UP police gets trapped in its own woven net.: अपने ही बुने जाल में फँसती उप्र. पुलिस 

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एक जमाने में उत्तर प्रदेश पुलिस को देश का सबसे ताकतवर और सक्षम पुलिस बल माना जाता था। तब उत्तर प्रदेश की सीमा चीन और नेपाल से मिलती थी। ज़ाहिर है, ऐसे राज्य में पुलिस बल का शक्तिशाली होना अनिवार्य है। वर्ष 2000 में उत्तराखंड अलग होने के बाद से चीन सीमा से यह बाहर हो गया, लेकिन नेपाल सीमा से यह राज्य सटा ही रहा। उसी पुलिस बल को आज परले दर्जे का झूठा, भ्रष्ट और ख़ूँख़ार बताया जा रहा है। इन चर्चाओं में कुछ तो सच्चाई होगी ही, अन्यथा यूँ ही नहीं पुलिस फ़ोर्स पर अँगुली उठ रही है। मालूम हो, कि उत्तर प्रदेश में पुलिस के खाते में बहादुरी के एक नहीं सैकड़ों किससे हैं, और उसे देश की सबसे ईमानदार पुलिस फ़ोर्स होने पर गर्व भी है। लेकिन क्या बात है, कि कानपुर के एक गुंडे विकास दुबे ने उसी पुलिस फ़ोर्स को बेपर्दा कर दिया। पूरे हफ़्ते भर तक पुलिस उसे तलाश नहीं सकी और जब मध्य प्रदेश की पुलिस ने उसे तलाश कर उत्तर प्रदेश की पुलिस को दिया, तो कुछ वैसा ही हुआ, जिसकी सबको आशंका थी। कानपुर के क़रीब पुलिस वैन पलटी और साथ चल रहे पुलिस वालों की पिस्टल छीन कर उसने भागने की कोशिश की तथा इसी लपड़-झपड़ में वह मारा गया। पुलिस के इस बयान पर लोग भरोसा नहीं कर रहे। किंतु इसका खंडन करने के लिए भी कोई राजनेता आगे नहीं आ रहा है। क्योंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में हर दल के नेता भी गुंडों के दलदल में गले तक धँसे हैं। इसलिए सबने वही मान लिया है, जो पुलिस ने कहा है। शायद कुछ दिनों में इस मामले का पटाक्षेप हो जाए। तब किसी को पता नहीं चल सकेगा कि कानपुर के बिकरू गाँव में दो और तीन जुलाई की रात एक डीएसपी देवेंद्र मिश्रा समेत आठ पुलिस वालों की किसने हत्या की थी।

पुलिस वालों की हत्या कोई सामान्य घटना नहीं थी। ऐसा तो उन दिनों होता था, जब प्रदेश में डकैतों का ऊधम बीहड़ में खूब था। तब ज़रूर बीहड़ के डकैत घात लगा कर पुलिस वालों को मार देते थे। लेकिन पिछले कई दशकों से ऐसी कोई घटना सुनने को नहीं मिली। ऐसे भीषण हत्याकांड के बाद भी उत्तर प्रदेश पुलिस का तत्पर न होना क्या दर्शाता है? क्या उत्तर प्रदेश की पुलिस को अपने ही भाई-बंधुओं की हत्या पर कोई अफ़सोस नहीं है? या उस पुलिस फ़ोर्स के अंदर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल चल रहा था? अथवा इसके पीछे कोई गहरी राजनीतिक साज़िश है? इन तीनों सवालों से आँखें नहीं मूँदी जा सकतीं। पुलिस वालों का आरोपी हत्यारा विकास दुबे कोई छोटा-मोटा गुंडा नहीं था। इसने 2001 में थाने के अंदर घुस कर राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त राजनेता संतोष शुक्ल की हत्या की थी। तब प्रदेश में राजनाथ सिंह की सरकार थी। इस वारदात में दो पुलिस वाले भी मारे गए थे। उसकी गिरफ़्तारी भी हुई, लेकिन किसी भी पुलिस वाले ने गवाही नहीं दी और 2005 में वह कानपुर कोर्ट से दोष-मुक्त हो गया। इस तरह के बदमाश बिना किसी राजनीतिक शह के नहीं बच पाते। उस समय कहा गया था, कि एक बसपा नेता का उसे खुल्लम-खुल्ला सपोर्ट था। इसके बाद से विकास दुबे का आतंक बढ़ता गया। लेकिन दो और तीन जुलाई की रात कानपुर ज़िले के बिकरू गाँव स्थित अपने क़िलेनुमा घर पर छापा डालने आई पुलिस टीम को जिस तरह से विकास दुबे ने उड़ा दिया, उससे दहशत फैल गई है। ख़ास बात यह कि आठ पुलिसकर्मियों को मार देने के बाद भी उत्तर प्रदेश पुलिस उसका सुराग नहीं लगा पाई।

