The world will be saved only through Gandhi Marg: गांधी मार्ग से ही बचेगी दुनिया

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कोरोना वायरस महामारी दूसरे सामाजिक और पर्यावरणीय संकटों को लाने वाले जरियों का ही विस्तार है.। यह एक तरह के मानक के ऊपर दूसरे को प्राथमिकता देने से जुड़ा हुआ है.। इस महामारी से निपटने में दुनिया की सोच तय करने में इसी आघार की बड़ी भूमिका है। .ऐसे में जैसे-जैसे वायरस को लेकर दुनिया की घारणा बन रही है, उसे देखते हुए यह सोचना जरूरी है कि हमारा आर्थिक भविष्य क्या शक्ल लेगा?यह संभव है कि हम बर्बरता के दौर में चले जाएं या एक मजबूत सरकारी पूजीवाद आए. अथवा एक चरम सरकारी समाजवाद आए.। यह भी हो सकता है कि आपसी सहयोग पर आधारित एक बड़े समाज के तौर पर परिवर्तन दिखाई दे। कोरोना वायरस हमारी आर्थिक संरचना की ही एक आंशिक समस्या है.। हालांकि, दोनों पर्यावरण या प्राकृतिक समस्याएं प्रतीत होती हैं, लेकिन ये सामाजिक रूप पर आधारित हैं.। कोरोना के बाद की दुनिया के भविष्य को लेकर कई अनुमान हैं। लेकिन ये सभी इस बात पर निर्भर करते हैं कि सरकारें और समाज कोरोना वायरस को कैसे संभालती हैं और इस महामारी का अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा।
कई देशों की अर्थव्यवस्था के सामने गंभीर संकट पैदा हो सकता है। हमें इस संकट के दौर से निकलने का नया रास्ता खोजना होगा। संकट विेश्वव्यापी है। इसलिए समाधान भी मानवीय अर्थव्यवस्था का होगा । इसका राास्ता हमें महात्मा गांधी ने बताया है।कोरोना वायरस महामारी और जलवायु परिवर्तन से निपटना तब कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा अगर हम गैर-जरूरी आर्थिक गतिविधियों को कम कर देंगे। जलवायु परिवर्तन के मामले में अगर आप उत्पादन कम करेंगे तो आप कम ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे और इस तरह से कम ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जन होगा। कोरोना की महामारी ने हमारे मौजूदा व्यवस्था की खामियों को उजागर कर दिया है.। इसके लिए एक तीव्र सामाजिक बदलाव की जरूरत होगी। बाजार और मुनाफे को अर्थव्यवस्था चलाने के मूल साधन से निकालने की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए हमें कहीं ज्यादा मानवीय तंत्र का निर्माण करना होगा जो कि हमें भविष्य की महामारियों और जलवायु संकट जैसे दूसरे आसन्न खतरों से लड़ने के लिए ज््यादा दृढ़ और टिकाऊ बनाएगा.। सामाजिक बदलाव कई जगहों से और कई प्रभावों से आ सकता है।.हमारे लिए एक अहम काम यह है कि हम यह मांग करें कि उभरते हुए सामाजिक रूप, देखभाल, जीवन और लोकतंत्र जैसी चीजों को अहमियत देने वाली व्यवस्था नैतिक सिद्धातों से पैदा हों।.संकट के इस वक्त में राजनीति का मुख्य काम इन मूल्यों के इर्दगिर्द चीजों को खड़ा करने की है.।

