Office dead: दफ़्तर का देहांत 

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आजकल जिधर देखो कोरोना का हो-हल्ला सुनाई पड़ेगा। जैसे कि कोई टी-ट्वेंटी का क्रिकेट मैच चल रहा हो। इतने के टेस्ट हुए, इतने पॉज़िटिव निकले, इतने अस्पताल में हैं, इतने ठीक हो गए, इतने निबट लिए, फ़लाँ को कोरोना ने यूँ दबोचा, फ़लाँ देश तो गया काम से, आपका इलाक़ा रेड, ऑरेंज, ग्रीन ज़ोन में है, आप ये कर सकते है, वो नहीं। आदि-आदि। एक और कमाल की बात है कि इस रोग ने दुनियाँ भर में लोगों को घरों में बिठा दिया है जिससे कि आप फ़ुरसत से इसके कारनामे देख-सुनकर अंदर तक हिलते रहें।
टीवी वाले तो टूट ही पड़े हैं। प्रवासी मज़दूरों की बदहाली का नक़ली रोना रोते रहते हैं।  अख़बार भी इंटर्नेट पर सवार हो आपसे कोरोना की कमेंट्री सुनने की ज़िद करता है। फ़ेक-न्यूज़ वालों की तो पूछिए ही मत। लोगों को डराने-बहकाने का ठेका ले रखा है। लोग फ़ैक्ट-चेक करते नहीं। वट्स-एप देख-देख हड़के-सहमे रहते हैं। फ़ॉर्वर्ड कर-कर दूसरों को भी डराते रहते हैं। भला हो मीम बनाने वालों का। इस बुरे वक़्त में भी हंसने-हंसाने की बात करते हैं। टेस्ला के मालिक एलन मस्क का तो अलग ही लेवल है। अपने ताजा-ताज़ा जन्मे बच्चे का नाम बीजगणित के फ़ोरमूले जैसा रख दिया। लाक्डाउन में फँसे लोगों को ख़ाली समय खपाने के लिए एक नया झुनझुना मिल गया।
दार्शनिक भाव वाले जीवन-मृत्यु को एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानते हैं – आया है सो जाएगा, राजा, रंक, फ़क़ीर। लेकिन पश्चिमी मेडिकल साइंस का मानना है कि आदमी एक मशीन की तरह है। इसकी ख़राबियों को ठीक कर जीवन को लम्बा खींचा जा सकता है। इस बात की आलोचना भी होती है कि इस चक्कर में बुढ़ापे झेल रहे टूटे-जर्जर शरीर पर नाहक अरबों-खरबों खर्च हो रहे हैं। मैं सोचता हुँ कि मरने के इतने तरीक़े हैं कि आख़िर किस-किस से बचकर चलें! इसके बजाय ज़्यादा ध्यान एक अर्थपूर्ण जीवन जीने के उपक्रम में लगायें तो अच्छा होगा। मरते समय मलाल तो नहीं होगा। आस्ट्रेलिया के एक नर्स  ब्रोन्नी वेर ने सैकड़ों रोगियों के मरने के बारह सप्ताह पहले उनके अफ़सोस के बारे में पूछा – वो चीजें जो नहीं करते तो अच्छा होता। इसका ब्योरा उन्होंने साल 2011 में अपनी किताब “फ़ाइव रेग्रेट्स ओफ़ डाइंग पीपल” में लिखा। पाँच बातें जिसक़ो लेकर मरणासन्न लोगों को मलाल था वो था – पूरी उम्र दूसरों के कहे पर चले, काश अपनी सुनी होती, काम में अपने को इतना खपाया नहीं होता, कम मेहनत करते, अपने हृदय की भावनाएँ व्यक्त की होती, यारों-दोस्तों से और ज़्यादा बात-मुलाक़ात रखी होती और अपने को ख़ुश रहने दिया होता। सवाल है कि जो अभी ठीक-ठाक हैं, क्या इन बातों पर गौर करेंगे? भय और लालच से भरे, कभी ना मरने का भ्रम जीते अधिकांश लोगों को ये बेकार की बात ही लगेगी। जब तक मृत्यु से छले नहीं जाएँगे, ठगने को ही जीवनधर्म मानते रहेंगे।
कोरोना ने मानवीय संबंधों की नई लकीर खींच दी है। चूँकि ये एक से दूसरे को हो सकती है, घर-परिवार तो एक झटके में छूट जाता है। रोग अभी तक असाध्य है। ठीक होना, नहीं-होना भाग्य के हाथ है। ऐसे में स्वस्थ हो घर वापस लौटने की आशा या बग़ैर अपनों से मिले जीवनयात्रा ख़त्म करने की विवशता एक नया अनुभव है। कई जगह तो घर वाले मृत शरीर लेने भी नहीं आते। कहते हैं कि हमारा आदमी तो शिकार हो गया, अब इस मिट्टी का क्या करना है? आप ही निबटा दो।
