The whole of india never fought: पूरा भारत तो कभी नहीं लड़ा

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सैकड़ों साल पहले ही भारत में लिख दिया गया था कि, कोउ नृप होय हमें का हानि। इससे भारत की मिट्टी का मूल चरित्र सिद्ध होता है। कुछ लोग कह सकते है कि ये गोस्वामी तुलसीदास ने मुगल राज स्थापित होने के बाद लिखा था ,राम के युग मे ही सम्पूर्ण जनता किसी गलत के खिलाफ खड़ी हो गई हो ऐसा तो नही दिखा ,वो चाहे राम को राजा बनने से रोकना हो या फिर सीता की अग्नी परीक्षा या अग्नी परीक्षा के बाद भी उनका वन जाना।  विस्तार मे जानाँ विवाद पैदा कर सकता है। कृष्ण के युग मे कंस हत्याये करता जा रहा था पर कहा कोई आवाज उठी कि ये गलत है ,चाहे राजा हो या जमीदार या कोई बडा नही है उसे अधिकार इस तरह हत्याये करने का।  अशोक के काल मे भी कहा जनता ने कुछ भी कहा था ,जनता तो हमेशा ताकत और सत्ता की अनुगामिनी ही बनी रही।
वरना बस सैकड़ो की तादात में आते थे विदेशी लुटेरे और लूट कर चले जाते थे भारत को।  जब कोई आता तो खेती करता किसान हल बैल लेकर किनारे खड़े होकर तमाशा देखता और बाकी लोग भी।  लड़ता सिर्फ़ वो था जिसे लड़ने के पैसे मिलते थे और ज्यादातर वो भी सेनापति के घायल होने या मर जाने पर भाग खड़े होते या विजेता से मिल कर उनके लिए लड़ने लगते।  भारत पर आक्रमण करने वाला या राज करने वाला कोई भी बड़ी फौज लेकर नहीं आया था सबकी लड़ाई  और राज भारतीय लोगों के दम पर ही चला।  भारत के नागरिक पर जुल्म हो या हत्या सब यही के लोगो ने किया या तो डर कर या फिर बिक कर और विदेशियों को बुलाकर लाने वाले भी भारतीय थे , रास्ता बताने वाले या कमजोरी बताने वाले सारे विभीषण भी भारतीय थे।  मैंने कई बार कहा है उदाहरण के लिए की जब सोमनाथ को लूटा जा रहा था तो वहाँ के सारे पंडे और दर्शनार्थी बैठ कर पूजा करने लगे की अभी भगवान का प्रकोप होगा और सब लुटेरे भष्म हो जाएँगे।  पर वो करने के बजाय अगर उन्होंने अपने थाली लोटे से भी आक्रमण कर दिया होता तो सोमनाथ नहीं लूटा होता, भगवान की मूर्ति और मंदिर की शक्ति का भ्रम भी बना रहता और लुटेरे टुकड़ो मे मुर्दा पड़े होते  और उससे भी बड़ा काम ये हुआ होता की आइंदा कोई भी भारत पर आक्रमण करने से पहले सौ बार सोचता की भारत का या उसके किसी भी हिस्से का हर आदमी अपने राज या जमीन के लिए लड़ने को खड़ा हो जाता है।
आगे भी पूरा देश तो कभी खड़ा नहीं हुआ बल्कि थोड़े से लोग खड़े हुए किसी भी लड़ाई में वो अन्दोलन चाहे आजादी का रहा हो और चाहे आपातकाल से पहले का।  जिन लोगों ने भी हिंसा का रास्ता अपनाया उनके साथ बहुत कम लोग खड़े हुए।  गांधी जी इस मिट्टी की तासीर को अच्छी तरह समझ गए थे इसीलिए उन्होंने अहिंसा का रास्ता अपनाया और इस रास्ते से वो लाखों या करोड़ों जोड़ने में कामयाब हुए पर पूरे देश को नहीं जोड़ पाये वो भी। अंग्रेजो के समय भी पूरी जनता तो इसी कोऊ नृप वाले भाव की थी तो बहुत से लोग अंग्रेजो का साथ दे रहे थे, बहुत से प्रशंसक थे तो हाथो मे हथियार लेकर जलियां वाला बाग से होकर पूरे देश मे गोली लाठी चलाने वाले, आजाद को गोली मारने वाले, भगत को फांसी लगाने वाले और सुभाष की सेना पर गोली बरसाने वाले सब तो भारतीय ही थे केवल आदेश देने वाला अन्ग्रेज होता था और मुखबिरी कर आजादी के लिए लड़ने वालो की पकड्वाने वाले भी भारतीय ही थी।
