Were these agricultural laws made without proper discussion?: विमर्श – क्या बिना उचित विचार विमर्श के ही यह कृषि कानून बना दिये गए ?

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कृषि कानूनो के बारे में, सुप्रीम कोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी यह है कि यह कानून बिना पर्याप्त विचार विमर्श के ही बना दिये गए। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अब जब उन कानूनो का अध्ययन किया जा रहा है तो बहुत से संवैधानिक अंतर्विरोध इन कानूनो में दिख रहे हैं। यहां तक कि विचार विमर्श के लिये नीति आयोग द्वारा गठित उच्च स्तरीय कमेटी की रिपोर्ट्स पर भी विचार विमर्श नहीं किया गया। आखिर इन कानूनो को पारित करने के पीछे कौन सा दबाव ग्रुप काम कर रहा था, जिसके कारण इन कानूनों को जल्दी से जल्दी पारित करने की जिद सरकार ठान बैठी थी। यहीं एक सवाल यह भी उठता है कि क्या कृषि सुधार की तमाम कवायदों के बीच नीति आयोग और सरकार ने कभी उन कारणों की पड़ताल करने की भी कोशिश की है कि, देश मे किसानों द्वारा इतनी भारी संख्या में खुदकुशी करने का क्या कारण है ? किसान अभाव में अपनी जान दे दे रहा है या वह अवसाद से घिर गया है। अवसाद है तो क्यों है और क्या काऱण है। पहले हम खुदकुशी के कुछ आंकड़ो को देखते हैं। इन आत्महत्याओं और किसानों की माली हालत के बीच भी कई ऐसे अन्तर्सम्बन्ध है जो, हमारी सामाजिक स्थिति से भी जुड़े हुये हैं।

साल 2019 में 10,281 कृषि से जुड़े लोगों ने आत्महत्या की है जो देश मे कुल हुयी आत्महत्याओ का 7.4% है। 2019 में देशभर में कुल 1,39,516 लोगों ने आत्महत्या की थी। यह आंकड़ा, एनसीआरबी ( नेशलन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ) के एक्सिडेंटल डेथ एंड सुसाइड इन इंडिया,  अध्य्याय से लिया गया है। साल 2019 मे हुयी आत्महत्याओं की संख्या साल 2018 में हुयी आत्महत्याओं की संख्या 10,348 से थोड़ी ही कम है। लेकिन यदि केवल खेती पर ही आश्रित रहने वाले किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा देखें तो, 2019 मे कुल 5,957 किसानों ने आत्महत्यायें की हैं जो, साल 2018 के आंकड़े 5,763 से कुल तीन प्रतिशत अधिक है।

अब राज्यवार आंकड़े देखते हैं। महाराष्ट्र (3,927), कर्नाटक (1992), आंध्र प्रदेश (1,029), मध्य प्रदेश (541), छत्तीसगढ़ (499) और तेलंगाना (499) शीर्ष 6 राज्यों में शामिल हैं, जिनका किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में कुल 83% हिस्सा है। एनसीआरबी के इस अध्य्याय मे किसान जिसे अंग्रेजी में फार्मर्स या कल्टीवेटर यानी खेत जोतने बोने वाले शब्द से वर्गीकृत किया है, की परिभाषा भी दी गयी है। उक्त परिभाषा के अनुसार, वह व्यक्ति जो अपने स्वामित्व वाले खेत, या किसी का खेत किराए पर लेकर, या बिना किसी खेतीहर मज़दूर के  कृषि कार्य करता है तो उसे फार्मर या कल्टीवेटर कहा जायेगा। यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि, आत्महत्या करने वाले किसानों में 86% किसान वे हैं जिनके पास भूमि है और शेष 14% भूमिहीन किसान हैं। जिन किसानों की आजीविका केवल कृषि पर ही निर्भर है, उनमे से साल 2019 में 4,324 और साल 2018 में, 4,586 किसानों ने आत्महत्या की है। साल 2018 की तुलना में साल 2019 में किसानों की आत्महत्याओं में कुछ कमी भी आयी है।