दुनिया भर के वैज्ञानिक अब यह अनुभव कर रहे हैं कि मानव जाति आधुनिक औद्योगिक विकास के जिस रास्ते पर चल रही है, वह पूरी दुनिया के महाविनाश का रास्ता है। इसी का यह नतीजा है कि आज सांस लेने के लिए न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी। खाद्य पदार्थ तो पहले ही प्रदूषित हो चुके हैं। बेरोजगारी और विषमता अलग से बढ़ती जा रही है। विकास का सिलसिला जारी रहा तो इस सदी के अन्त तक प्रकृति प्रलय के नजारे दिखा सकती है। परमाणु युद्ध नहीं हुआ तो भी जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया की तबाही का कारण बन जायेगा। जंगल जिस तरह से खत्म हो रहे हैं उसे देखते हुए समझ में नहीं आ रहा है कि मनुष्य को संास लेने के लिए आक्सीजन कहां से मिलेगी। महात्मा गांधी ने इस संकट को पहले ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का विवेक और संयम के साथ उपयोग करने की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की। दुनिया भर के 53 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने 25 वर्ष पहले ही यह अपील की थी कि दुनिया को शोषण और विनाश से बचाने के लिए गांधी के बताये रास्ते पर ही चलना होगा। आखिर क्या है गांधी जी का रास्ता?
महात्मा गांधी ने देश मंे जिस स्वराज्य की परिकल्पना की थी उसकी बुनियाद देश के लाखों गांवों के विकास पर टिकी हुई है। उनका दृढ़ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गांव स्वतंत्र, शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर उसके सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते, तब तक भारत का भविष्य उज्जवल नहीं हो सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्राम स्वराज्य की यह पद्धति आर्यो के शासन व्यवस्था की बुनियाद थी। इस बारे में 1830 में अंग्रेज गवर्नर जनरल सर चाल्र्स मेटकाफ ने जो ब्यौरा अपने देश को भेजा था उसमें यह लिखा है कि – :‘भारत के ग्राम समुदाय एक प्रकार के छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो अपने लिए आवश्यक सभी सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं तथा किसी प्रकार के बाहरी सम्पर्क से मुक्त हैं। लगता है कि इनके अधिकारों और प्रबन्धों पर कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक के बाद एक राजवंश आता है, क्रांतियों का क्रम चलता रहता है। किन्तु ग्राम समुदाय उसी ढर्रे पर चलता जाता है। मेरे विचार से ग्राम समुदायों के इस संघ ने जिसमें प्रत्येक (समुदाय) एक छोटे मोटे राज्य के ही रूप में है, अन्य किसी बात की अपेक्षा अनेक क्रान्तियों के बावजूद भारतीय जन समाज को कायम रखने और जनजीवन को विश्रृंखल होने से बचाने में बड़ा भारी काम किया। साथ ही यह जनता को सुखी बनाये रखने और उसे स्वतंत्र स्थिति का उपभोग कराने का बड़ा भारी साधन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि गांवों की इस व्यवस्था में कभी उलट फेर न किया जाय। मैं उस प्रवृत्ति की बात सुनकर ही दहल जाता हूॅ जो इनकी व्यवस्था भंग करने की सलाह देती है।’’
मेटकाफ के इस खौफ के बावजूद ब्रिटिश सरकार स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भरता के इन केन्द्रों को विनष्ट करने की निर्धारित नीति पर बराबर चलती रही। भारत का पाला पहली बार ऐसे आक्रामक से पड़ा, जिसने यह काम कर दिखाया, जो बहुत पहले किसी ने नहीं किया था। इन ग्राम-गणतंत्रों को विनष्ट कर ब्रिटिश साम्राज्यशाही ने इस प्राचीन देश को सबसे अधिक क्षति पहॅुचायी। यदि 80 प्रतिशत भारतीयों को आश्रय देने वाले हमारे गांवों में पौर प्रशासन का वह पुराना ओज आज भी कायम रहता तो सामुदायिक विकास तथा राष्ट्रीय पुनर्निमाण मिनटों की बात थी। ब्रिटेन से आजाद होने के लिए लड़े गये स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में गांधी जी ने भारतीय मध्यम वर्ग को साहस, एकता, नैतिक नियमों पर विश्वास, स्वाभिमान, आत्म-निर्भरता और आत्मविश्वास की शिक्षा दी और ये गुण उनमें पैदा किये। इन्हीं गुणों से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की। इसी तरह गांधी जी ने अपना रचनात्मक कार्यक्रम बनाया और शुरू किया, जिससे किसानों को इन्हीं गुणों का विकास करने और बड़ी हद तक प्रतिदिन रचनात्मक काम करके स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद मिली। गांधी जी का लक्ष्य सारे हिन्दुस्तानियों के लिए पूरी स्वतंत्रता और न्याय प्राप्त करना था। यदि 130 करोड़ ग्रामीणों को न्याय और स्वतंत्रता मिल जाय तो भारत में उत्पन्न होने वाली शक्ति की लहर संसार को चकित कर देगी।
गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों में से एक खादी और ग्रामोद्योग से भारत को जो महान सामाजिक, आर्थिक और नैतिक लाभ हो सकते हैं, उन्हें देखते हुए इन उद्योगों को सरकार द्वारा इस समय जितना संरक्षण मिल रहा है उससे अधिक मिलना चाहिए। मिल के कपड़े और मिल के सूत की स्पर्धा खादी के लिए एक बहुत बड़ी बाधा है। यह सच है कि सरकार ने भारतीय मिलों के कपड़े पर कर लगा दिया है और उसकी आमदनी को भारतीय हाथ-करघा उद्योग की तरक्की में लगाया है। यह न्याय और बुद्धिमानी का काम है। चावल कूटने और साफ करने की मिलें, हाथ कुटे चावल के उत्पादन में बाधक होती है और उस चावल के खाने वालों के स्वास्थ्य को हानि भी पहुंचाती है। यही बात उन मिलों की है जो साफ की हुई सफेद चीनी पैदा करती है। वे गुड़ की ग्रामीण पैदावार से तीव्र स्पर्धा करती है और सफेद चीनी अनेक मामलों में मानव शरीर में मौजूद कैल्शियम का नाश करती है। इस मामले में अनेक अमरीकी हड्डी और दंत चिकित्सक सहमत हैं। जन स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए इन ग्रामोद्योगों को किसी न किसी तरह सहायता दी जानी चाहिए। ग्रामोद्योग के पक्ष की दलीलें उतनी ही मजबूत हैं, जितनी उद्योगपति अपने माल के संरक्षण या सहायता के पक्ष में देते हैं।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत से निकालकर बाहर करने में गांधी के कार्यक्रम की सफलता इसकी शक्ति का पर्याप्त प्रमाण है। बाहर का सशस्त्र आक्रमण होने परया कोरोना जैसी महामारी में भी यह कार्यक्रम कारगर साबित होगा। विकास की आज जो प्रचलित प्रणालियां हैं, उनमें से केवल गांधीजी का कार्यक्रम ही छोटे संगठनों पर जोर देता है। वह गांव, परिवार और हाथ से काम करने वालों के छोटे-छोटे संघों को सभ्यता का आधार बनाता है। गांधी जी का कार्यक्रम ही यह आग्रह करता है कि साध्य और साधन का मेल होना चाहिए। भारत में पूर्व पश्चिम के उदार तत्वों का सामंजस्य करने और समस्त संसार में विवेकशील संस्कृति उत्पन्न करने की क्षमता है। परन्तु इसके लिए कम से कम एक शताब्दी तक भगीरथ, दीर्घकालीन और सतत प्रयत्न करने की आवश्यकता होगी।

-निरंकार सिंह

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