Recurrence of plane accidents: not air travel?: विमान हादसों की पुनरावृत्ति: खूनी न हो हवाई सफर?

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लगातार होते विमान हादसों को देखकर हवाई सफर करने वाले यात्री पसोपेश में हैं। उनके भीतर भय पैदा हो गया है। कोझिकोड एयरपोर्ट पर भीषण विमान हादसे ने हवाई यात्राओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विमान जिस तरह से क्षतिग्रस्त हुआ, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो गए।
नियमित हवाई यात्रा करने वाले हादसा देखकर इस सोच में पड़ गए कि उन्हें यात्रा करनी चाहिए या नहीं? प्लेन दो हिस्सों में टूट कर चकनाचूर हो गया। हादसे के जो तत्कालीन कारण सामने आए हैं, उससे सीधे सवाल एयरपोर्ट अथॉरिटी, विमानन कंपनियों और उडयन विभाग पर खड़े हुए हैं। हादसे की शुरूआती रिपोर्ट बताती है कि रनवे छोटा होने के चलते हादसा हुआ। कोझिकोड एयरपोर्ट का रनवे अगर लंबा होता, तो हादसा नहीं होता? जबकि कई वर्षों से इस बात की मांग उठ रही थी कि रनवे लंबा किया जाए। कोझिकोड एयरपोर्ट का रनवे दिल्ली एयरपोर्ट के रनवे से भी छोटा है। कोझिकोड का रनवे 8800 फुट लंबा हैं, जबकि दिल्ली का 11000 फुट लंबा रनवे है।
छोटे रनवों पर बारिश में प्लेनों की लैंडिंग कराना किसी बड़े खतरे से कम नहीं होता। रनवे जब भीग जाता है तो प्लेनों के फिसलने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। दस वर्ष पहले मेंगलुरू के एयरपोर्ट पर भी कुछ ऐसा ही हादसा हुआ था। संयोग देखिए तब भी प्लेन दुबई से आया था। 22 मई 2010 को एयर इंडिया का विमान दुबई से आते वक्त रनवे को पार करते हुए पास की पहाड़ियों में जा गिरा था, जिसमें 158 लोगों की मौत हुई थी। उस हादसे से भी एयरपोर्ट अथॉरिटी ने कोई सबक नहीं सीखा। दोनों हादसे कमोबेश एक जैसे ही हैं। मेंगलुरू और कोझिकोड के दोनों हादसों के बाद भी अगर कोई सतर्कता नहीं दिखाई, तो ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हवाई यात्री असमय मौत के काल में समाते जाएंगे। कुछ वर्ष पूर्व केंद्र सरकार ने देशभर के एयरपोर्ट की सुरक्षा-समीक्षा की थीं। रिपोर्ट में सामने आया था कि कई ऐसे रनवे हैं जो बोईंग विमानों का भार झेलने के लायक नहीं हैं। बोईंग विमानों का वजन लगभग 70 से 100 टन के आसपास होता है। लैंडिंग के वक्त एकदम तेजी से इतना भार जमीन पर पड़ता है तो कम दूरी के रनवे मुकाबला नहीं कर पाते।
बारिश में छोटे रनवों की हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती है। खराब मौसम में जब ये विमान लैंड करते हैं तो रनवे पर उनके टायरों की रबड उतर जाती हैं जिससे ब्रेक लगाने के वक्त प्लेनों के फिसलने की संभावनाएं बढ़ जाती है। उसी स्थित में अगर रनवे लंबे हों, तो पायलट नियंत्रण कर लेता है, लेकिन छोटे रनवों पर दुर्घनाएं हो जाती हैं।
कोझिकोड के जिस एयरपोर्ट पर हादसा हुआ है उसके आसपास बहुत ज्यादा हरियाली है इसलिए वहां दूसरे एयपोर्टस् के मुकाबले विजिबिलिटी हमेशा कम रहती है। इसलिए उस रनवे पर हादसे की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं। इतना सबकुछ जानने के बाद भी एयरपोर्ट प्रशासन आंखमूंद कर बैठा रहता है, अगले हादसे का इंतजार करता रहता है और देखते- देखते हादसा हो भी जाता है। दस साल पहले जो हादसा हुआ था उसमें भी विमान दो हिस्सों में ऐसे ही टूट गया था।
हादसे का तरीका मौजूदा हादसे जैसा ही था। तेज बारिश में प्लेन की लैंडिंग कराना कोझिकोड रनवे पर खतरे से कम नहीं होता, फिर क्यों विमान को उतारने की इजाजत दी। मौजूदा विमान हादसे की जिÞम्मेदारी सीधे स्थानीय अथॉरिटी, प्रशासन और एयरपोर्ट अथॉरिटी आॅफ इंडिया की बनती है। जिम्मेदार टॉप अधिकारियों पर केस दर्ज होना चाहिए, हादसे में हताहत बेकसूर हवाई यात्रियों की हत्या का मुकदमा होना चाहिए। मृतकों में मुआवजा राशि बांट कर घोर लापरवाही और मुंह खोले खड़ी कमियों पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। कुछ भी हो, कोझिकोड विमान हादसे ने हवाई यात्राओं की सुरक्षाओं की विश्वसनीयता खतरे में जरूर डाल दिया है। देश हो या विदेश हर जगहों से समस-समय पर विमान दुर्घटनाओं की खबरें आती रहती हैं। हवाई हादसे अब रेल हादसों की तरह आम होते जा रहे हंै। कोझिकोड हादसा से पहले पूर्व की ज्यादातर घटनाओं में भी मानवीय व तकनीकी चूक सामने आईं है।
इसलिए अब हवाई सफर पूरी तरह से राम भरोसे हो गया है। विमान घटनाओं के बाद जब जिÞम्मेदारी लेने की बात आती है तो सरकारें ये कहकर अपना पल्लाझाड़ लेती हैं कि इसमें निजी विमान कंपनियों की हिमायत है। सीधे तौर पर सरकारें घटना की जिÞम्मेदारी अपने सिर नहीं लेती।

डॉ. रमेश ठाकुर
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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