Personalities to institutions, affected with “virus” ! व्यक्तित्व से संस्थाएं तक “वायरस” ग्रसित!

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हम एक सप्ताह से दिल्ली में थे, जहां जाओ वायरस की चर्चा हो रही थी। सोमवार को अचानक न्यायपालिका में एक वायरस निकलने की खबर आई। देश के सर्वोच्च न्याय के मंदिर के एक मुख्य पुजारी रहे रंजन गोगोई को राष्ट्रपति ने सरकार की सिफारिश पर राज्यसभा सदस्य नामजद किया। उन्होंने गुरुवार को राज्य सभा सदस्य के रूप में शपथ ली। राज्यसभा में 250 सदस्य छह साल के लिए नियुक्त होते हैं, जिनमें 12 सदस्य कला, साहित्य और खेल क्षेत्र से लिये जाते हैं। परंपरा रही है कि जब भी कोई नया सदस्य शपथ लेता है, तो सभी सदस्य उसका स्वागत करते हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी सदस्य ने शेम-शेम के नारों के बीच शपथ ली हो। दो साल पहले तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था “यह एक मज़बूत धारणा है कि सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की कहीं अन्यत्र नियुक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक धब्बा है।” लोगों ने उनकी इस बात को उच्चतम न्यायपालिका के अनुकूल माना और तालियां पीटी थीं। वह जस्टिस जे. चेलमेश्वर की अगुआई में संवैधानिक और न्यायिक मर्यादा बचाने के लिए हुई प्रेस कांफ्रेंस का हिस्सा भी बने थे। उस प्रेस कांफ्रेंस में यह साफ हो गया था कि न्यायपालिका में इन दिनों सब ठीक नहीं चल रहा है। उसमें वायरस आ गया है, जो न मूल्यों को समझता है और न न्याय की वास्तविक परिभाषा को। यही वायरस जब विकराल हुआ तो राज्यसभा में गोगोई का स्वागत शेम-शेम जैसे शब्दों से हुआ। दो माह पहले उनके भाई पूर्व एयर मार्शल अंजन गोगोई को भी सरकार ने नार्थ ईस्टर्न काउंसिल का पूर्णकालिक सदस्य बनाया गया था, हालांकि उन्हें इस क्षेत्र में काम करने का अनुभव नहीं था। लगता है कि वायरस इतना सशक्त है कि उसने गोगोई से खुद ही बताये गये आदर्श को डिलीट करवा दिया। यह उतना ही चिंताजनक है, जितना जनप्रतिनिधियों का उन्हें चुनने वाली जनता से धोखा देकर स्वार्थ के लिए दूसरे दलों का दामन थामना।

रंजन गोगोई की नामजदगी की खबर आते ही उनका पूरा चरित्र आलोचनाओं में घिर गया। चाहे एक महिला कर्मी के यौन शोषण का मामला हो या राफेल, एनआरसी, सीबीआई बनाम सीबीआई, राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद या सीबीआई जज बीएम लोया की संदिग्ध मृत्यु मामला। उनकी अगुआई में कोलेजिएम के फैसले भी सभी तथ्यात्मक आलोचनाओं में घिरे हैं। गोगोई की नामजदगी पर उनके साथी रहे आदर्श प्रस्तुत करने वाले जजों जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस एएम शाह, जस्टिस मार्कण्डेय काटजू और जस्टिस एके पटनायक ने सरकार के इस कदम और रंजन गोगोई की पद स्वीकारोक्ति की कड़ी निंदा की है। ईमानदारी और निष्पक्षता का परिचय देते हुए जहां जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने सेवानिवृत्त के बाद गांव जाकर खेती और ग्रामीणों की सेवा शुरू की। वहीं पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर को जब आम आदमी पार्टी ने राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था। वह ईमानदारी और साफगोई के इतने पक्के थे कि अपने पिता देवीदास ठाकुर की सरकार की बर्खास्तगी के लिए प्रदर्शन की अगुआई करने से भी नहीं चूके थे। 1977 में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जस्टिस एचआर खन्ना ने इंदिरा सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए इस्तीफा दिया था। उन्होंने कहा था “अगर आपकी न्यायपालिका में कमजोर अंतरात्मा से युक्त लोग बैठे हैं, जो राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों के अधीन होने जैसा व्यवहार करते हैं, तो सबसे पहले संविधान की सर्वोच्चता को ही क्षति पहुंचती है।“ हालांकि यह लोग कांग्रेस सरकार में ही नियुक्त किये गये थे, मगर वो न्याय के प्रति वफादार रहे। न्यायपालिका में घुसे इस वायरस ने उसे दागदार करना शुरू कर दिया है।

