Parliamentary investigation of Covid mismanagement required: कोविड कुप्रबंधन की संसदीय जांच जरूरी

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दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन के एक साल बाद भारत की स्थिति अधिक खराब दिखती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि न अपने यहां पर्याप्त मात्रा में जीवनरक्षक दवाएं हैं और न ही वैक्सीन के डोज भी उपलब्ध हैं। अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या भी कम पड़ गई है, आॅक्सीजन की आपूर्ति भी सीमित मात्रा में है। इस हकीकत के बावजूद कि तैयारी के लिए सरकार को एक साल से अधिक वक़्त मिला, उसने पूरी तरह चीज का प्रबंधन किया है।
जनाब जेईल बोलसोनारो, जो दक्षिणी अमेरिकी मुल्क ब्राजील के दक्षिणपंथी विचारों के राष्ट्रपति हैं, इन दिनों बेहद चिंतित दिखते हैं।  वजह साफ है, अगले साल राष्ट्रपति चुनाव होंगे और यह बहुत मुमकिन दिख रहा है कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लुला, जिन्होंने वर्ष 1980 में वर्कर्स पार्टी की स्थापना की थी- जो 2003 से 2011 तक ब्राजील के राष्ट्रपति रह चुके हैं और जो आज भी काफी लोकप्रिय हैं- वह उनके खिलाफ प्रत्याशी हो सकते हैं। वैसे फौरी तौर पर अधिक चिन्ता की बात है वह संसदीय जांच, जिसके जरिए ब्राजील की हुकूमत ने किस तरह कोविड की महामारी से निपटने की कोशिश की इसकी पड़ताल का मसला, उनके सामने आ खड़ा हुआ है।
अपने राजनीतिक विरोधियों के बढ़ते दबाव और ब्राजील में मची तबाही आदि के चलते उन्हें मजबूरन इस जांच को मंजूरी देनी पड़ी है। जांच आयोग न केवल इस मुद्दे पर गौर करेगा कि बोलसोनारो सरकार ने हाइडरोक्लोरोक्विन जैसे अप्रभावी इलाज को बढ़ावा दिया, कोरोना के बढ़ते फैलाव के बावजूद उन्होंने लॉकडाउन लगाने से इन्कार किया या शारीरिक दूरी को बनाए रखने की बात को आगे नहीं बढ़ाया बल्कि इस बात की भी पड़ताल करेगा कि आखिर साल भर के इस अंतराल में ब्राजील को तीन बार स्वास्थ्य मंत्री को क्यों बदलना पड़ा या आखिर जनवरी माह में एमेजॉन के जंगलों में स्वास्थ्य सेवाओं के चरमरा जाने की क्या वजह थी कि वहां के अस्पतालों में आॅक्सीजन खतम हुई और तमाम मरीज इसके चलते मर गए।
वैसे गार्डियन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस जांच का अहम पहलू वैक्सिनेशन की आपूर्ति का होगा जो बोलसोनारो हुकूमत के लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है, जहां यह तथ्य उजागर हो चुके हैं कि वैक्सीन आपूर्ति को लेकर उसे अलग-अलग 11 आॅफर मिलने के बावजूद बोलसोनारो सरकार ने अपनी 21 करोड़ से अधिक आबादी के टीकाकरण को लेकर कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
स्वास्थ्य कार्यकतार्ओं का स्पष्ट मानना है कि अगर इसे गंभीरता से लिया गया होता तो हजारों जानों को बचाया जा सकता था। दुनिया के सबसे मजबूत मुल्कों में से अमेरिका, जिसका संक्रमणकारी रोगों से निपटने का लंबा इतिहास रहा है, और उसके पास भी पर्याप्त वक़्त था कि जिन दिनों एशिया और यूरोप में यह संक्रमण फैला था, उन्हीं दिनों वह उससे निपटने के गंभीर उपाय करता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और अमेरिका में तबाही का आलम बना और 6 लाख अमेरिकी इसमें मर गए। हम ऐसे तमाम मौकों को याद कर सकते हैं कि किस तरह राष्ट्रपति ट्रंप ने कोविड चुनौती को कम करके आंका, और इस तरह कोविड संक्रमण के विरूद्ध लड़ाई को कमजोर ही किया। ट्रम्प की बिदाई और बाइडेन के राष्ट्रपति पद पर पहुंचने के बाद से अब अमेरिका की अंदरूनी स्थिति में काफी फर्क आया है।
