Raktacharitr ko vikaas charitr banaana hoga! रक्तचरित्र को विकास चरित्र बनाना होगा! 

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अपनी 66 साल की जिंदगी में उसने सबसे महंगी साड़ी (तंत) 495 रुपये की और चप्पल 55 रुपये की पहनी। उसने न कभी गले में चेन डाली और न कोई जेवर। कान में छोटे टॉप्स, दायें हाथ में एक चूड़ी और बायें हाथ में घड़ी। कंधे पर सूती कपड़े का थैला। न कोई इत्र, न क्रीम-पाउडर। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की यह निर्भीक और जुझारू बेटी कई बार केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक रहीं। पिछले 10 साल से मुख्यमंत्री है। उसने न सांसद होने की पेंशन ली और न मुख्यमंत्री पद का वेतन। गेस्ट हाउस में भी खुद भुगतान करके रुकती है। अपनी किताबों की रॉयल्टी और गीतों से होने वाली आय से ही अपना खर्च चलाती है। मुख्यमंत्री आवास में नहीं, बल्कि अपने दो कमरों के घर में रहकर पियानों बजाते सर्वभारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को तीसरी बार ऐतिहासिक जीत दिलाने का जश्न मनाती है। संघर्ष और सादगी की प्रतीक ममता बनर्जी तीसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही काम में जुट गईं। 15 साल की उम्र में एनएसयूआई से राजनीतिक संघर्ष शुरू करने वाली ममता, अब दीदी हैं। वह अटल के एनडीए और सोनिया के यूपीए का हिस्सा रहीं हैं। वह तीसरे मोर्चे की अहम किरदार भी हैं। सर्वधर्म समभाव पर यकीन करती हैं, तभी उन्हें सबका साथ मिला है। आजादी के सिपाही रहे पिता को उन्होंने इलाज के अभाव में दम तोड़ते देखा था, तो मुख्यमंत्री बनते ही पश्चिम बंगाल के हर जिले में मेडिकल कालेज अस्पताल खोल दिया। इतना सब होने के बाद भी, वह वामपंथियों से दक्षिणपंथियों को विरासत में मिले “रक्तचरित्र” को नहीं बदल पाई हैं।

पश्चिम बंगाल के रक्तचरित्र से सभी वाकिफ हैं। यह कोई नई बात नहीं है। पिछले पांच दशकों से सत्ता और सियासी ताकत का अहसास कराने के लिए हत्यायें आम बात रही हैं। लोग सियासी हत्याओं के आदी हैं। वो जानते हैं कि यहां की राजनीतिक हिंसा में पिछले पांच दशकों में नौ हजार से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। अपने हक के लिए नक्सलवाड़ी में शुरु हुआ आंदोलन, इतना हिंसक बना कि उसने हत्याओं को ही आंदोलन समझ लिया। आदिवासी बाहुल तीन जिलों बांकुरा, पुरुलिया और पश्चिमी मिदनापुर को जंगल महल कहा गया। यहां के हिंसक आंदोलन ने पश्चिम बंगाल की राजनीति को रक्तचरित्र में बदल दिया। वामपंथी राजनीति के लिए यही ताकत बढ़ाने में कारगर रहा। जल, जमीन और जंगल पर अपना हक मानने वाले आदिवासियों का सियासी फायदे के लिए इस्तेमाल किया गया। उन्हें असलहे उपलब्ध कराये गये मगर विकास से अछूता रखा गया। नक्सलवाड़ी, जंगल महल और राजनीतिक गठजोड़ के चलते 1982 में 17 आनंदमार्गियों की, फिर जबरन भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले 11 कांग्रेस कार्यकर्ताओं की और नंदीग्राम में 14 किसानों की हुई हत्याओं ने राज्य को रक्तरंजित कर दिया। झालग्राम हिंसा में 265 लोग मारे गये। खूनी सियासत के चलते यहां विकास पीछे छूट गया। राज्य में सत्ता बदली और ममता सरकार ने जंगल महल में शांति कायम करने पर बल दिया। ऑपरेशन ग्रीन हंट में माओवादी पोलित ब्यूरो के किशनजी को मुठभेड़ में मारने के बाद यहां बंदूकों की आवाज बंद हुई मगर विकास का पहिया तेजी से नहीं घूमा। ममता की टीएमसी सरकार से नाराज वामपंथियों को जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो उन्होंने दक्षिणपंथियों (भाजपा) की ओर रुख किया। सीपीएम के विधायक रहे देवेंद्र नाथ राय भाजपा से विधायक बन गये मगर कुछ वक्त बाद उनका शव फंदे से लटका मिला। पुलिस ने कहा आत्महत्या है, और भाजपा उसे हत्या बताती रही।

