The policy of teaching in mother tongue will succeed only with determination: दृढ़ संकल्प से ही सफल होगी मातृभाषा में शिक्षा देने की नीति

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अंग्रेजों के भारत में आने के समय तक जनमानस दैनिक कार्यों में स्थानीय भाषाओं का व्यवहार करते थे । उच्च शिक्षा, शास्त्रीय चर्चा जैसे कार्यों के लिए संस्कृत का प्रयोग करते थे।
मुस्लिम सभ्यता के संपर्क के बाद किन्ही-किन्ही कार्यों के लिए फारसी का प्रयोग भी होने लगा था। अँग्रेजों ने सत्ता हथियाने पर पहले तो हिन्दी-उर्दू मिश्रित भाषा में सरकारी कामकाज किया, पर बाद में अँग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया, ताकि वह सारा काम उनकी देख-रेख में चले ।इस काम के लिए उन्हें भारतीय भाषाओं को जानने वाले ऐसे भारतीय चाहिए थे, जो अँग्रेजी के भी जानकार हों।अत: उन्होने अँग्रेजी शिक्षा की शुरूआत की, जिसका माध्यम भी अँग्रेजी को ही बनाया।
वर्तमान समय में अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के अनुसार माध्यमिक स्तर तक मातृभाषा (क्षेत्रीय भाषा) को शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया गया है, परंतु उच्च शिक्षा स्तर पर आज भी यह समस्या बनी है ।अनेक महाविद्यालयों में अधिकांश विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान किया जा रहा है । ऐसा हिन्दी भाषी क्षेत्रों मे ही है।
केंद्र शासित क्षेत्रों व केंद्रीय विश्व-विद्यालयों मे शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी ही है।अनेक शिक्षा-संस्थाओं में हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा तथा अँग्रेजी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान व प्राप्त की जाती है। इस प्रकार अँग्रेजी और हिन्दी के मुद्दे पर फंसकर शिक्षा के माध्यम की भाषा एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है, और इस अनसुलझी समस्या ने शिक्षा के स्तर को एकदम निम्न स्थिति में पंहुचा दिया है। माना जाता है कि 1937 में राज्यों के लिए होने वाले चुनावों से पहले गांधी जी ने भावी सरकारों की शिक्षा नीति को लेकर जो बुनियादी तालीम की योजना बनाई थी, उसी में पहली बार मातृभाषा में शिक्षण पर जोर दिया था।
हालांकि 1833 में भारतीय शिक्षाविद के एम बनर्जी और ब्रिटिश शिक्षाविज्ञानी डॉक्टर वैलेंटाइन ने देसी भाषाओं को भारतीय शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षण की योजना प्रस्तुत की, इसके बावजूद 1854 के वुड घोषणापत्र में अंग्रेजी के साथ ही भारतीय भाषाओं को भी यूरोपीय ज्ञान के माध्यम के तौर पर स्वीकृति दी गई। मैकाले की योजना 1860 में लागू हो गई, बाद में शिक्षा को समाज से सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। इसके बावजूद भारत में वर्नाक्यूलर विद्यालय चलते रहे। आज जो सारा का सारा शिक्षा का तंत्र है वह सब पश्चिमी प्रतिमान है। पश्चिमी विचार का प्रभाव उस पर स्पष्ट दिखाई देता है।हमारी शिक्षा का लक्ष्य भारतीय प्रतिमान खड़े करना होना चाहिये जिससे व्यक्ति का समग्र विकास हो कर व्यक्ति निर्माण हो सके।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत जी के शब्दों में ,”आधुनिक शिक्षा शास्त्र बताता है कि प्रारंभिक शिक्षा यदि मातृभाषा में हो तब आगे की शिक्षा में सीखने में आसानी होती हैे” सर कार्यवाह भैयाजी जोशी के शब्दों में ” आज देश में नवीन व प्राचीन जानकारी के साथ ज्ञान केंद्रित शिक्षा स्वरूप पर विचार होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे समाज के सभी वर्गों का उत्थान हो।”
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में “, ह्यमेरा सपना है कि हर राज्य में कम से कम एक मेडिकल कॉलेज मातृभाषा में पढ़ाना शुरू करे े” दुनिया भर के शिक्षा शास्त्री मानते रहे हैं कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा सुलभ होने की वजह से बच्चे का बौद्धिक और मानसिक विकास बेहतर होता है। इसके बावजूद भारत में मातृभाषा में शिक्षण को सिर्फ सरकारी तंत्र ही स्वीकार करता रहा, जिसका ज्यादातर हिस्सा पिछले कुछ दशकों में अपनी बदहाली के लिए ही ज्यादा जाना गया है। क्या नई शिक्षा नीति में मातृ भाषा में शिक्षा देने के सुझावों को महानगरों से लगने वाले गांवों के किनारे वाली सड़कों तक फैले अंग्रेजी माध्यम के कथित पब्लिक स्कूल स्वीकार कर पाएंगे? वर्ष 1993 में दिल्ली सरकार के शिक्षा और विकास मंत्री साहब सिंह वर्मा ने दिल्ली में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का फैसला लिया, तो उसे संघी फैसला बताकर उसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया।
देश की संभ्रांत समझी जाने वाली अंग्रेजी मीडिया का भी इसे भरपूर सहयोग मिला था। वह विवाद इतना बढ़ा कि जर्मनी की यात्रा से लौटते ही तत्कालीन मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना ने उस फैसले को पलट दिया था। लगता है कि नई शिक्षा नीति बनाने वालों पर इस विरोध की आशंका रही है। शायद यही वजह है कि भारतीय भाषाओं की बात करने वाले अनुच्छेद के साथ ही यह भी स्पष्टीकरण दे दिया गया है कि कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी। लेकिन मोदी सरकार के संकल्पों को देखकर उच्चशिक्षा में मातृभाषाओं को शिक्षा माध्यम बनाने वाली नीति इस बार अवश्य कारगर होगी।

सुखदेव वशिष्ठ
(लेखक विद्या भारती के पंजाब प्रांत के प्रचार प्रमुख हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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