At the mouth of the economic recession, what do we do now? आर्थिक मंदी के मुहाने पर हम और अब आगे क्या?

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2014 में जब एनडीए सरकार आयी तो लोगों को बहुत आशाएं थीं। यूपीए 2 के अंतिम तीन साल घोटालों के खबरों से भरे पड़े थे। इसलिए जब 2014 में नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त हुये तो लगा कि देश मे कुछ बेहतर होगा। पर जो वादे सरकार बनाने के लिये सत्तारूढ़ दल ने अपने संकल्प-पत्र में किये थे वे वहीं संकल्पपत्र में ही पड़े रहे और जो आर्थिक रोडमैप सरकार का सामने आया वह कॉरपोरेट के पक्ष में अधिक और जनता के पक्ष में कम था। इसका अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस या यूपीए का रुझान कॉरपोरेट की तरफ नहीं था। बल्कि 1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने थे तो लागू की गयी नयी आर्थिक नीति और मुक्त अर्थव्यवस्था, कॉरपोरेट के पक्ष में ही थी। लेकिन 2004 के बाद जब यूपीए सत्ता में आयी तो कई जनहितकारी योजनाओं की शुरूआत भी हुयी और प्रधानमंत्री जो स्वयं एक सुयोग्य अर्थशास्त्री थे, ने 2008 की आर्थिक मंदी के बावजूद वे देश को उस भंवर से निकाल ले जाने में सफल रहे।
2014 से 2016 तक देश के आर्थिक स्थिति में कोई बड़ा फेरबदल नही हुआ। अचानक 8 नवंबर 2016 को सरकार ने जब 1000 और 500 रुपये के नोटो को, जो कुल मुद्रा का 86% अंश था, चलन से बाहर कर दिया तो, तब अर्थजगत के विद्वानों की अलग-अलग राय इस नोटबंदी पर सामने आयी। अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने यह आशंका जताई कि यह कदम देश की विकास गति को कम करेगा और इसका असर असंगठित क्षेत्र पर बुरी तरह पड़ेगा। सरकार के इस कदम के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने नकली मुद्रा का चलन खत्म करने, आतंकी फंडिंग को कम करने और काले धन को खत्म करने के सरकार के दावे और उद्देश्य का समर्थन किया। पर बाद में विकास की गति को कम करने की आशंका जिन अर्थशास्त्रियों ने जतायी थी उनकी बात सच साबित हुयी। डॉ. मनमोहन सिंह ने भी 24 नवंबर 2016 को राज्यसभा में अपने स्वभाव के विपरीत एक बेबाक बयान दिया था कि यह एक संगठित लूट और कानूनी रूप से की गयी डकैती है। इससे जीडीपी 2% तक कम हो जाएगी। डॉ सिंह की यह भविष्यवाणी सच साबित हुयी।
2018 के आते-आते नोटबंदी का असर दिखने लगा। कालाधन के बारे में सरकार न तो देश में कुछ कर सकी और न ही विदेश में। आतंकी फंडिंग भी कम हुयी हो, सरकार के पास इसका भी कोई आंकड़ा नहीं है। इसके विपरीत नकली नोटों की समस्या और बढ़ गयी, जैसा कि रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं। रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2000 और 500 रुपये के नकली नोटों में क्रमश: 21.9 फीसदी और 221 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं 200 के नकली नोटों में 161 गुना की वृद्धि हुई। नोटबंदी के कुछ महीने बाद सरकार ने ‘एक देश एक कर’ के शिगूफे से जीएसटी के नाम से एक कर सुधार लागू किया। यह एक पुराना प्रस्ताव था, जो यूपीए के समय से आकार ले रहा था। पर इसे लागू भाजपा सरकार ने किया। अपनी जटिल प्रक्रिया के कारण यह नया कर सुधार बहुत सफल नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि सरकार ने इसे पूरी तरह होम वर्क कर के लागू नहीं किया था। इस नए कर सिस्टम से व्यापारी समुदाय असहज हो गया और इसका असर मझोले और छोटे व्यपारी वर्ग पर पड़ा, जो बाजार का एक मुख्य अंग होता है। अत: जब 2018 में अर्थव्यवस्था गड़बड़ होने लगी तो पीएमओ ने इसे सुधारने के लिये खुद ही कमर कस ली। संडे गार्जियन की 15 सितंबर 2018 को छपी खबर के अनुसार, अर्थव्यवस्था में सुस्ती का दौर पीएम ने भांप लिया था। तभी उसे सीधे अपने अधीन लेने का निर्णय लिया। पीएमओ के सीधे दखल के बाद भी एक साल से कम समय में हालत चिंताजनक हो गये हैं।