इस पूरे मामले में ख़ुद पुलिस वालों का आचरण ही संदिग्ध नज़र आया था। संकेत मिले कि 2-3 जुलाई की रात विकास के घर की घेरेबंदी की सूचना स्वयं चौबेपुर के थानेदार ने ही विकास को दी थी। यह भी पता चला है, कि शहीद सीओ देवेंद्र मिश्रा ने मार्च में ही इस थानेदार के विरुद्ध एक शिकायत पत्र कानपुर के तत्कालीन पुलिस कप्तान अनंत देव तिवारी को भेजा था। वे तब तक डीआईजी प्रोन्नत हो चुके थे, पर कानपुर के कप्तान का प्रभार उनसे नहीं लिया गया था। वे इस पत्र पर उस समय कोई कार्रवाई नहीं कर सके। और बाद में उनका ट्रांसफ़र एसटीएफ में हो गया था। लेकिन यह पत्र वायरल होने के बाद शासन ने उन्हें एसटीएफ के डीआईजी पद से हटा दिया। इस सब खुलासे से लगता है, कि उत्तर प्रदेश में पुलिस ख़ुद अपराधियों से साठगाँठ रखती है। साथ ही उसके अंदर एक-दूसरे को फँसाने का कुचक्र चला करता है। और राजनेता पुलिस का इस्तेमाल अपने हित के लिए करते हैं। यही कारण है, विकास दुबे सरीखे कुख्यात हत्यारे के समक्ष वह नतमस्तक रहती है। वर्ना क्या वजह है, कि एक अदना-सा अपराधी कुल बीस वर्षों में इतना दुर्दांत बन जाए, कि पूरे सूबे की पुलिस उसके सामने बौनी होकर दण्डवत हो जाए। इन सब बातों से एक बात तो साफ़ ही है, कि योगी जी को सूबे के पुलिस ढाँचे में ऐसे अधिकारियों पर सख़्त होना होगा, जो राजनेताओं से साठगाँठ रखते हैं और जातिवाद को बढ़ावा देते हैं। मुख्य मंत्री को प्रदेश की पुलिस फ़ोर्स में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। प्रदेश को अपराध-मुक्त करने की दिशा में वे कदम उठाने होंगे, जिनसे पूरी पुलिस फ़ोर्स को एक नई दिशा मिले और उसका नैतिक बल बढ़े। पुलिस के नैतिक बल से उसका इक़बाल क़ायम होता है। ‘सिंघम’ या ‘सुपर कॉप’ बनने से नहीं।

इसमें कोई शक नहीं, कि वर्ष 2017 में जब योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने सुलखान सिंह को प्रदेश की पुलिस का मुखिया बना कर ये संकेत दिए थे, कि प्रदेश में पुलिस से भ्रष्टाचार को हटाने के लिए वे कटिबद्ध हैं। लेकिन जहां पुलिस आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हों वहाँ अकेले सुलखान सिंह जैसा अधिकारी क्या कर सकता है। फिर ओपी सिंह को पुलिस प्रमुख बनाया गया। वे वही सज्जन थे, जो 1995 के गेस्ट हाउस कांड के वक्त लखनऊ के एसएसपी थे और वही करते रहे, जैसा कि तब के मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह बताते रहे। उनके बाद हितेश अवस्थी को प्रदेश का पुलिस महानिदेशक बनाया गया। इसमें कोई शक नहीं, कि वे “डेड आनेस्ट” (शत प्रतिशत ईमानदार) अधिकारी के रूप में विख्यात हैं। यह बात उनको जितना ताक़त देती है, उतना ही कमजोर भी बनाती है। प्रदेश की जातिवादी पुलिस ने उन्हें अकेला छोड़ दिया। यही कारण है, कि स्वयं पुलिस ने इस दुर्दांत विकास दुबे को गिरफ़्तार करने के नाम पर खानापूरी की। और वह मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर स्थित महाकाल मंदिर में तब गिरफ़्तार हुआ, जब जैसा कि कहा जा रहा है, उसने चाहा। मध्य प्रदेश की पुलिस ने 9 जुलाई की सुबह उसे पकड़ा और शाम तक बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के, उसे उत्तर प्रदेश पुलिस को सौंप दिया। इस विकास दुबे को ले कर आ रही पुलिस वैन जैसे ही कानपुर शहर की सीमा में दाखिल हुई, वैसे ही अचानक वह पलट गई। विकास ने पुलिस वाले से गन छेनी भगा, और पुलिस की गोलियों से मारा गया। अब आप पुलिस की इस गवाही को मानें या न मानें!

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