Utterkatha: BJP came from Corona to cry, Akhilesh got oxygen! उत्तरकथा :कोरोना से आया भाजपा को रोना , अखिलेश को ऑक्सीजन !

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 बंगाल में बड़ी और बड़ी उम्मीदों के टूटने के साथ ही महामारी के बीच संपन्न हुए उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को निराश होना पड़ा है । बम्पर तैयारी, जी तोड़ मेहनत और बड़ी प्रत्याशाओं के विपरीत पार्टी को हिंदी हृदय प्रदेश के गांवों में विपक्ष के मुकाबले भारी नुकसान उठाना पड़ा है जो अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चिंता की बड़ी वजह बनने जा रहा है। कोरोना कहर के चलते पूर्वांचल व मध्य यूपी में तो  किसान आंदोलन की वजह पश्चिमी यूपी में ज्यादा स्थानों पर भाजपा को बुरे दिन देखने पड़े हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में मिली हार भाजपा के लिए बड़ा झटका है जहां उसे समाजवादी पार्टी ने अच्छा खासा पीछे दिया है। वैसे तो काशी और मथुरा के साथ ही सत्तारूढ़ दल को अयोध्या में भी जोर की चोट लगी है । मुख्यमंत्री का गृह जिला गोरखपुर हो रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का लखनऊ, गांव वालों ने में भाजपा नहीं, विपक्ष को जनता ने ज्यादा पसंद किया है जिसमे अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी अव्वल है। पूर्वांचल में जिस तरह लोगों ने अखिलेश यादव को टॉप पर रखा और क्रमशः बुझ रही बसपा को भी तरजीह दी, वह भाजपा के लिए वाक़ई चिंताजनक है। यहां पार्टी का गणित बुरी तरह गड़बड़ाया है ।
उत्तर प्रदेश में हुए जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव के अद्यतन परिणाम देखें तो भाजपा को  उसकी रणनीति के विपरीत ज्यादा क्षेत्रों में हार का मुंह देखना पड़ा है। प्रत्याशियों की सूची से मिलान करने पर पता चलता है कि कुल लड़ने वाली सीटों में भाजपा करीब 75 फीसदी  हार गयी है। कई दिग्गज  भी इन चुनावों में खेत रहे हैं। परिणामों के मुताबिक जिला पंचायत के 3050 सदस्यों में सभी केनतीजे या रुझान सामने आ चुके हैं। इनमें भाजपा ने 666, सपा ने अपने पश्चिम के सहयोगी रालोद के साथ 747 सीटें जीती हैं तो बसपा 322 सीटों पर जीत मिली है। कांग्रेस को 77 सीटें मिली हैं जबकि आम आदमी पार्टी भी वाराणसी सहित कई स्थानों पर जीत हासिल कर चुकी है। चंद्रशेखर की आजाद भारत पार्टी ने भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज कराई है। निर्दल प्रत्याशियों ने सबसे ज्यादा 1238 सीटों पर जीत हासिल की है।
अगले साल सूबे में चुनाव हैं जो 2024 का सेमीफाइनल माने जाएंगे और प्रतिष्ठा के नाम पर फिर वही जुमला सियासी फिजाओं में  पैमाने पर होगा कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से होकर जाता है, ऐसे में ताजा नतीजे बेहद अहम हैं । यह अहमियत राज्य में सरकार और संगठन के लिहाज से बड़े बदलाव ला सकती है क्योंकि बंगाल के लिए सब कुछ दांव पर लगा देने वाली भाजपा ,  उत्तर प्रदेश को लेकर फिलहाल कोई रिस्क नहीं ले सकती ।  भले ही कुछ उच्चपदस्थ लोगों की सियासी कुर्बानी या कुर्सियों में फेरबदल अथवा समायोजन करना पड़े । फिलहाल कोरोना काल में राज्य की चिकित्सा व्यवस्था की ध्वस्त स्थिति और मोदी काल की भाजपा के ग्रामीण यूपी में हुए विस्तार को देखने वाले मान रहे हैं कि सूबे में सत्तारूढ़ दल की मजबूरी हो गई है कि माहौल सुधरते ही बड़े बदलाव किए जाएं ।
दरअसल आगामी विधानसभा चुनावों में भव्य राम मंदिर और कृष्ण जन्मभूमि तथा काशी विश्वनाथ की मुक्ति को बड़ा मुद्दा बनाने का ख्वाब संजो रही भाजपा को अयोध्या, वाराणसी और मथुरा जिलों में मुंह की खाने से बड़ी निराशा हुई  है।  