17 राज्यो के आत्महत्या आंकड़ो से एक और चिंताजनक तथ्य यह निकल रहा है कि, इस 17 राज्यों में खेतिहर मजदूरों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की दर कृषि भूमि रखने वाले किसानों की तुलना में अधिक रही है। पर अन्य 7 राज्यों में भूमि स्वामित्व वाले किसानों ने, खेतिहर मजदूरों की तुलना में, अधिक आत्महत्यायें की हैं। पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तराखंड, मणिपुर, चंडीगढ़, दमन और दियु, दिल्ली और लक्षदीप से किसान आत्महत्याओं के बारे में आंकड़े शून्य हैं।

आत्महत्याओं की दर भारत मे चौंकाने वाली है। धर्म, आस्था और तमाम नियतिवादी दर्शन के बावजूद, भारतीय समाज मे आत्महत्या की ओर लोग क्यों बढ़ रहे हैं, यह मनोचिकित्सको और समाज वैज्ञानिकों के लिये अध्ययन का विषय हो सकता है। 1,39,123 आत्महत्याओं के आंकड़ों के साथ, भारत विश्व मे सबसे ऊपर है। साल 2018 की तुलना में साल 2019 में आत्महत्याओं मे 3.4% की वृद्धि हुयी है। यह सभी सुसाइड आंकड़ो के संदर्भ में है। इसे अगर सांख्यिकी की एक अलग व्याख्या में कहें तो प्रति 1,00,00 आबादी पर 10.4% लोगों ने आत्महत्या की है।

सरकार ने क्या इस विंदु पर भी कोई अध्ययन किया है कि इन तीन नए कृषि कानूनो से किसानों की आय, उनकी माली हालत कितनी सुधरेगी ? अगर किया है तो उसे कम से कम जनता और किसानों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए।

तीनो कृषि कानूनो के बारे में एक नयी जानकारी यह मिली है कि यह तीनों कानून, जो सितंबर 2020 में संसद में पेश किए गए और आनन फानन में राज्यसभा से हंगामे के दौरान पारित कर दिए गए, उन पर तो मुख्य मंत्रियों की उच्च स्तरीय कमेटी ने कोई विचार विमर्श ही नहीं किया था। जबकि ऐसे विचार विमर्श के लिये सरकार के थिंकटैंक नीति आयोग के गवर्निंग काउंसिल ने परामर्श भी दिया था। हैरतअंगेज करने वाली यह सूचना आरटीआई द्वारा मांगी गयी एक सूचना के उत्तर में प्राप्त हुयी है। द वायर वेबसाइट पर विस्तार से इस पर एक लेख 16 जनवरी को प्रकाशित हुआ है।खाद्य, रसद एवं उपभोक्ता मामलों के राज्यमंत्री राव साहब दादा साहेब दानवे ने संसद में, बताया था कि इस कमेटी ने तीनों कानूनो में से एक कृषि कानून आवश्यक वस्तु (संशोधन ) अधिनियम को अनुमोदित किया था। मुख्यमंत्रियों की यह उच्च स्तरीय कमेटी जुलाई 2019 में गठित की गयी थी। आरटीआई  एक्टिविस्ट अंजली भारद्वाज ने 15 दिसंबर 2020 को, एक आरटीआई डाल कर सरकार से निम्न सूचना मांगी थी। उन्होंने ने पूछा था,

” प्रधानमंत्री ने जुलाई 2019 में भारतीय कृषि की व्यवस्था में सुधार हेतु, मुख्य मंत्रियों की एक कमेटी बनाने की घोषणा की थी। इस कमेटी के अध्यक्ष महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस बनाये गए थे। “

