Pandit Nehru was not in the country at the time of passing article 370: आर्टिकल 370 के पास होने के समय देश में नहीं थे पंडित नेहरु

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भारत और पाकिस्तान के बीच मतभेद जम्मू-कश्मीर को लेकर ही रहा है। यह समस्या भारत के बंटवारे के बाद आई। जब दक्षिण एशिया में दो देश भारत और पाकिस्तान अस्तित्व में आए, उस समय कुछ देसी रियासतें भी थीं जो इन नए बने दोनों देशों में शामिल हो रही थीं। पश्चिमी हिस्से सौराष्ट्र के पास जूनागढ़ इन्हीं में एक बड़ी रियासत थी। जूना गढ़ मुख्यत हिंदू आबादी वाला राज्य था। लेकिन यहां का शासक मुस्लिम नवाब महबत खान तृतीय थे।

यहां अंदरूनी सत्ता संघर्ष भी चल रहा था और मई 1947 में सिंध मुस्लिम लीग के नेता शाहनवाज भुट्टो को यहां का दीवान (प्रशासक) नियुक्त किया गया। भुट्टो मुहम्मद अली जिन्ना के करीबी थे। भुट्टो ने 16 अगस्त 1947 तक भारत या पाकिस्तान में शामिल होने पर कोई फैसला नहीं लिया। जिन्ना ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी थी। हालांकि जैसे ही आजादी की घोषणा हुई, जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ जाने का फैसला ले लिया था, जबकि पाकिस्तान ने एक महीने तक पाकिस्तान ने जवाब नहीं दिया और एक महीने बाद इसे पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा की। जबकि भारत की ओर से इसका विरोध हुआ।

बता दें कि जिन्ना की नजर कश्मीर पर थी। कहा जाता है कि जिन्ना जनते ोि कि भारत कहेगा कि जूनागढ़ के नवाब नहीं बल्कि वहां की जनता को फैसला लेने का अधिकार होना चाहिए। जब भारत ने ऐसा दावा किया, जिन्ना ने यही फामूर्ला कश्मीर में लागू करने की मांग की। अब भारत की ओर से पाकिस्तान के इरादों को नाकामयाब करने की जिम्मेदारी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार पटेल पर थी। पाकिस्तान ने 22 अक्टूबर 1947 को लगभग पांच हजार कबायलियों को कश्मीर पर कब्जा करने के लिए भेजा। वह खुद को स्वतंत्रता सेनानी कहते रहे और उनका नेतृत्व पाक सेना के छुट्टी पर गए सिपाही कर रहे थे। वह कश्मीर को अपने कब्जे में करने निकले थे। उस वक्ततक कश्मीर के राजा हरिसिंह ने निर्णय नहीं लिया था कि वह भारत के साथ आना चाहते है कि पाकिस्तान के साथ। 12 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान के साथ यथास्थिति संबधी समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया। समझौते का मतलब था कि जम्मू एवं कश्मीर किसी भी देश के साथ नहीं जाएगा, बल्कि स्वतंत्र बना रहेगा। हालांकि इसके बाद प ाकिस्तान ने कबायलियों के द्वारा कश्मीर पर हमला बोल दिया था। कबायलियों ने कश्मीर पर कब्जा शुरू कर दिया था।

राजा हरिसिंह उन लोगों से लड़ने में असमर्थ थे। ऐसे समय में जब राज्य उनके हाथ से जा रहा था, उन्होंने स्वतंत्रता की बात भुला कर भारत से मदद की गुहार लगाई। स्थिति पर 25 अक्टूबर को लॉर्ड माउंटबेटन के नेतृत्व में रक्षा समिति की बैठक हुई। गृह सचिव वीपी मेनन को कश्मीर गए और देखा हालात बहुत नाजुक थे। दो दिनों में कश्मीर पर कबायलियों का कब्जा हो जाना था। केवल भारतीय सेना ही थी जो राज्य को पाकिस्तान में जाने से बचा सकती थी। हालांकि कश्मीर तबतक स्वतंत्र था। स्वतंत्र रियासत में सेना भेजने को लेकर लॉर्ड माउंटबेटन उदासीन थे। वीपी मेनन को फिर जम्मू भेजा गया. वो सीधे महाराजा के महल पहुंचे, लेकिन पूरा महल खाली मिला, चीजें बिखरी हुई थीं. पता चला श्रीनगर से आने के बाद वो सो रहे थे। मेनन ने उन्हें जगाया और सुरक्षा समिति की बैठक में लिए गए फैसले से उन्हें अवगत कराया। महाराजा ने ‘इंस्ट्रूमेंट आॅफ एक्सेशन’ यानी भारत में शामिल होने के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया।

यहां की मुस्लिम आबादी की आवाज बने शेख अब्दुल्ला। उन्होंने आॅल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कानफेरेंस का गठन किया। बाद में इसे सेक्युलर बनाने के लिए उन्होंने 1939 में इसके नाम से मुस्लिम हटा दिया और केवल नेशनल कॉनफेरेंस नाम रखा। डॉ पीजी ज्योतिकर ने अपनी किताब ‘विजनरी डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर’ में लिखा है, “शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की मांग की थी लेकिन डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर ने साफ साफ मना कर दिया और उनसे कहा- आप चाहते हैं कि भारत आपकी रक्षा करे, सड़कें बनाए, जनता को राशन दे और इसके बावजूद भारत के पास कोई अधिकार न रहे, क्या आप यही चाहते हैं! मैं इस तरह की मांग कभी नहीं स्वीकार कर सकता.” अम्बेडकर से नाखुश शेख अब्दुल्ला नेहरू के पास गए, उस समय वो विदेशी दौरे पर जा रहे थे। इसलिए उन्होंने गोपालस्वामी अयंगर से कहा कि वो अनुच्छेद 370 तैयार करें। अयंगर उस समय बिना किसी पोर्टफोलियो के मंत्री थे। इसके अलावा वो कश्मीर के पूर्व दीवान और संविधान सभा के सदस्य भी थे। जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा में एक पूरा अध्याय ‘विभाजित कश्मीर और राष्ट्रवादी अम्बेडकर’ के विषय पर लिखा है।