इससे भाजपा की चुनावी रणनीति के केंद्र में रहे अयोध्या, मथुरा और वाराणसी में पार्टी को करारा झटका लगा है। मथुरा जिला पंचायत के चुनाव परिणाम में जिले में बसपा ने पहला स्थान प्राप्त किया है और भाजपा और रालोद 9-9 सीट जीतकर के बराबर रहे हैं । जिले में 3 सीटों पर निर्दलीय एवं एक पर सपा ने परचम लहराया है। मथुरा में प्रदेश के पूर्व मंत्री एवं मांट क्षेत्र से विधायक श्यामसुंदर शर्मा की धर्मपत्नी एवं पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष श्रीमती सुधा शर्मा बसपा से चुनाव जीत गई हैं। वहीं पूर्व विधायक भाजपा प्रणतपाल सिंह के बेटे चुनाव हार गए हैं। पंचायत चुनाव में अयोध्या और काशी दोनों जगहों से आ रहे नतीजे भाजपा को परेशान करने वाले हैं। अयोध्या में 40 में से 24 सीटें समाजवादी ने जीत ली हैं। भाजपा को केवल 6 सीटें मिली हैं। इसी तरह वाराणसी में 40 सीटों में से सपा को 14 सीटें हासिल हुई हैं। भाजपा को केवल 8 सीटें मिल सकी हैं। यहां बसपा को 5, अपना दल (एस) को 3, सुभासपा को 1, आप को 1 और तीन सीट पर निर्दल जीते हैं।
कोरोना की दूसरी लहर के चरम पर पहुंचने की दशा में पंचायत चुनाव के आखिरी दो चरणों के जिलों में भाजपा को सबसे ज्यादा जनता का गुस्सा झेलना पड़ा है। परंपरागत रुप से भाजपा का गढ़ माने जाने वाले राजधानी लखनऊ में भी इसकी करारी हार हुयी है। हालांकि बड़ी तादाद में जीते निर्दलीय जिला पंचायत चुनाव के सदस्यों को भाजपा अपने पाले में बताकर जीत प्रचारित कर रही है पर वास्तविकता तो यहा है कि इसने प्रदेश भर के सभी जिला पंचायत सदस्यों के पदों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे और सबसे ज्यादा व्यवस्थित तरीके से चुनाव लड़ा था।
उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में कांग्रेस ने जिला पंचायत सदस्यों की 80 से ज्यादा सीटें जीती हैं। लंबे अरसे बाद दम खम से उतरी कांग्रेस में मायूसी जरुर है पर बीते चुनावों के मुकाबले ये करीब दोगुनी हैं। इससे पहले 2016 में हुए पंचायत चुनावों में कांग्रेस ने 42 जिल पंचायत चुनावों की सीटें जीती थी। कांग्रेस को रायबरेली, प्रतापगढ़ और बहराइच में अच्छी सफलता मिली है।
पंचायत चुनाव बेमन से लड़ी बसपा के लिए संतोषजनक यह है कि उसे इस बार कांग्रेस से पीछे नहीं जाना पड़ा है और कई जिलों में उसके इतने प्रत्याशी जीत गए हैं कि जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पाने में उसकी बड़ी भूमिका रहेगी।
भाजपा के लिए पश्चिम में किसान आंदोलन ने तो पूरब में कोरोना लहर ने खेल बिगाड़ने का काम किया है। कोरोना लहर के चरम पर होने की दशा में पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिन सीटों पर चुनाव हुए वहां भाजपा को तगड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। कुशीनगर जिले की 61 जिला पंचायत सीट में मात्र 6 सीट भाजपा के खाते में आई हैं जबकि 9 सीटों पर सपा व 3 पर बीएसपी का कब्जा हुआ और कांग्रेस ने भी तीन सीटें जीती हैं। यहां एआईएमआईएम व जन अधिकार पार्टी ने भी एक-एक सीट जीत कर खाता खोला है जबकि 40 सीटों पर निर्दल प्रत्याशियों ने अपना लोहा मनवाया है। बस्ती में जिला पंचायत सदस्य चुनाव में बीजेपी को बड़ा झटका लगा है जहां इसके 43 उम्मीदवारों में से 9 लोगों ने जीत दर्ज की है और जिला पंचायत सदस्य के 34 उम्मीदवार चुनाव हारे हैं।
पंचायत चुनावों में कड़ी टक्कर देने वाली समाजवादी पार्टी का कहना है कि जनता द्वारा नकारे जाने के बाद भाजपा सरकार अब धांधली पर उतारू हो गई है। पार्टी ने कहा है कि सपा समर्थित प्रत्याशियों को जीत के बाद भी जीत का सर्टिफिकेट ना देकर अधिकारी लोकतंत्र की गरिमा को तार तार कर रहे हैं। सपा ने राज्य निर्वाचन आयोग से पूरे मामले का संज्ञान लेने को कहा है।
पंचायत चुनावों के नतीजे विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकारी क्षेत्र की 36 सीटों के लिए भाजपा की रणनीति को बदलने को मजबूर कर सकते हैं। भाजपा की रणनीति पंचायत चुनावों के तुरंत बाद इन सीटों के चुनाव करा विधान परिषद में बहुमत पाने की थी। हालांकि नतीजों के बाद उसके लिए अब यह कर पाना आसान न होगा। अब तक तो होता यही रहा है कि सत्ताधारी दल को विधान परिषद की इन 36 सीटों में अधिकांश आसानी से मिलती रही हैं। वर्तमान नतीजों को देखते हुए भाजपा से लिए विधान परिषद में बहुमत पाने की राह आसान नहीं होगी।
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