अंजलि भारद्वाज ने उक्त कमेटी के बारे में, निम्न सूचना मांगी थी।

  • कमेटी द्वारा सौंपी गयी अंतिम रिपोर्ट
  • कमेटी द्वारा सौंपी गयी अंतरिम रिपोर्ट,यदि कमेटी ने ऐसी कोई रिपोर्ट दी हो,
  • कमेटी के बैठकों की मिनिट्स
  • कमेटी की बैठक में भाग लेने वाले लोगों के नाम।

इस कमेटी की अध्यक्षता  देवेंद्र फडणवीस कर रहे थे और तब केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी उस कमेटी में एक आमंत्रित सदस्य थे। उनके साथ इस कमेटी में, पंजाब, मध्यप्रदेश, हरियाणा, ओडिशा, अरुणांचल प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी सदस्यों के रूप में थे।यह सूचना, सूचना के अधिकार के अंतर्गत नीति आयोग से मांगी गयी थी, जिसका उत्तर नीति आयोग ने, 13 जनवरी को दिया। नीति आयोग के मुख्य  जन सूचना अधिकारी ने अपने उत्तर में यह बताया कि,

” 15 जून 2019 को नीति आयोग के गवर्निंग काउंसिल की पांचवी बैठक के आधार पर प्रधानमंत्री जी के निर्देश पर, नीति आयोग ने 1 जुलाई 2019 को इस प्रकार की एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया था। नीति आयोग के गवर्निंग काउंसिल की छठी बैठक के सामने, इस कमेटी द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट, प्रस्तुत की जाएगी। यह रिपोर्ट सबसे पहले नीति आयोग के गवर्निंग काउंसिल के सामने, जिसके सदस्य सभी राज्यो के मुख्यमंत्री होते हैं, के विचार विमर्श हेतु प्रस्तुत की जाएगी। अभी नीति आयोग इस रिपोर्ट को किसी से साझा नहीं कर सकता है, और कमेटी ने किसी भी प्रकार की कोई अंतरिम रिपोर्ट आयोग को नही सौंपी है। इस हाई पावर कमेटी की पहली बैठक, 18 जुलाई 2019 को नई दिल्ली, दूसरी, 16 अगस्त 2019 को मुंबई, और तीसरी 3 सितंबर को नई दिल्ली में हुयी थी।”

लेकिन मीटिंग के मिनिट्स जो आरटीआई से मांगे गए थे, वे नीति आयोग के सीपीआईओ द्वारा उपलब्ध नहीं कराए गए थे। नीति आयोग द्वारा दिये गए अंजलि भारद्वाज द्वारा प्रश्नों के उत्तर कि,” पहले यह रिपोर्ट नीति आयोग की छठी गवर्निंग काउंसिल की बैठक में प्रस्तुत की जाएगी और उसके पहले यह किसी को नहीं दी जा सकती है, ” से यह स्पष्ट है कि आज तक यह रिपोर्ट नीति आयोग की गवर्निंग काउंसिल के समक्ष रखी ही नहीं गयी। क्योंकि यह आरटीआई 15 दिसंबर 2020 की है। यदि यह रिपोर्ट नीति आयोग के समक्ष रखी गयी होती तो आयोग के मुख्य जनसूचना अधिकारी को उक्त रिपोर्ट को जारी करने में कोई दिक्कत ही नहीं होती। यह रिपोर्ट नीति आयोग द्वारा गठित हाई पवार कमेटी की रिपोर्ट है तो निश्चय ही उसपर किसी भी प्रकार का विचार विमर्श करने का अधिकार आयोग का ही है। पर नीति आयोग के सीपीआईओ के इस उत्तर से यह स्पष्ट है कि उक्त कमेटी की रिपोर्ट या तो नीति आयोग के समक्ष प्रस्तुत ही नही हुयी या आयोग ने कोई उस पर कोई विचार विमर्श ही नहीं किया।

