Bharat main jati aur kelo ki pat: भारत में जाति और केलों की पात

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य ह शायद पहली बार हुआ है, कि यूपीएससी के सफल अभ्यर्थियों में ब्राह्मण और कायस्थों के नाम गायब हैं। मात्र 0.5 परसेंट ब्राह्मण सफल हुए हैं और एक प्रतिशत कायस्थ। अगड़ी जातियों में राजपूत अव्वल रहे, फिर मुस्लिम और बनिया। बाकी पिछड़े और दलित हैं। इस बार सामान्य वर्ग में भी ओबीसी का दबदबा रहा। यह संकेत है, कि क्रीमी लेयर वाली इन सरकारी नौकरियों में अगड़े अब नहीं आ पा रहे। वह भी तब, जबकि अगड़ी जातियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा सत्तारूढ़ है।
आर्थिक रूप से कमजोर अगड़ों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण भी है। तब यह हाल कैसे और क्यों हुआ? मजे की बात, कि धर्म ह्यधुरंधरह्ण कही जाने वाली इन जातियों के युवा धर्म को लेकर जितने जेहादी होते जा रहे हैं, पढ़ाई-लिखाई में उतने ही सिफर। ऊपर से पिछड़ी और दलित जातियों के लेखक और चिंतक उन पर अनवरत हमलावर हैं। ब्राह्मणवाद के नाम पर वे ब्राह्मणों को ही मिटा देने को तत्पर हैं। भले वे हमला तुलसी पर कर रहे हों, या डॉक्टर राम विलास शर्मा पर किंतु उनका मकसद पहले ब्राह्मणों को समाप्त करना है। क्योंकि ब्राह्मणों पर हमला करते-करते वे स्वयं ही ब्राह्मणवादी होते जा रहे हैं।
तो जाहिर है, वे नए ब्राह्मण बनने की तैयारी में हैं। लेकिन भारत में यह जाति का जहर कैसे फैला, इसकी क्रोनोलाजी समझने की जरूरत है। दरअसल आजादी के पहले तक गाँवों में अस्सी परसेंट पटवारी कायस्थ थे। लेकिन आजादी की सुगबुगाहट मिलते ही उन्होंने गाँव छोड़ने शुरू कर दिए। खेती में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी। गाँव की जमीन औने-पौने दामों में बेच कर वे शहर आ गए। उनके बाद की पीढ़ी ने अपनी जीविका के लिए वकालत को वरीयता दी, क्योंकि आजादी के चार दशकों बाद तक अदालती कामकाज में उर्दू के शब्द खूब थे। इसके बाद वे अन्य सरकारी नौकरियों में गए। फिर ब्राह्मणों ने भी गांव छोड़ा, और जीविका की तलाश में वे शहर आ गए। पीढ़ियों से पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी रखने वाले ब्राह्मणों को शहर आने का लाभ मिला।
आजादी के बाद जब हिंदी राष्ट्रभाषा हुई तो वे बाजी मार ले गए। कायस्थ उर्दू, फारसी तक सिमटे रहे, लेकिन ब्राह्मण हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी में निकल गए। चूँकि संस्कृत और हिंदी में उन्हें विशेष श्रम की जरूरत नहीं थी, इसलिए उन्होंने सारा ध्यान अंग्रेजी में लगाया और बाकी खाली समय में कांग्रेस की राजनीति में। इसके बाद बनियों ने गाँव छोड़ा, कुछ दलितों में भी। शहर में व्यापार बनियों का फला-फूला, नौकरियों कायस्थों व ब्राह्मणों को मिलीं। दस्तकारी जानने वाली जातियों ने अपने धंधे शुरू किए, और दलितों में दो तबके बने। एक, जो सरकारी नौकरी पा गया, दूसरा जो दिहाड़ी का मजदूर बना।
गांव में राजपूत और ओबीसी तथा दलित बचे। केंद्रीय नौकरियों मंडल आयोग की सिफारिश लागू कर जब वीपी सिंह ने एक नया युग शुरू किया, तो सबसे बड़ा झटका ब्राह्मणों और कायस्थों को लगा। किंतु फिर भी अपनी मेधा और श्रम से वे डटे रहे। लेकिन पिछले वर्ष गरीब अगड़ों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की जो पॉलिसी मोदी सरकार लाई, उससे ब्राह्मणों और कायस्थों को सबसे अधिक नुकसान हुआ। इसकी वजह है, ब्राह्मणों और कायस्थों का आधार शहरी होना और जीविका के लिए नौकरी। इसलिए वे अपनी आय छिपा नहीं सकते हैं। चूँकि सारे नौकरीपेशा आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, इसलिए वे अपनी आय छिपा नहीं पाए, जबकि गांव में रहने वालों और गैर नौकरीपेशा शहरियों को इसका लाभ मिला। इसलिए वे भीषण आरक्षण को भेद कर इस परीक्षा में नहीं निकल सके। अभी फरवरी के महीने में मुझे स्वयं कई नामी कोचिंग संस्थानों द्वारा कराए गए मॉक इंटरव्यू में बतौर एक्सपर्ट बुलाया गया था। वहाँ मैंने पाया, कि अगड़ी जातियों के