आज समाज, नई दिल्ली: Tripti Sahu: हाल ही में प्राइम वीडियो पर ‘पंचायत’ सीरीज़ का चौथा सीज़न रिलीज़ हुआ और हमेशा की तरह दर्शकों ने इसे खूब प्यार दिया। रघुबीर यादव, नीना गुप्ता और जितेंद्र कुमार जैसे अनुभवी कलाकारों ने जहाँ अपना जादू चलाया, वहीं शो के बाकी किरदारों ने भी घर-घर में अपनी पहचान बनाई है।
चाहे ‘बिनोद’ के रूप में अशोक पाठक हों, ‘सह-सचिव विकास’ के रूप में चंदन रॉय हों, या ‘विकास की पत्नी खुशबू’ का किरदार निभाने वाली तृप्ति साहू हों – सभी ने दर्शकों का दिल जीत लिया है। बहरहाल, ‘खुशबू’ का किरदार निभाने वाली तृप्ति साहू ने अब अपनी ज़िंदगी और इंडस्ट्री के कड़वे अनुभवों से जुड़ी कुछ ऐसी बातें साझा की हैं, जो आपका दिल पिघला देंगी।
“मैं अपने रंग की वजह से 11 सालों से अस्वीकृति का दर्द झेल रही हूँ”
एक डिजिटल इंटरव्यू में, तृप्ति साहू ने बताया कि वह पिछले 11 सालों से इंडस्ट्री में संघर्ष कर रही हैं और उन्हें अपने सांवले रंग की वजह से बार-बार अस्वीकृति का सामना करना पड़ा है। उन्होंने बताया कि उन्हें यह कहकर काम देने से मना कर दिया गया कि वह ‘अमीर’ नहीं दिखतीं। सोचिए, यह कितना अजीब तर्क है! सबसे दुखद बात यह है कि उन्हें न केवल इंडस्ट्री में, बल्कि अपने घर में भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ा।
रिश्तेदारों के ताने और 16 साल की लड़की का दर्द
तृप्ति ने बताया कि न केवल वह, बल्कि उनकी माँ भी इस नस्लवाद का शिकार हुईं। उन्होंने याद करते हुए कहा, “उस वक़्त बहुत बुरा लगता था, रिश्तेदार भी अक्सर ताने मारते थे। एक बार मैं एक शादी में गई थी, सभी रिश्तेदारों के साथ खाना बना रही थी। तभी मेरे चाचा आए और बोले- ‘अरे, इसे कहाँ रख दिया, इसका तो न चेहरा है, न रूप। इतनी गोरी लड़कियाँ इधर-उधर घूम रही हैं, और उन्हें कुछ हो ही नहीं रहा, फिर इन्हें काम कौन देगा?’ मैं तब सिर्फ़ 16 साल की थी और उनकी बातें सुनकर खूब रोई थी।” सोचिए, एक छोटी बच्ची पर इन बातों का क्या असर होता होगा!
“उसे तो सिर्फ़ नौकरानी और आदिवासी लड़की के ही रोल मिलते थे!”
चाचा की बातें सुनकर तृप्ति इतनी निराश हो गई कि उसे लगा कि वह कभी भी एक अभिनेत्री के रूप में सफल नहीं हो पाएगी। उसकी माँ ने उसे समझाया कि उसे इन बातों को गलत साबित करना होगा। हालाँकि, जब वह ऑडिशन देने जाती थी, तो उसे अक्सर नौकरानी या आदिवासी लड़की के ही रोल दिए जाते थे।
तृप्ति ने एक ज़रूरी बात कही: “समस्या यह है कि आज भी लोग एक्सप्लोर नहीं करना चाहते। कुछ अमीर लड़कियाँ गोरी नहीं होतीं। इसलिए, ‘अगर लड़की अमीर है, तो गोरी भी होगी’ वाली कहावत ग़लत है। कलाकारों को सोचना चाहिए कि इस सोच को बदलना चाहिए।” कितना सच! किसी की आर्थिक स्थिति या व्यक्तित्व का उसके रंग से आकलन करना पूरी तरह से ग़लत है। तृप्ति के अनुसार, कई बार उनके रंग की वजह से अच्छे रोल उनके हाथ से निकल गए।
तृप्ति साहू की कहानी हमारे समाज और इंडस्ट्री में व्याप्त नस्लवाद की गहरी जड़ें दिखाती है। यह सिर्फ़ एक व्यक्ति का दर्द नहीं है, बल्कि हज़ारों लोगों की कहानी है जिन्हें सिर्फ़ उनके रंग की वजह से अवसर नहीं मिलते या भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उम्मीद है कि तृप्ति के शब्द कास्टिंग निर्देशकों और दर्शकों, दोनों को गंभीरता से सोचने और ऐसी रूढ़िवादी सोच को बदलने के लिए प्रेरित करेंगे।