नीति आयोग के इस उत्तर से यह भी स्पष्ट है कि आयोग द्वारा गठित इस कमेटी की रिपोर्ट और संस्तुतियो को दरकिनार कर के सरकार ने यह कानून जून 2020 में अध्यादेश के रूप में और फिर संसद में विधेयक के रूप में पारित करवा दिया। जहां तक सूचना के अधिकार के अंतर्गत मांगी गयी सूचनाओं का प्रश्न है, इस प्रकार की सूचनाओं को आरटीआई एक्ट के प्राविधानो के अंतर्गत मांगी गई सूचनाये, जो मीटिंग की मिनिट्स, भाग लेने वाले सदस्यों के नाम और रिपोर्ट के बारे में है, को, उपलब्ध न कराना भी इस एक्ट के  नियमों का भी उल्लंघन है। यह कानून बनाया ही इसलिए गया है कि, सरकार द्वारा गठित कमेटियां पूरी पारदर्शिता से अपना काम करें।

हालांकि केंद्रीय मंत्री ने संसद के पटल पर यह विधेयक रखते हुए कहा था कि मुख्य मंत्रियों की उच्च स्तर कमेटी ने इन पर विचार विमर्श किया है। लेकिन 14 सितंबर 2020 को सदन में दिए गए, केंद्रीय खाद्य रसद और उपभोक्ता मामलों के राज्यमंत्री, रावसाहेब दादाराव दानवे के इस बयान कि, आवश्यक वस्तु अधिनियम के संशोधन के बारे में, नीति आयोग की हाई पावर कमेटी ने इन संशोधनो को अनुमोदित किया था, का खंडन पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कर दिया था। पंजाब के मुख्यमंत्री खुद भी उसी हाई पावर कमेटी के एक सदस्य थे। कैप्टन अमरिंदर सिंह के उक्त खंडन को यदि अंजलि भारद्वाज द्वारा मांगी गयी सूचनाओं के उत्तर में, जो नीति आयोग ने बताया है, मिला कर देखें तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि, लोकसभा में केंद्रीय राज्यमंत्री का कथन, कि इन कानूनो को हाई पावर कमेटी ने अनुमोदित किया था, सत्य से परे है औऱ इसकी पुष्टि किसी दस्तावेज से भी होती नहीं है। यदि उक्त हाई पावर कमेटी का अनुमोदन ईसी एक्ट के संशोधन के पक्ष में था तो उक्त कमेटी की रिपोर्ट और मिनिट्स का उल्लेख सदन में क्यों नहीं किया गया ?

सरकार द्वारा बनाये गए तीनो कृषि कानूनो में सबसे आश्चर्यजनक है ईसी एक्ट का संशोधन। यह एक्ट 1955 में मुनाफाखोरों और जमाखोर व्यापारियों को नियंत्रित करने और आवश्यक वस्तुओं की कोई जमाखोरी कर के उसकी कीमत अपनीं मर्जी से नियंत्रित न कर सके, इस लिये लाया गया था। जब ईसी एक्ट संशोधन संसद में कानून के रूप में पेश हुआ तो, राज्यमंत्री दानवे ने इसे पेश करते हुए सदन में कहा था कि,

” 5 जून 2020 को जब यह अध्यादेश लाया गया था तब पूरा देश महामारी से ग्रस्त था और पूरे देश मे लॉक डाउन लगा हुआ था।”

इसके बाद वह जोर देकर कहते हैं कि,

” यह अध्यादेश किसानो का दुःख दर्द दूर करने के लिये लाया गया था।”

दानवे आगे कहते हैं,

” इस अध्यादेश को लाने के पहले मुख्य मंत्रियों की हाई पावर कमेटी ने इससे जुड़े सभी विन्दुओ पर विचार विमर्श किया, और वह हाई पावर कमेटी इस नतीजे पर पहुंची कि इस कानून की आवश्यकता है और ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए।