बच्चों में धर्म के प्रति अंध भक्ति तो थी, लेकिन विषय की मीमांसा करने की क्षमता नहीं थी। इसी का नतीजा है, कि वे धड़ाम हुए। भाजपा ने ब्राह्मणों का इस्तेमाल इस रूप में किया, कि उनके हाथ में धर्म-ध्वजा पकड़ा दी, किंतु समाज की कमान उनके हाथ से छीन ली। यही कारण रहा, कि यूपीएससी उनके हाथ से निकल गया। वीपी सिंह की मंडल पॉलिटिक्स को पटकनी देने के लिए भाजपा ने 1990 में कमंडल का दाँव चला। इसमें अगड़ी जाति के युवा जुड़े। लेकिन इसके प्रवर्तक एलके आडवाणी की निगाह सिर्फ़ ब्राह्मणों या अन्य अगड़ी जातियों पर ही नहीं थी, क्योंकि ये जातियाँ सब मिल कर भी 25 परसेंट नहीं होती हैं। उनकी निगाह उस विशाल गैर दलित और गैर पिछड़ी जातियों पर थी, जिनका कोई धनी-धोरी नहीं था। इसीलिए आरएसएस की तरफ से सोशल इंजीनियरिंग चलाने की बात कही जा रही थी। यह कांग्रेस के परंपरागत वोटबैंक के टूटन का काल था। कांग्रेस के दलित वोट को मायावती ले गईं और ब्राह्मणों को भाजपा।
बाकी बचे मुसलमान तो उन्हें भी लगा, कि उनको भी सपा या बसपा में बट जाना चाहिए। उधर बिहार में मुसलमान वोट पूरा का पूरा लालू यादव के साथ चला गया। उसे लगा, कि आने वाले दिनों में पिछड़ी जातियों का गठबंधन उसके लिए मुफीद रहेगा। इस आपाधापी में जातिवादी और सांप्रदायिक दलों के बीच भारतीय मतदाता का ध्रुवीकरण होते चला गया। मध्यमार्गी कांग्रेस पूरे देश में पिछड़ने लगी। वामदलों का वोटर भी अपनी सुविधा से इधर-उधर बटने लगा। आज मुसलमान और ब्राह्मण दोनों हाशिए पर हैं। यह वही दौर है, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ और पूरी दुनिया नव उदारवाद की राह पर चल पड़ी। तीसरी दुनियाँ के देशों में बाजार खुलने लगा। और हर क्षेत्र का निजीकरण होने लगा। सोशल वेलफेयर की योजनाओं को खत्म करने की शुरूआत हुई।
1991 में चंद्रशेखर जब प्रधानमंत्री हुए, तब दो बातें हुईं। एक तो रिजर्ब बैंक का सोना बेचा गया, दूसरे ईराक से युद्ध कर रहे अमेरिकी विमानों को भारत के हवाई अड्डों पर फ़्यूल देने की अनुमति। भारत अब सीधे-सीधे अमेरिका की गोद में जा रहा था। नरसिंहराव ने तो अपना वित्त मंत्री ही डॉक्टर मनमोहन सिंह को बनाया, जो उदारवाद और खुले बाजार के प्रबल समर्थक थे। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने विनिवेश की जो परंपरा शुरू की, वह आज तक जारी है। बीच में दस वर्ष (2004-2014) यूपीए की मनमोहन सरकार रही, लेकिन उसके समय भी अमेरिकी परस्त नीतियाँ यथावत रहीं। 2014 में आई मोदी सरकार इन नीतियों की देन थी। मोदी सरकार समझ गई है, कि विकल्प का अभाव है और फिलहाल उसके समक्ष कोई दमदार विपक्ष नहीं है। सरकार के लिए यह स्थिति भले ही आराम की हो, लेकिन देश के लिए उतनी ही खतरनाक।
नतीजा यह है, कि पूरा देश जातियों में बट गया है। और हर जाति अपने से ऊपर की श्रेणी में बैठी जाति को अपना शत्रु मानती है। इसमें ब्राह्मणों की स्थिति सबसे खराब है, क्योंकि हिंदू परंपरा उसे खोखला और थोथा बनती है। जातीय दंभ के चलते उसने सम्पूर्ण हिंदू धर्म का एक तरह से ठेका ले रखा है, जिस वजह से वह अपने निजी कष्टों व दुखों पर एक आवरण डाल लेता है। यही कारण है, आज ब्राह्मण युवा दिग्भ्रमित हैं। कहीं भी उनके लिए जगह नहीं है। नौकरियों के दरवाजे बंद हैं। राजनीतिक रूप से वह अपरिपक्व है। कांग्रेस से उसने दूरी बना ली, इसलिए कांग्रेस में अब कोई ऐसा नेता नहीं बचा, जिसे ब्राह्मणों को करीब लाने की जगत पता हो।
भाजपा का झंडा उसने उठाया, लेकिन उसकी फ्रÞंट लाइन में एक भी भाजपा नेता नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है, कि भाजपा ने उसका इस्तेमाल किया और छोड़ दिया। यह ब्राह्मणों के लिए सोचने का समय है। भारत जैसे देश में जहां जाति के बिना किसी को भी किसी समाज में एडजस्ट होने में दिक़्कत आती है, वहाँ अकेली पड़ी इस ब्राह्मण जाति का पतन एक ट्रेजेडी है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं।यह इनके निजी विचार हैं।)

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