इस बात में आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि जहां तक कोविड का सवाल है, ट्रंप की अगुआई में अमेरिका और मोदी की अगुआई में भारत – जो दोनों अपने  ‘असमावेशी’,  ‘ लोकरंजकवादी’ या ‘दक्षिणपंथी’ नजरिये के लिए जाने जाते हैं और बकौल मीडिया जिन दोनों के बीच ‘उत्साहित करने वाले दोस्ताना संबंध थे’  उस मामले में एक ही नाव के यात्री कहे जा सकते हैं।
हम कल्पना ही कर सकते हैं कि कोविड प्रभावित मुल्कों से हवाई यात्रा पर किसी तरह का प्रतिबंध न लगाने के चलते किस तरह विदेशों से यहां आने वाले लोगों के जरिए यहां वायरस पहुंचने दिया गया और फिर किस तरह महज चार घंटे की नोटिस पर विश्व का सबसे सख्त लॉकडाउन लगाया गया ; न राज्यों को इसके लिए विश्वास में लिया गया और न ही इसके लिए कोई तैयारी की गई। दुनिया के सबसे सख्त लॉकडाउन के एक साल बाद भारत की स्थिति अधिक खराब दिखती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि न अपने यहां पर्याप्त मात्रा में जीवनरक्षक दवाएं हैं और न ही वैक्सीन के डोज भी उपलब्ध हैं। अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या भी कम पड़ गई है, आॅक्सीजन की आपूर्ति भी सीमित मात्रा में है। इस हकीकत के बावजूद कि तैयारी के लिए सरकार को एक साल से अधिक वक़्त मिला, उसने पूरी तरह चीज का प्रबंधन किया है। भारत को लंबे समय से दुनिया की फार्मेंसी कहा जाता रहा है क्योंकि यहां से बाकी दुनिया को सस्ती दवाएं और वैक्सीन मिलते रहे हैं, अब उसका आलम यह है कि उसे खुद पड़ोसी मुल्कों से जरूरी दवाओं और अस्पताल के जरूरी सामानों का फिलवक़्त इंतजार है। जमीनी हकीकत और भाजपा के अग्रणियों के बीच बढ़ते अंतराल को इस आधार पर भी नापा जा सकता है कि विशेषज्ञों द्वारा बार-बार आगाह करते रहने के बावजूद, या संसदीय कमेटी द्वारा उसे दी गई चेतावनी के बावजूद- उसने दूसरी लहर से निपटने के लिए कोई जबरदस्त तैयारी नहीं की गई।
दुनिया के अग्रणी अखबारों ने अपने लंबे आलेखों और संपादकीयों के जरिए कोविड के इस दूसरे उभार के लिए मोदी सरकार की बेरूखी, बदइंतजामी और असम्प्रक्तता को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने ‘मानवता के खिलाफ हो रहे इन अपराधों’ के बारे में जिनका शिकार भारत के लोगों को बनाया गया है, मजबूती से लिखा है   और ‘नीतिनिर्धारण की जबरदस्त असफलता’  को बेपर्दा किया है।
कोविड से होने वाली मौतों में जबरदस्त उछाल आया है, जो इस बात से भी उजागर हो रहा है कि पुराने स्थापित स्थानों पर ही नहीं बल्कि नए नए स्थानों पर लोगों के अंतिम संस्कार करने पड़ रहे हैं, कब्रगाहों के लिए नई जमीन ढूंढनी पड़ रही है। इन अत्यधिक मौतों ने जबरदस्त बेचैनी पैदा की है। इस हाहाकार से मोदी सरकार की इमेज को जबरदस्त धक्का लगा है और दुनिया भर में उसकी थू थू हो रही है और पहली दफा यह संभावना बनी है कि मोदी सरकार ने अपने बारे में जो ‘अजेयता का आख्यान’ तैयार किया है वह बदले।
सुभाष गाताडे
(लेखक स्तंभकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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