न्याय की बात करने वाले लोग अगर गोगोई जैसे आचरण को न्यायोचित ठहराने लगें तो उसका क्या उपचार करेंगे। जस्टिस पद से सेवानिवृत्ति के चार माह में ही सरकार के प्रसाद पर्यंत पद प्राप्त करने का यह पहला मामला है। गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट देने वाले जस्टिस पी. सदाशिवम को सेवानिवृत्ति के एक साल के भीतर केरल का राज्यपाल बना दिया गया था। सत्तारूढ़ दल के समर्थक जस्टिस रंगनाथ मिश्र और अन्य जस्टिस की नियुक्ति से गोगोई की नियुक्ति की तुलना करते हैं, जबकि यह नियुक्ति उनसे बिल्कुल अलग है। भाजपा नेताओं का दावा है कि कांग्रेस ने 1984 के दिल्ली दंगों की जांच करने वाले चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र को भी राज्य सभा भेजा था। जबकि सच यह है कि जस्टिस मिश्र 1998 में चुनाव लड़कर राज्यसभा पहुंचे थे, न कि सरकार द्वारा नामांकित किये गये थे। वह आठ साल पहले 1991 में रिटायर हुए थे। राज्यसभा जाने के पहले वह राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके थे। इस पद से मुक्त होने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हुए और फिर राज्यसभा का चुनाव लड़े। एक और पूर्व चीफ जस्टिस एम हिदायतुल्ला को भारत का उपराष्ट्रपति बनाया गया था मगर रिटायर होने के नौ साल बाद। सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला जस्टिस फातिमा बीवी 1992 में रिटायर होने के पांच साल बाद 1997 में तमिलनाडु की राज्यपाल बनी थीं। जस्टिस बहरुल इस्लाम को लेकर पूर्ववर्ती सरकार घेरी जाती है, जबकि जस्टिस इस्लाम पेशे से वकील थे। वह 1962 में कांग्रेस की टिकट पर राज्यसभा जीते और दूसरे कार्यकाल के बीच 1972 में ही इस्तीफा दे दिया था। वह बाद में हाईकोर्ट के जस्टिस बने। 1980 में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पद से रिटायर होने के नौ माह बाद वह सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बने। एक फैसले पर आलोचना हुई तो नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने से भी नहीं चूके। न्यायपालिका में घुसे वायरस ने पूरी न्यायिक व्यवस्था को ही पंगु बना दिया है। यह वायरस आने के बाद न्यायपालिका दिखती है मगर उससे न्याय नहीं मिलता। आमजन इस वायरस का शिकार होकर लुटता-पिटता मौत के मुंह में चला जाता है। विशेष व्यक्तियों के लिए न्याय उनके पास चलकर आता है।

एक वायरस लोकसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश में भी फैलने लगा था। चुनाव में भाजपा की जीत और अंग्रेजी हुकूमत के वफादार रहे सिंधिया परिवार के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया की हार के साथ वह “कोरोना” बन गया। जिसने वहां जनता द्वारा चुनी गई सरकार को निजी स्वार्थ की भेंट चढ़ा दिया। संकटों से जूझ रही जनता पर 22 सीटों पर पुनर्मतदान और सरकार बनाने का खर्च आ पड़ा है। यह ऐसे वक्त में हुआ जब देश गंभीर स्वास्थ्य और आर्थिक चुनौतियों के दौर से लड़ रहा है। इस वायरस में धूर्तता सहित हर अवगुण मौजूद है। जनता रूपी डाक्टर इसका क्या इलाज करती है, यह वक्त ही बताएगा।

इस वक्त देश दुनिया के लिए संकट बना “कोरोना” वायरस, जितना खतरनाक है, उससे कहीं अधिक न्यायपालिका और लोकतंत्रिक व्यवस्था में घुसा वायरस है। कोरोना वायरस का कहर विश्व भर में बरपा है। इससे निपटने के लिए अभी कोई कारगर इलाज या वैक्सीन नहीं है। हजारों निर्दोष लोगों की जान लेने वाले इस वायरस का प्रकोप भारत में लगातार हो रहा है। भले ही इस वायरस की उम्र बेहद कम हो मगर नासमझी में लोग इसका शिकार बन रहे हैं। इससे निपटने के लिए सावधानी और सामान्य उपाय की जरूरत है, न कि डरने और डर का माहौल बनाने की। उम्मीद की जा रही थी कि केंद्र सरकार इससे निपटने के लिए नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक और शासकीय सहयोग देगी मगर ऐसा नहीं हुआ। जनता को सलाह और आदेश देने के सिवाय सरकार कुछ नहीं कर रही। दुख के साथ कहना पड़ता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने आपात भाषण में वही ज्ञान बांटा जो जनता बेहतर समझती है। उसे सरकार से मदद चाहिए बातें नहीं। प्रभावित लोगों से आईसोलेशन में रहने की बात की जा रही है मगर उन्हें जरूरी सहायता और छूट नहीं दी जा रही। अच्छा होता सरकार जरूरतमंदों को हैंडवाश, साबुन, सेनेटाइजर और मास्क बांटती। लोगों को घरों में रहने के लिए प्रेरित करने को सभी तरह के टैक्स कुछ समय के लिए माफ करती। गरीबों को राशन की व्यवस्था करती।

वायरस चाहे भ्रष्टाचार का हो या घृणा और धूर्तता का। वह चाहे जैविक हो या भौतिक या सियासी सभी को नकारना चाहिए, क्योंकि वक्त बदलता है और वह किसी को भी शिकार बना सकता है। ईमानदारी से एक मानदंड तय होना चाहिए। जो सभी पर समान रूप से लागू हो। निर्धन, बीमार-बेजार, बच्चों और वृद्धों को सेवाभाव से देखना चाहिए। जब ऐसा होने लगेगा, तब न नेतृत्व की आलोचनाएं होंगी और न सवाल उठेंगे। जैसे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व के पीछे भी जनता एकमत होकर खड़ी होती थी और समर्थन करती थी।

जयहिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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