

जय हिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

 

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