हमारे एक मित्र राजशेखर ने हमें इस विषय पर लिखने की सलाह दी। हमने भी देखा कि लोकसभा चुनाव 2019 के साथ ही भाजपा ने पश्चिम बंगाल को अपनी प्रयोगशाला में बना लिया था। भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्या की बात उग्र तरीके से उठी। ममता दीदी का मानना रहा है कि कथित हत्यायें निजी झगड़ों के कारण हुईं, न कि सियासी। उन्होंने इन हत्याओं को, वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के गठजोड़ की साजिश बताया। रक्त की इस राजनीति में दक्षिणपंथियों को वामपंथी वोट ट्रांसफर होने का फायदा मिला। तीन विधायकों और दो सांसदों वाली भाजपा को लोकसभा चुनाव में 18 सीटें मिलने से उसका प्रयोग सफल होता दिखा। भाजपा ने विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दीं। नतीजतन हत्याओं और दंगों का क्रम पुनः शुरू हो गया। बिहार चुनाव के परिणाम आने के पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बंगाल पहुंचकर चुनावी बिगुल फूंक दिया। चुनाव की तिथियों के घोषित होने तक यहां हत्यायें आम हो गईं। भाजपा, टीएमसी पर आरोप लगाती तो टीएमसी, भाजपा पर। राजभवन भाजपा कार्यालय की तरह दिखा। साम, दाम, दंड, भेद सभी अपनाये गये। केंद्रीय मंत्रियों की फौज के अलावा 11 मुख्यमंत्री और हजारों भाजपा नेताओं की टीम यहां कैंप करने लगी। केंद्र सरकार के एक दर्जन अधिकारी यहीं कैंप करते रहे। दो मई के चुनाव नतीजों के साथ ही हिंसा फिर शुरू हो गई। हत्या, हमले और आगजनी। हालांकि इस दौरान राज्य में सत्ता राज्यपाल और चुनाव आयोग के हाथों में थी। केंद्रीय बल तैनात थे। चुनाव के दौरान सीआरपीएफ की गोली से कई नागरिक मारे गये। चुनाव नतीजे भाजपा के लिए उत्साहवर्धक हैं। वह तीन विधायकों से बढ़कर 77 विधायकों वाली सशक्त विपक्ष बन गई है। उसके लिए परेशानी यह है कि दो साल पहले मिले वोट शेयर से वह 2.5 फीसदी घट गई। उधर, ममता खुश हैं कि उन्होंने 2016 के मुकाबले अधिक सीटें और वोट पाये हैं।  

हमें कोई हैरानी नहीं हुई, जब दीदी मुख्यमंत्री पद की शपथ तीसरी बार ले रही थीं, और उसी वक्त भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा उन पर खून से सने हाथों से शपथ लेने आरोप लगा रहे थे। उन्होंने उसी समय टीएमसी के खिलाफ पूरे देश में धरना की अगुआई की। पत्रकारों को भाजपा के जिन कार्यकर्ताओं की हिंसा में मौत के फोटो दिखाये, उनमें माणिक मोइत्रा की तस्वीर बताकर इंडिया टूडे के पत्रकार अभ्रो बनर्जी की दिखा दी। भाजपा के दंगा-फसाद के आरोप को साबित करने के लिए जो वीडियो दिखाये, उनमें से कई वीडियो को पश्चिम बंगाल पुलिस ने फेक बताया है। उधर, भाजपा सांसद परवेश वर्मा ने टीएमसी को धमकी दे दी है कि उनके सांसदों, विधायकों और मुख्यमंत्री को भी दिल्ली आना होगा, वे इसे चेतावनी समझें। आपको याद होगा कि यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ सहित कई नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान धमकाया था कि दो मई के बाद टीएमसी के गुंडों को चुन चुन कर सजा देंगे। यही तो बंगाल का रक्त चरित्र है, जो वामपंथ के साथ शुरू होकर दक्षिणपंथियों में प्रवेश कर गया है। राज्य में फांसीवादी ताकतों ने नये चेहरे के साथ प्रवेश किया है, जिससे निपटना आसान तो नहीं मगर नामुमकिन भी नहीं है। 

पश्चिम बंगाल की जनता ने तीसरी बार ममता दीदी पर भारी बहुमत से यकीन किया है। अब यह उनकी महती जिम्मेदारी है कि जिस तरह उन्होंने जंगल महल और नक्सलवाड़ी की बंदूकें शांत की हैं। उसी तरह बंगाल के रक्तचरित्र को विकास चरित्र में बदलें। हिंसा चाहे वामपंथी करें या दक्षिणपंथी, सभी से सख्ती से निपटें। वह पश्चिम बंगाल को देश का सबसे खुशहाल राज्य बना सकें, इस दिशा में जुटना चाहिए, क्योंकि देश उनमें अपना नायक देखता है। शायद यही वजह थी कि उनकी जीत के लिए पूरे देश में दुआएं हो रही थीं। उन्हें रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के आदर्शों पर बंगाल को मजबूत बनाकर आगे बढ़ना होगा।

जय हिंद!

(लेखक प्रधान संपादक हैं।)

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