इस बिल के बारे में कानून की तारीफ करते हुए राज्यमंत्री दानवे कहते हैं कि,

” उन्हें यह कहने में ज़रा सा भी संशय नहीं है कि, इस कानून से किसानों का लेश मात्र भी अहित नहीं होगा।”

जब यह सब बातें लोकसभा में कही जा रही थी, तब विपक्ष ने इस कानून को लेकर सरकार को चेताया भी था कि, यह कानून राज्यो के अधिकार का भी अतिक्रमण करता है। आवश्यक वस्तुओं का भंडार रखना और कीमतों को नियंत्रित करना राज्य के क्षेत्राधिकार में आता है अतः केंद्र द्वारा ऐसा कानून बिना राज्यो से परामर्श किये बना देना, यह राज्यों के सवैधानिक अधिकारों पर केंद्र का अतिक्रमण भी है। लोकसभा में कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि,

” कुछ राज्यो में जमाखोरी के बारे में अलग तरह की और अधिक शिकायतें मिलती रहती हैं, इसलिए राज्यों को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि, वे अपनी स्थानीय और राज्यगत समस्याओं के अनुरूप स्टॉक सीमा के बारे में, अपनी तरफ से अगर वे ज़रूरी समझें तो अलग से संशोधित नोटिफिकेशन जारी कर दें। भारत सरकार को संघीय ढांचे की गरिमा का आदर करना चाहिए और यह विंदु राज्य पर छोड़ना चाहिए।”

ईसी एक्ट, के रूप में लंबे समय तक राज्य सरकारों को एक ऐसी कानूनी शक्ति प्राप्त थी, जिससे वे महंगाई से जूझ सकते थे। आज़ादी के बाद खाद्यान्न का उत्पादन भी कम था और भूमि या कृषि सेक्टर के अतिरिक्त अन्य औद्योगिक या सेवा सेक्टर बहुत अधिक विकसित नहीं थे। ऐसी स्थिति में आवश्यक वस्तु अधिनियम के रूप में, प्राप्त कानूनी शक्तियों से सरकार कीमतें नियंत्रित करती रहती थी। अब इस कानून में संशोधन कर के भंडारण को असीमित मात्रा और असीमित समय तक के वैध बना दिया गया है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो इस नए कानून से जमाखोरी को अपराध से हटा कर वैध बना दिया गया है । अलग अलग राज्यों की अलग अलग समस्याये होती हैं, और सभी राज्यों की अपनी अपनी दाम नीति भी होती है। ऐसी स्थिति में राज्यो से इस कानून द्वारा उनके आवश्यक वस्तु के स्टॉक और समय सीमा को नियंत्रित करने के अधिकार से वंचित कर देना, देश के संघीय ढांचे की अवहेलना करना भी है। और ऐसा करते समय भी राज्यों से न तो परामर्श किया गया और न ही उनकी समस्याओं पर केंद्र ने कोई विचार भी किया। जमाखोरी और मुनाफाखोरी एक बड़ा और सामान्य आर्थिक अपराध है। अक्सर  बहुतेरे व्यापारी कभी मुनाफा कमाने के लिये तो कभी बाजार में अपना दबदबा बनाये रखने के लिये स्टॉक जमा कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मांग और आपूर्ति का जब संतुलन बिगड़ जाता है तो इसका सीधा असर उपभोक्ताओं पर पड़ता है। इस कानून में संशोधन से किसान तो पीड़ित होगा ही पर किसानों से अधिक पीड़ित वह उपभोक्ता होगा जो बाजार से अपनी रोजमर्रा की चीजें खरीद कर पेट भरता है। पहले ईसी एक्ट के भय से ज़रूरी चीजों का स्टॉक व्यापारी न तो करता था और यदि करता भी था तो अवैध  भंडारण के कारण, जैसे ही सख्ती होती थी, स्टॉक बाहर आ जाता था और उसका असर कीमतों पर पड़ने लगता था। लेकिन अब इस कानून से जमाखोरी को वैध बना दिया गया और अब चाहे, कोई भी व्यक्ति हो, वह फसल या कृषि उत्पाद खरीद कर उसे असीमित समय तक के लिये असीमित मात्रा में रख सकता है। बाजार को अपने ठेंगे पर रख कर उसे नचा सकता है।

