Who is responsible for China border dispute?  चीन सीमा विवाद के लिए कौन जिम्मेदार?

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चीन-भारत सीमा पर एक बार फिर तनाव का माहौल है। सीमा की सुरक्षा तो भारतीय सेना के सुरक्षित हाथों में है, ऐसे में सीमा सुरक्षा की चिंता करना शायद उचित नहीं होगा। लेकिन देश के अंदर एक राजनीतिक चर्चा तेज हो गई है कि बरसों से चली आ रही एलएसी समस्या का जिम्मेदार कोन है? सही भी है, कुछ चचार्ओं में तर्क-कुतर्क से ज्यादा महत्वपूर्ण अपनी बात सिद्ध करना होता है और ऐसी बहसों में इतिहास की जानकारी होना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता।
तमाम विवादों के बीच हम यह कह सकते हैं कि देश की विदेश नीति अगर हमारे हाथों में होती तो शायद यह विवाद नहीं होता। तथ्यों पर चर्चा करने के लिए हमे अपनी इतिहास के प्रति समझ को थोड़ा विकसित करना पड़ेगा। एलएसी को सरल में ऐसे समझें कि यह रेखा भारतीय-नियंत्रित क्षेत्र को चीनी-नियंत्रित क्षेत्र से अलग करती है। भारत एलएसी को 3,488 किमी. लंबा मानता है, जबकि चीनी इसे लगभग 2,000 किमी. की मानते हैं। यह तीन क्षेत्रों में विभाजित है: पूर्वी क्षेत्र में अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम, मध्य क्षेत्र में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी क्षेत्र में लद्दाख। पूर्वी क्षेत्र में एलएसी 1914 मैकमोहन रेखा के अनुसार है।
एलएसी पर सबसे विवादित पश्चिमी क्षेत्र है, जहां एलएसी 1959 में चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई द्वारा जवाहरलाल नेहरू को लिखे गए दो पत्रों से उभरी थी, इससे पहले एनलाई ने 1956 में पहली बार ऐसी किसी ‘लाइन’ का उल्लेख किया था। शिवशंकर मेनन ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया है कि एलएसी को चीन द्वारा ‘केवल सामान्य शब्दों में वर्णित किया गया था, उसकी नक्शे पर स्केलिंग नहीं की गई थी।’ 1962 के युद्ध के बाद, चीन ने दावा किया कि वे 1959 के एलएसी से 20 किमी पीछे हट गए हैं। युद्ध के बाद एनलाई ने नेहरू को लिखे एक अन्य पत्र में एलएसी को फिर से स्पष्ट किया जिसमें कहा गया कि पूर्वी क्षेत्र में एलएसी तथाकथित मैकमोहन रेखा के अनुसार है जबकि पश्चिमी और मध्य क्षेत्र में यह पारंपरिक प्रथागत रेखा के अनुसार है, जिसका चीन द्वारा उल्लेख किया जाता रहा है।
हालांकि भारत ने 1959 और 1962 की एलएसी की अवधारणा को अस्वीकार कर दिया। युद्ध के दौरान भी, नेहरू स्पष्ट थे कि चीन के उस दावे का कोई अर्थ नहीं कि वे एलएसी से बीस किलोमीटर पीछे हट गए हैं। मेनन के मुताबिक भारत की आपत्ति यह थी कि चीनी रेखा एक नक्शे पर बिंदुओं की असंगठित श्रृंखला थी जिसे कई तरीकों से जोड़ा जा सकता था। भारत का कहना था यह रेखा चीनी हमले से पहले 8 सितंबर, 1962 की वास्तविक स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
पूर्व राजनयिक श्याम सरन ने अपनी पुस्तक में बताया कि चीनी प्रधानमंत्री ली पेंग की 1991 की भारत यात्रा के दौरान एलएसी पर चर्चा हुई थी, जहां पी.वी. नरसिम्हा राव और ली एलएसी पर शांति कायम करने को तैयार थे। इससे पहले 1988 के भारत-चीन सीमा विवाद के बाद राजीव गांधी ने बीजिंग का दौरा किया और दोनों पक्ष सीमा समझौता पर बातचीत करने के लिए सहमत हुए। इसके बाद राव की 1993 में बीजिंग यात्रा के दौरान भारत ने औपचारिक रूप से एलएसी की अवधारणा को स्वीकार किया और दोनों पक्षों ने एलएसी में शांति बनाए रखने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए। हालांकि यह स्पष्ट न हो सका कि इसमें उल्लेख 1959 या 1962 की एलएसी का नहीं बल्कि समझौते के समय वाली एलएसी का है। भारत-चीन के बीच नक्शे भी बदले गए थे लेकिन सिर्फ मध्य क्षेत्र के लिए। हालांकि नक्शे पश्चिमी क्षेत्र के लिए भी “साझा” किए गए थे, लेकिन औपचारिक रूप से कभी भी इसका आदान-प्रदान नहीं किया गया। इसके बाद एलएसी को स्पष्ट करने की प्रक्रिया 2002 में प्रभावी रूप से थम गई। डोकलाम विवाद के बाद मई 2015 में अपनी चीन यात्रा के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी के एलएसी को स्पष्ट करने के प्रस्ताव को चीन ने खारिज कर दिया। भारत के लिए एलएसी उसकी अधिकारिक सीमा नहीं है, भारत की सीमा सर्वे आॅफ इंडिया के नक़्शे के अनुसार है जबकि अरुणाचल को छोड़ चीन लगबघ एलएसी को ही अधिकारिक सीमा मानता है।
स्वतंत्र भारत को ब्रिटेन ने संधियां हस्तांतरित की, शिमला समझौते में जब मैकमोहन रेखा बनाई गई तब जम्मू-कश्मीर की रियासत के लद्दाख प्रांत में अक्साई चिन ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं था, हालांकि यह ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था। इस संदेह के कारण, 1914 में पूर्वी सीमा को अच्छी तरह से परिभाषित किया गया था, लेकिन पश्चिम में लद्दाख को नहीं। शायद यही वजह है कि जॉनसन रेखा(1865) और मैकडानल्ड रेखा(1893) के बीच भारत-चीन सीमा हमेशा से विवादों में है। जरूरी है कि दोनों देश सीमा विवाद का जल्द निपटारा करें।

अक्षत मित्तल
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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