Apne to Apne hote hai …अपने तो अपने होते हैं…

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राजनीति के रंग निराले हैं। अपनेपन में ये रंग और निराले व अनूठे हो जाते हैं। राजनीतिक अपनापन भी राजनीति के मूल स्वरूप की तरह निराला और अनूठा है। ऐसे में यह कहना कठिन हो जाता है कि राजनीति में कब कौन अपना होगा और कब वही पराया हो जाएगा। हाल ही में पहले महाराष्ट्र, फिर झारखंड में जिस तरह केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को वर्षों से उसके साथ रहे अपनों ने चुनौती दी है, दूसरे साथी भी याद दिलाने लगे हैं कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं।
राजनीति में अपनों के पराया होने में देर नहीं लगती। केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह वे पराये जुड़े हैं, जो कभी भाजपा को गाली देते नहीं थकते थेए उससे अपने-पराए का राजनीतिक भेद तेजी से घटा है। हाल ही में महाराष्ट्र का विधानसभा चुनाव साथ-साथ लड़ने के बावजूद मुख्यमंत्री पद की लालसा में भाजपा व शिवसेना की राहें अलग-अलग साफ नजर आ रही हैं। शिवसेना ने पूरा चुनाव जिस कांग्रेस व एनसीपी के खिलाफ लड़ा, आज वही कांग्रेस व एनसीपी महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनवाने के लिए शिवसेना के साथ नजर आ रही है। अब सभी मिलकर भाजपा को कोस रहे हैं। अपने- पराए का यह खेल शिवसेना के लिए अंदरूनी तौर पर भी नया नहीं है। एक जमाना था, जब शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के सबसे नजदीकी उनके भतीजे राज ठाकरे हुआ करते थे। समय के साथ शिवसेना की कमाम बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के हाथ में आई और राज इस कदर पराए हुए कि उन्हें अलग पार्टी बनानी पड़ी। अब राज की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना महाराष्ट्र में अपने वजूद के नवनिर्माण की लड़ाई लड़ रही है। वैसे शिवसेना का पूरा अस्तित्व ही मराठी मानुष की अवधारणा के साथ भाषा व महाराष्ट्र तक के अपनेपन में सीमित रहा है। एक समय था, जब शिवसेना को महाराष्ट्र से बाहर वाले सभी लोग पराए लगते थे और तब ह्यएक राष्ट्र और विविधता में एकता के सूत्र वाक्य की बात करने वाली भाजपा ने भी शिवसेना के इस शेष भारतवासियों के विरोध को भूलकर उसे अपना बनाया। अब जब शिवसेना ने भाजपा को पराया कर दिया है, भाजपा के नेता पूरे राजनीतिक विमर्श को ही बदल देना चाहते हैं।
महाराष्ट्र ही नहीं भाजपा को इस समय कई अन्य मोर्चों पर भी अपनों से जूझना पड़ रहा है। झारखंड में डेढ़ दशक से भाजपा की सहयोगी पार्टी रही आजसू ने भाजपा को पराया कर दिया है। इसी तरह लोक जनशक्ति पार्टी भले ही भाजपानीत गठबंधन से राष्ट्रीय स्तर पर अलग न हुई हो, झारखंड में पार्टी ने अपने उम्मीदवार उतारकर भाजपा को चुनौती दी है। लोकसभा चुनाव के बाद गोवा की गोवा फारवर्ड पार्टी भी भाजपा का साथ छोड़ चुकी है। हरियाणा विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था, जबकि शिवसेना की तरह अकाली दल भी भाजपा के पुराने अपनों में शामिल था और लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर ही लड़ा था। भाजपा के अपनों का यह गुस्सा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी बीच-बीच में खुलकर सामने आ जाता है। ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी पहले ही भाजपा का साथ छोड़ चुकी है, अपना दल की नाराजगी की खबरें भी बीच-बीच में आती रहती हैं। ऐसे में भाजपा के सामने अपने अपनों को साथ रखने व उन्हें बचाए रहने की चुनौती भी बड़ी है। महाराष्ट्र में जिस तरह सरकार न बनने की स्थिति में बार-बार बीच का रास्ता निकालने की बातें भी सामने आती हैं, उससे स्पष्ट है कि भाजपा व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भीतर भी अपनों को सहेज कर रखने की जरूरत तेजी से महसूस की जा रही है। गठबंधन की राजनीति में अपने-पराए जैसी चर्चाएं तो होती ही हैं, भाजपा के भीतर अब अपने कैडर वाले अपनों को संभालने की मांग भी जोर से उठने लगी है। पिछले कुछ चुनावों में भाजपा ने जिस तरह दूसरे दलों से आए नेताओं को टिकट दिये और उनमें से बहुतेरे लोगों को चुनाव जीतने में सफलता भी मिली, उससे पार्टी का मूल कैडर खासा परेशान है। बीच-बीच में इस पर खुलकर कहा जाने लगा है कि दूसरे दलों से लाकर जीत का फामूर्ला तलाशने के स्थान पर अपनों पर भरोसा किया जाना चाहिए। जिस रफ्तार से देश में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है, दूसरे दलों से भाजपा में आने वालों की संख्या भी बढ़ी है। इन स्थितियों में भाजपा का अपना कैडर पराया सा महसूस कर रहा है। वह कैडर भी बार-बार यही याद दिला रहा है कि अपने तो अपने होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं।

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