चिंताजनक पक्ष यह भी है कि सरकार की अस्पष्ट अर्थिक नीति के कारण नोटबंदी के पहले से ही सरकार के साथ जुड़े अर्थ विशेषज्ञों ने सरकार का साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। रघुराम राजन को आरबीआई गवर्नर के रूप में विस्तार नहीं मिला या उन्होंने नहीं लिया, पर उन्होंने सबसे पहले सरकार का साथ छोड़ा। फिर 2014 में योजना आयोग को रद कर नीति जैसे भारी भरकम नाम वाले आयोग का गठन हुआ और उसके प्रमुख अरविंद पनगढ़िया बनाए गए। उन्होंने भी अपनी यूएस में नौकरी और निजी कारणों का हवाला देकर सरकार से इस्तीफा दे दिया। फिर उर्जित पटेल, आरबीआई गवर्नर, जिनके समय मे नोटबंदी हुयी, अब यह उनकी मर्जी से हुयी या बेमर्जी से, यह अभी स्पष्ट नहीं है। जब सरकार को धन की कमी महसूस हुयी तो सरकार की नजर, रिजर्व धन पर पड़ी, सरकार ने उसे लेना चाहा, पर ऊर्जित पटेल ने इतना अधिक झुक कर अपनी स्वायत्तता से समझौता करना स्वीकार नहीं किया, तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। फिर, नोटबंदी और जीएसटी के रणनीतिकार और जीएसटी के पहले कमिश्नर हंसमुख अधिया रिटायर हो गए और उन्होंने दुबारा सरकार में किसी पद पर पुनर्नियुक्ति नहीं ली। फिर सेंट्रल स्टेटिस्टिकल सर्वे संगठन, जो वित्तीय आंकड़े जुटाता और इकट्ठा कर उसका विश्लेषण करता है, ने इस आधार पर त्यागपत्र दे दिया कि फर्जी आंकड़ेबाजी के लिए उन पर दबाव था। फिर, आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने आरबीआई रिजर्व से धन देने की बात पर त्यागपत्र दे दिया।
आखिर क्या कारण है कि, यूपीए के समय मे जीडीपी ने 10.08 % की विकास दर स्पर्श की, जबकि तब, देश मे एक बहुमत की सरकार नहीं बल्कि बहुदलीय सरकार थी, दुनिया मे मंदी का दौर था, और कच्चे तेल की कीमतें सबसे अधिक थीं। इसके विपरीत, 2014 से चले आ रहे भाजपा सरकार के समय मे जीडीपी, 5 % के आंकड़े पर आ पहुंची है, जबकि, उनके पास पूर्ण बहुमत है, तुलनात्मक रूप से वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता है, और कच्चे तेल की कीमतें, यूपीए के समय की कीमतों के सापेक्ष बहुत गिरी हुयी हैं ? फिर ऐसी स्थिति में आज अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार सुस्त क्यों है और हम ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि, बजट प्रस्तावों, विभिन्न विभागों की बजट राशि मे कटौतियां कर रह रहे हैं और कभी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां बेच रहे हैं तो आरबीआई से पैसा ले रहे हैं। अंत मे अब सरकार के पास इस सुस्त रफ्तार अर्थव्यवस्था से निपटने के लिये क्या उपाय है? निश्चित ही सरकार चुप नहीं बैठी होगी, कुछ न कुछ कर रही होगी। पर उसकी दिशा क्या है, नीतियां क्या होंगी और इन सब कार्यों के लिये सरकार के पास अर्थ विशेषज्ञ हैं भी कि नहीं, यह भी देखना सरकार का एक मुख्य काम है। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी जो एक अर्थशास्त्री भी हैं ने जो कहा है उससे लगता है कि सरकार फिलहाल इस दिशा में भ्रम में हैं। उनके ट्वीट के अनुसार, अगर नयी आर्थिक नीति नहीं अपनायी जाती है तो 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था को अलविदा कहने के लिये तैयार रहिये। न तो केवल साहस और न ही केवल अर्थशास्त्र का ज्ञान भी इसे गर्त में जाने से बचा सकता है। आज उपरोक्त दोनों की जरूरत है हमे, पर दोनों ही आज हमारे पास नहीं है। बहरहाल, यह कह सकते हैं कि सरकार को बिना किसी राजनैतिक पूर्वाग्रह के देश की प्रमुख आर्थिक प्रतिभाओं का एक कार्यदल बनाना चाहिये जो इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिये सरकार को उचित मार्ग बताये जिससे इस संकट से जो आने वाले दिनों में और गहरा सकता है से देश और जनता बच सके।

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