मधोक अपनी किताब में लिखते हैं, “मैंने उन्हें यानी अम्बेडकर को कथित राष्ट्रवादी नेताओं से ज्यादा राष्ट्रवादी और कथित बुद्धिजीवियों से ज्यादा विद्वान पाया।” जम्मू-कश्मीर में शामिल होने के समझौता दस्तावेज (इंस्ट्रूमेंट आॅफ एक्सेशन) लेकर मेनन दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे, सरदार पटेल उनसे मिलने के लिए वहां मौजूद थे। दोनों ही वहां से सीधे सुरक्षा समिति की बैठक में पहुंचे। वहां लंबी बहस हुई और अंत में जम्मू एवं कश्मीर के शामिल होने की शर्तों को स्वीकार कर लिया गया और सेना को कश्मीर भेजा गया। उस समय ये भी फैसला हुआ था कि जब स्थिति सामान्य हो जाएगी, वहां जनमतसंग्रह कराया जाएगा। 21 नवंबर को नेहरू ने कश्मीर के संदर्भ में संसद में बयान दिया और उन्होंने जनमतसंग्रह कराए जाने के अपने वायदे को दुहराया ताकि कश्मीर के लोग संयुक्त राष्ट्र या ऐसी ही किसी एजेंसी की निगरानी में अपने भविष्य का फैसला कर सकें। ‘द स्टोरी आॅफ द इंटीग्रेशन आॅफ इंडियन स्टेट्स’ में लिखा गया है कि हालांकि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत खान ने मांग रखी कि जनमतसंग्रह से पहले भारत को अपनी सेना वापस ले लेनी चाहिए। नेहरू ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। समझौते के मुताबिक, जम्मू एवं कश्मीर को भारत का हिस्सा बनना था, विशेष दर्जे के साथ. इसके अनुसार, रक्षा, विदेश मामले और संचार को छोड़कर बाकी मामले तय करने का जम्मू एवं कश्मीर राज्य को अधिकार था। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में लिखा है कि जवाहरलाल नेहरू विदेश में थे, अक्टूबर 1949 में संविधान सभा में कश्मीर को लेकर बहस हुई, जिसमें सरदार पटेल ने अपने विचार खुद तक सीमित रखे और इसके लिए दबाव नहीं बनाया। संविधान सभा के सदस्यों में इसे लेकर विरोध था, लेकिन सरदार पटेल ने, जोकि उस समय कार्यकारी प्रधानमंत्री थे, कश्मीर को विशेष दर्ज़ा दिए जाने की मांग को स्वीकार कर लिया। यही नहीं उन्होंने उससे भी अधिक रियायतें दीं, जो नेहरू विदेश जाने से पहले उन्हें निर्देशित करके गए थे. शेख अब्दुल्ला और स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे और आजाद और गोपालस्वामी ने उनका समर्थन किया, इसलिए सरदार ने इस पर सहमति दी. आजाद, अब्दुल्ला और गोपालस्वामी नेहरू के विचार का ही प्रतिनिधित्व कर रहे थे इसलिए सरदार पटेल ने नेहरू की गैरमौजूदगी में उनका विरोध न करने का फैसला किया। कश्मीर मुद्दे पर अकेले नेहरू ने ही फैसला लिया यह सही नहीं कहा जा सकता है। अशोका विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में पढ़ाने वाले प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन मानते हैं कि ‘ये गलत धारणा है कि कश्मीर के मुद्दे पर अकेले नेहरू ने फैसला लिया.’अपने लेख में श्रीनाथ ने लिखा है, “कश्मीर को लेकर मतभेद के बावजूद नेहरू और सरदार एक साथ काम कर रहे थे।
नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच हुई सहमति के आधार पर जब अयंगर ने सरदार को एक प्रस्ताव भेजा तो उस पर एक टिप्पणी भी लिखी कि, ‘क्या आप इस पर अपनी सहमति के बारे में जवाहरलालजी को बताएंगे? आपकी इजाजत के बाद ही वो शेख अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखेंगे.’अब्दुल्ला ने संविधान के मूल अधिकार और दिशा निर्देशक सिद्धांत लागू न करने पर जोर दिया और कहा कि ये राज्य की संविधान सभा पर छोड़ देना चाहिए. सरदार पटेल इस बारे में नाखुश थे लेकिन उन्होंने गोपालस्वामी से इस पर आगे बढ़ने को कहा। उस समय तक प्रधानमंत्री नेहरू विदेश में थे। जब वो वापस लौटे, सरदार पटेल ने उन्हें एक पत्र लिखा, ‘एक लंबी बहस के बाद ही मैं पार्टी को सहमत करा सका.’श्रीनाथ ने भी इस घटना को अपनी किताब में जगह दी है और लिखा है कि ‘सरदार पटेल ही अनुच्छेद 370 के निमार्ता थे.’ राजमोहन गांधी ने अपनी किताब में लिखा है, ‘कश्मीर को लेकर भारत सरकार के कई कदमों के बारे में वल्लभभाई नाराज थे।

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