सभी के खिलाफ अंग्रेजो के पक्ष मे मुकदमा लड़ने वाले भी भारतीय थे और गवाही देने वाले भी भारतीय ही थे। आज भी वही हालत है जो भारत की तासीर है। बंद जगह पर छिप कर विरोध करना हो या छुपा कर बटन दबा कर सत्ता बदल देना हो बशर्ते बटन दबाने वाले हिसाब से ही परिणाम दे तो इतना तो अधिकतम भारतीय कर सकता है पर खुले मे आकर चुनौती देना भारत के आवांम की आदत नही है। इतिहास मे भी भारत ने कभी भी किसी मजबूत को चुनौती नही दिया।  ये हमारा चरित्र है गुलाम होना या गुलाम बनाना। संमता मे हमारा विश्वास ही नही है।
कमजोर को मारना और मजबूत के सामने दुम हिलाना। अगर आज भी देश अपने अहित और बुरे भविष्य पर मुखर नही होता तो ये बहुत चिंता की बात नही है। अगर आज भी सोमनाथ की तरह देश का बडा हिस्सा मन्दिर मे अपना सुख और भविष्य देख रहा है तो इसमे आश्चर्य की कोई बात नही है। छोटे स्तर पर भी लोग कहा निकलते है बिजली या पानी नही मिलने पर ,सड़क के लिए या किसी भी बुनियादी समस्या के लिए। पडोस पर हमला होने या बच्चा उठने या बलत्कार होने पर खिड़किया और पर्दे बंद कर जोर दे टीवी चला देने या कान मे रुई ठूस लेना ज्यादा मुनासिब लगता है।  पानी नही दे सरकार तो अपना जेट पंप लगा लिया, बिजली के लिए अपने जेनरेटर लगा लिया।  जितना सहनशीलता है भारत के समाज मे।  पर ऐसा भी नही कि कभी नही निकलते।
जरा किसी धार्मिक स्थल को कुछ हो जाये, किसी के चित्र या प्रतिमा से कुछ हो जाये या दो जानवरो मे से किसी का कुछ हो जाये तो निकलते है पर फिर भी मुट्ठी भर और बच बच कर कि कोई खतरा तो नही और नही है तथा सामने वाला कमजोर या कम है तो कायरता पूरी ताकत से क्रूरता दिखाती है और चीख की आवाज भी बुलंद होती है। दूसरी तरफ राम भी तो तीन ही थे जिसमे से एक व्यव्स्था के लिए और दो युद्द के लिए और दो साम्राज्य पराजित कर आये थे।  कृष्ण ने अकेले केवल दिमाग और जुबान का इस्तेमाल कर भारत को  महाभारत तक पहुचा दिया। बुद्ध निकले तो अकेले थे पर दुनिया के बड़े हिस्से को जोड़ लिया। ईसा ने सूली पर लटके लटके ही दुनिया के बड़े हिस्से  को अपने सामने झुका दिया और करबला मे कहा करोडो थे पर करोडो को अपना अनुयायी बना दिया।
गांधी अफ्रीका मे भी अकेले थे और भारत भ्रमण पर भी अकेले ही निकले और ऐसा निकले कि बिना हथियार के ही इतने बड़े दुश्मन को देश से निकाल दिया। उसके बाद भी किसी एक ने ही सत्ताए बदली है भारत की।  आज फिर भारत आजादी बनाम गुलामी, लोकतंत्र बनाम अधिनायकवाद ,संविधान बनाम प्रधान की इच्छा , कानून बनाम सता की लाठी के बीच झूल रहा है। अधिकांश कोऊ नृप होय वाले है तो बहुत से अज्ञात कारणो से प्रशंसक है तो बहुत से गली गली मे मुखबिर और बहुत से लाठी बन्दूक और कानून की किताब के साथ इनके साथ खड़े है तो बहुत से चाहे कलम से या कला से ,जुबान से या आंखो की भाषा से लडाई भी लड़ रहे है सच की ,ईमान की ,लोकतंत्र की संविधान की और अन्त मे यही जीत जायेंगे सारे जुल्म के बावजूद क्योकी हमेशा ही ये मुट्ठी भर लोग ही जीते है।
इतिहास तो यही बताता है।  बस देखना इतना है की वो एक कौन होगा इस युद्ध का नायक और क्या कोई  सम्पूर्ण भारत को कभी निकाल सकेगा चाहे जिसके खिलाफ चाहे जब और चाहे जो भी गलत हो ? क्या कोई बदल पायेगा ये आवाज “कोऊ नृप होंय हमे का हानी “से “को नृप होय ये हम ही जानी” मे।

सीपी राय
(लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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