1945 में नूक्लीअर बम चला तब कहीं जाकर द्वितीय विश्व युद्ध की इतिश्री हुई। जापान का गोरों से बराबरी करने की हिमाकत की सजा तो मिल गई लेकिन बाक़ी दुनियाँ अपने रफ़्तार से चलती रही। कोरोना ने तो चुपके, दबे पाँव सब-कुछ उलट-पुलट रख दिया है। साबुन से हाथ घिसते रहो, घर में पड़े रहो, बाहर निकलो तो नाक-मुँह ढक लो, कोई मिल जाए तो दो गज दूर रहो, सर्दी-खांसी हो जाए तो एकांत पकड़ लो, बेदम होने लगो तो अस्पताल पहुँचो। आदि-आदि। मानो नहीं तो मरो। सरकार बीच-बचाव कर रही है। एहतियात बरतने के लिए पुलिस लोगों को गाने सुना रही है। डाक्टर बेड-वेंटिलेटर बढ़ाने में लगे हैं। सरकारें अपने शोध-कर्ताओं को ललकार रही है कि इस पिद्दी को कोई इलाज निकालो। कुछ करने नहीं दे रहा। ऐसे तो फ़ना ही हो जाएँगे।
सबसे बुरी मार दफ़्तर को पड़ी है। लगता नहीं कि इसकी पुरानी शान कभी वापस लौटेगी। कई तो कह रहे हैं कि इसे तो भूल ही जाओ। ये तो कोरोना के हाथों सबसे पहले मारा गया है। बैठकें, जिनकी चाय-पकोड़े जान हुआ करती थी, अब वीसी हो गई है। दफ़्तरी नक़ाबधारी हो गए हैं। संवाद की आत्मा चेहरे की अभिव्यक्ति हुआ करती है। चिलमन के पीछे से कही बातों का मतलब निकालना जटिल हो गया है।
वैसे दफ़्तर का रोग ईस्ट इंडिया कम्पनी का फैलाया हुआ है। वही जो आयी थी इधर व्यापार करने और अपने किराए के टट्टुओं के बूते हमें ग़ुलाम बना बैठी। 1822 में लंदन में इसके एक गुर्गे चार्ल्ज़ लैम्ब ने अपने एक दोस्त को दफ़्तरी जीवन के बारे कई चिट्ठियाँ लिखी। मज़मून था – “तुम्हें नहीं पता कि ये कितनी उबाऊ और थकाऊ है। हर दिन वही हवा, वही दीवारें, जीवन के सबसे अच्छे वक्त यहाँ ख़राब करना। सोचता हुँ कि डेस्क और कब्र के बीच कुछ साल मुझे मिलेंगे।” लैम्ब गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी भी 1857 के ग़दर में निबट ली। सौ साल बाद इसका खड़ा किया हिंदुस्तान का ब्रतानी साम्राज्य भी गया। लेकिन दफ़्तरों का जाल दुनियाँ भर में फैल गया। शहरों में अब तक इसका एकछत्र राज था – एक ऐसी जगह जहाँ एक आदमी बाक़ियों को एक काम में हांके रखता था। यही जिंदगी थी। अगर आप एक भले आदमी हैं और भाग्य से आपके पास एक नौकरी भी है तो जीवन के अच्छे समय का अधिकांश अपने परिवार के बजाय उन लोगों के साथ बिताएँगे जिन्हें आप शायद ही पसंद करते हों।
अब विडीओ-कानफरेंसिंग, वर्क-फ़्रोम-होम इत्यादि की कृपा से
 घर ही दफ़्तर बन जा रहा है। लेकिन इसमें ज़्यादा खुश होने की कोई बात नहीं है। शुरू में तो बड़ा अच्छा लगेगा कि रोज़-रोज़ के ट्रैफ़िक-जाम से बच गए। सहकर्मियों के चूँ-चपड़ से निजात मिल गई। लेकिन बखेड़ा तब खड़ा होगा जब पता चलेगा कि दफ़्तर बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा। चौबीसो घंटे आपका दिमाग़ खा रहा। उम्मीद रखिए कि कोई नया नियम भी बनेगा जो ऐसा नहीं होने देगा। तब तक नजारा लीजिए। ऐसी बदलाव की आँधी रोज़-रोज़ थोड़े न आती है।
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