जब इन विधेयको या अध्यादेशों का ड्राफ्ट कैबिनेट में आया होगा तो निश्चय ही इस पर बहस हुयी होगी। कृषि से जुड़ा कानून है तो कृषि मंत्रालय ने इस पर विचार भी किया होगा। इस कानून का ड्राफ्ट विधि मंत्रालय में भी गया होगा और अध्यादेश या विधेयक को जारी या संसद में प्रस्तुत करने के पहले जब इसे अंतिम रूप दिया गया होगा तो, इसका हर तरह से परीक्षण कर लिया गया होगा। क्या कैबिनेट में किसी मंत्री ने इस विधेयक में कोई भी कमी नहीं पायी ? कृषि मंत्री जो खुद कैबिनेट में रहे होंगे, और जिन्हें आज इस कानून में कुछ कमियां दिख रही हैं, जिनके संशोधन के लिए वे आज कह रहे हैं, को कैबिनेट में ही अपनी आपत्ति दर्ज करा देनी चाहिये थी। हो सकता है उन्होंने कहा भी हो और उन्हें अनसुना कर दिया गया हो। जो भी होगा कैबिनेट की मिनिट्स से ही वास्तविकता की जानकारी हो सकेगी।

जब कोई भी सत्ताशीर्ष, या प्रधानमंत्री खुद को इतना महत्वपूर्ण समझ लेता है या उसकी कैबिनेट उसे अपरिहार्य समझ उसके आभामंडल की गिरफ्त में आ जाती है तो, ऐसी होने वाली, अधिकतर कैबिनेट मीटिंग एक औपचारिकता बन कर रह जाती है। तब कानून बनाने की प्रक्रिया केवल पीएमओ में ही सिमट जाती है और विभागीय मंत्री या सचिव बस पीएमओ के ही एक विस्तार की तरह काम करने लगते हैं, तो ऐसे बने कानूनो में मानवीय त्रुटियों का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं होता है। लोकतंत्र का यह अर्थ नहीं है कि किसी मसले पर, केवल संसद में ही बहस और विचार विमर्श हो, बल्कि लोकतंत्र का असल अर्थ यह है कि नीतिगत निर्णय लेने के हर अवसर पर जनता के चुने गए प्रतिनिधि उस पर अपनी बात कहें और उस पर विचार विमर्श करें। संसदीय लोकतंत्र जिसे अध्यक्षात्मक लोकतंत्र की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक माना जाता है, में प्रधानमंत्री कैबिनेट के विचार विमर्श के बाद कोई निर्णय लेता है, ऐसा माना जाता है पर अमूमन ऐसा होता नहीं है। जब प्रधानमंत्री लोकचेतना और लोकतांत्रिक सोच के प्रति सजग और सचेत होता है तो, वह कैबिनेट के राय मशविरे को महत्व देता है, अन्यथा वह पूरी कैबिनेट को ही अपनी मर्जी से हांकने लगता है। यह प्रवृत्ति आज की नहीं है बल्कि पहले से ही चली आ रही है।

