Economic-epidemic with global epidemic? वैश्विक महामारी के साथ आर्थिक-महामारी?

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महामारी तो चली जाएगी, पर प्रश्न यह है कि उसके बाद क्या होगा? जून में थोक मूल्य-आधारित मुद्रास्फीति मई के 3.21 प्रतिशत के मुकाबले 1.81 प्रतिशत रही, लेकिन खाद्य पदार्थ महंगे हो गए। दूसरी तरफ, भारत की उपभोक्ता मूल्य सूचकांक जून के महीने में 6.09 प्रतिशत रही। यह आरबीआई की ऊपरी सीमा 6 प्रतिशत से अधिक है।  दूसरी तरफ ज्यादातर शहरी मांग और अर्थव्यवस्था से जुड़ी गतिशीलता और वेब गतिविधि डेटा कम हो गए हैंै। कार्य-गतिशीलता सूचकांक इस सप्ताह 3 प्रतिशत-अंक गिर गया। आॅटो और प्रॉपर्टी साइट्स के वेब ट्रैफिक में 1-2 प्रतिशत-अंक और यात्रा और होटल-ऐप ट्रैफिक 2 प्रतिशत-अंक गिर गया।
इसके अलावा ई-टोल संग्रह इस सप्ताह 2 प्रतिशत-अंक गिर गया। जबकि खुदरा इलेक्ट्रॉनिक में 9 प्रतिशत-अंक की गिरावट आई वहीं बिजली की खपत पिछले सप्ताह 1 प्रतिशत-अंक गिर गई। समस्या बेरोजगारी की भी है सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार जून में 11 प्रतिशत बेरोजगारी दर लॉकडाउन शुरू होने से पहले देखी गई 8 प्रतिशत से कम दर की तुलना में काफी अधिक है। श्रम-भागीदारी दर भी इस सप्ताह कम रही। सनद रहे ज्यादातार रोजगार जिसमें लॉकडाउन के बाद बढ़ोतरी हुई वो श्रम-प्रधान क्षेत्रों (जैसे मनरेगा) या खेती से जुड़े हैं, लेकिन उच्च वेतन कि नौकरियों पर गहरी मार पड़ी है। जिस खेती को सरकार अर्थव्यवस्था का इंजन कह रही है, उसकी अर्थव्यवस्था की समग्र आय में हिस्सा 18.2 प्रतिशत है, लेकिन अर्थव्यवस्था में समग्र मजदूरी और वेतन भुगतान में कृषि मजदूरी का हिस्सा केवल 8.2 प्रतिशत है। 2012 से 2017 के बीच बढ़ी हुई जीवीए का केवल 15.3 प्रतिशत हिस्सा मजदूरी में गया।
जीडीपी में 14 प्रतिशत हिस्सा रखने वाली खेती में कुल 28 करोड़ कामगार हैं। लेकिन श्रम की आपूर्ति बढ़ने से मजदूरी और कम होगी। ध्यान रहे कि लगभग 5 करोड़ मजदूर और भूमिहीन किसान परिवारों को पीएम किसान से सीधी मदद भी नहीं मिलती। बात करें यदि अंतर्राष्ट्रीय बाजार की तो रबोबैंक के एक अध्ययन के अनुसार, वाशिंगटन के साथ नई दिल्ली के करीबी राजनयिक संबंधों के बावजूद, भारत ने अमेरिकी आयात में चीन की हिस्सेदारी में गिरावट से बहुत कुछ हासिल नहीं किया है। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक इस खेल के विजेता भी वियतनाम, मैक्सिको और ताइवान हैं, जो अमेरिकी आयात में बदलाव के मुख्य लाभार्थी बन गए हैं। इसके अलावा लगातार चैथे महीने भारत का निर्यात जून में 12.41 प्रतिशत घटकर $21.91 बिलियन रह गया। जबकि आयात तकरीबन 47.59 प्रतिशत की गिरावट के साथ $21. 11 बिलियन रहा। जिससे 18 साल में पहली बार भारत का ट्रेड अकाउंट $0. 79 बिलियन के सरप्लस में रहा लेकिन यह खुश होने का विषय नहीं है, क्योंकि आयात में कमी तेल और सोने की वजह से आई है जो दशार्ता है कि अभी भारत में डिमांड वापस नहीं आई है। हालांकि पिछले दो महीनों का ट्रेड अकाउंट $9.12 बिलियन के डेफिसिट में ही है। साथ ही भारत में चीन से आयातित घटकों की आपूर्ति में देरी के कारण जुलाई में स्मार्टफोन की बिक्री 30-40: घट गई, जिसने महीने में इकाई उत्पादन को कम कर दिया।
समस्याओं पर यहां विराम नहीं लगता, आईएचएस मार्किट इंडिया बिजनेस आउटलुक के अनुसार भारतीय व्यापार की भावना एक दशक से अधिक समय में पहली बार नकारात्मक हो गई है। इस सर्वेक्षण के अनुसार, कारोबारी गतिविधि का नेट-बैलेंस फरवरी के $26 प्रतिशत से गिरकर जून में -30 प्रतिशत हो गया। आईएचएस के मुताबिक 2009 में श्रृंखला शुरू होने के बाद से पहली बार यह नेगेटिव में रहा है। हाल ही में, वैश्विक रेटिंग एजेंसी एस-पी ग्लोबल ने इमर्जिंग-मार्केट विकास के अपने पूवार्नुमानों में कटौती की है, इसके मुताबिक कोविड-19 के कारण इस साल इमर्जिंग मार्केट अर्थव्यवस्थाओं में औसतन 4.7 प्रतिशत की गिरावट होने की उम्मीद है। एजेंसी के मुताबिक भारत को कोविड-19 महामारी के कारण सबसे ज्यादा 11 प्रतिशत जीडीपी का नुकसान हो सकता है। एजेंसी ने चेतावनी दी है कि सभी देशों को स्थायी नुक्सान होने की संभावना है।
इसके अलावा, घरेलू रेटिंग एजेंसी इकरा के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था के पहली तिमाही में 25 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान है जबकि पूरे साल में जीडीपी के 9.5 प्रतिशत घटने की उम्मीद है।

नेल्सन मंडेला ठीक कहते थे कि गरीबी, रंगभेद और गुलामी की तरह प्राकृतिक नहीं है, यह मानव निर्मित है और इसे खत्म किया जा सकता है। भारत दुनिया का पहला देश है जिसने 2005-06 से 2015-16 के बीच करीब 27 करोड़ जितने ज्यादा लोगों को गरीबी से बाहर निकाला। यूएनडीपी रिपोर्ट के मुताबिक आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55% से 28% रह गई। लेकिन अब के आंकडें भयावय हैं। ध्यान रहे कि गरीबी आती बहुत तेजी से है लेकिन इससे छुटकारा पाने में पीढि़यां गुजर जाती हैं। अगले साल अर्थव्यवस्था में उछाल की उम्मीद है, लेकिन अर्थशास्त्री इस आशावाद को कारणहीन मानते हैं। जानकारों कि यह बात तो सत्य है कि 2021 इतना खराब होगा कि 2022 तुलना में बहुत बेहतर लगने लगेगा।
( ये इनके निजी विचार हैं।)
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