एक उदाहरण और है। साल 2019 में, निजीकरण योजना के अंतर्गत, कुछ हवाई अड्डों को निजी क्षेत्र में सौंपने के लिए जो निविदा आमंत्रित की गयी थी में, अडानी ग्रुप को अधिकतर हवाई अड्डे सौंप दिए गए है । उक्त बोली की प्रक्रिया में वित्त मंत्रालय और नीति आयोग की आपत्तियों के बावजूद अडानी समूह को छह हवाई अड्डे दे दिए गए। ‘द इंडियन एक्सप्रेस अखबार के अनुसार, अहमदाबाद, लखनऊ, मैंगलुरू, जयपुर, गुवाहाटी और थिरूवनंतपुरम के हवाई अड्डों के निजीकरण की निविदा के लिए, केंद्र सरकार की ओर से बनाई गई पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अप्रेजल कमेटी ने 11 दिसंबर, 2018 को विमानन मंत्रालय के बोली लगाने के इस प्रस्ताव पर चर्चा की थी। इस चर्चा के मुताबिक़ वित्त मंत्रालय की ओर से कहा गया था कि बोली लगाने वाली किसी भी एक कंपनी को दो से ज़्यादा हवाई अड्डे नहीं दिए जाने चाहिए।

लेकिन कमेटी की बैठक में वित्त मंत्रालय के इस नोट पर कोई बात नहीं की गई। इसी दिन नीति आयोग की ओर से भी हवाई अड्डों की बोली के संबंध में चिंता जाहिर की गई थी। आयोग की ओर से कहा गया था कि बोली लगाने वाली ऐसी कंपनी जिसके पास पर्याप्त तकनीकी क्षमता न हो वह इस प्रोजेक्ट को ख़तरे में डाल सकती है। इसके जवाब में वित्त मंत्रालय के सचिव ने कहा था कि सचिवों के समूह की ओर से पहले ही फ़ैसला कर लिया गया है कि हवाई अड्डे चलाने के लिए पहले से अनुभव होने को शर्त नहीं बनाया जाएगा। टेंडर पा लेने के बाद फ़रवरी, 2020 में अडानी समूह की ओर से समझौतों पर दस्तख़त कर दिए गए। इन हवाई अड्डों के लिए निविदा जीतने के बाद अडानी समूह का एविएशन इंडस्ट्री में भी प्रवेश हो गया था।

अखबार आगे लिखता है,

” इस बोली प्रक्रिया के दौरान अडानी समूह ने इस फ़ील्ड के कई अनुभवी खिलाड़ियों जैसे जीएमआर समूह, जूरिक एयरपोर्ट और कोचिन इंटरनेशनल एयरपोर्ट को पीछे छोड़ दिया। अडानी समूह को इन सभी छह हवाई अड्डों का 50 साल तक के लिए संचालन का अधिकार मिल गया है। 2018, नवंबर में केंद्र सरकार ने सभी 6 हवाई अड्डों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के आधार पर चलाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी थी।

आज किसान आक्रोश का एक बड़ा कारण है कि, अडानी ग्रुप का खेती किसानी के क्षेत्र में घुसपैठ। वैसे तो किसी भी नागरिक को देश मे कोई भी व्यापार, व्यवसाय या कार्य करने की छूट है, पर 2016 के बाद जिस तरह से अडानी ग्रुप की रुचि खेती सेक्टर में बढ़ी है, और उसके बाद जिस तरह से जून 2020 में इन तीन कृषि कानूनो को लेकर जो अध्यादेश लाये गए और फिर जिस प्रकार तमाम संवैधानिक मर्यादाओं और नियम कानूनो को दरकिनार कर के राज्यसभा में उन्हें सरकार ने पारित घोषित कर दिया, उससे यही लगता है कि सरकार द्वारा बनाये गए इन कानूनो का लाभ किसानों के बजाय अडानी ग्रुप को ही अधिक मिलेगा। इन कानूनो की समीक्षा में लगभग सभी कृषि अर्थशास्त्री इस मत पर दॄढ हैं कि, यह कानून केवल और केवल कॉरपोरेट को भारतीय कृषि सेक्टर सौंपने के लिये लाये गए हैं। सरकार, दस दौर की वार्ता के बाद भी अब तक देश और किसानों को नही समझा पायी कि इन कानूनो से किसानों का कौन सा, कितना और कैसे हित सधेगा। सरकार और किसान संगठनों के बीच अब अगली बातचीत 19 जनवरी को होगी, देखना है कि क्या हल निकलता है।

(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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