Nails are not on the road but on our chest! कीलें सड़क पर नहीं हमारी छाती पर ठुकीं हैं!

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New Delhi, Feb 01 (ANI): Police install iron nails as security tightens at Ghazipur Border during the ongoing farmer protest against the new farm laws, in New Delhi on Monday. (ANI Photo)

पॉपस्टार रिहाना ने सीएनएन के एक लेख पर टिप्पणी करते हुए किसान आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने ट्वीट किया, ‘हम किसानों के आंदोलन के बारे में बात क्यों नहीं कर रहे हैं?’ पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन पर क्रांति करने में लगीं 16 वर्षीय ग्रेटा थनबर्ग ने भी सीएनएन के इस लेख को शेयर करते हुए किसानों के आंदोलन को समर्थन दिया। हमारे देश के कुछ भक्तों ने इस पर दिल्ली पुलिस में थनबर्ग के खिलाफ एफआईआर कराई। यह जानकारी मिलने के बाद उन्होंने एक और ट्वीट कर कहा कि वह अपने बयान पर कायम हैं। किसान आंदोलन का समर्थन करती रहेंगी। इसी बीच भारतीय मूल की अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस ने भी कहा कि सभी को भारत में इंटरनेट के बंद होने और किसान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अर्धसैनिक बलों की हिंसा से नाराज होना चाहिए। उन्होंने लिखा कि दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र पर हमला हुआ है। अमेरिकी प्रतिनिधि जिम अकोस्टा, ब्रिटिश सांसद क्लॉडिया वेब, कार्यकर्ता जेमी मार्गोलिन और अभिनेता जॉन कुसक ने भी किसान आंदोलन के प्रति समर्थन जताया है। इसके बाद तो दुनियाभर की तमाम हस्तियों ने भारतीय किसानों के आंदोलन के पक्ष में आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया। जब केंद्र सरकार के अधीन दिल्ली पुलिस ने अपनी सीमाओं पर सड़कों पर कीलें गाड़ीं और कंक्रीट के ब्रिज बनाकर अपने ही किसानों को घेरने की कोशिश की, तब ये प्रतिक्रियायें सामने आई हैं। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने रिहाना के निजी ट्वीट पर हड़बड़ा कर टिप्पणी कर दी। विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा, ‘सनसनीखेज सोशल मीडिया हैशटैग और कमेंट्स से लुभाने का तरीका, खासकर जब मशहूर हस्तियों और अन्य लोगों द्वारा किया गया हो तो यह न तो सटीक है और न ही जिम्मेदाराना है।

देश के इतिहास में कभी किसी निजी टिप्पणी पर सरकार बयान जारी नहीं करती थी मगर दुनिया भर में ट्वीटर पर चौथे नंबर पर सबसे अधिक फॉलोवर वाली रिहाना के ट्वीट पर भारत सरकार की टिप्पणी और उन्हें ट्रोल किये जाने पर अमेरिकी सरकार भी चुप नहीं बैठी। उसने भी टिप्पणी का कड़ा जवाब दिया, जो देश को शर्मिंदा करने वाला है। भारत में अमेरिकी दूतावास ने कहा, ‘ये निजी लोगों के अपने विचार हैं। हम निजी लोगों के विचारों पर टिप्पणी नहीं कर सकते हैं’। अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट ने कहा, ‘हमारा मानना है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन किसी भी जीवित लोकतंत्र की निशानी होती है, जो भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है’। सभी पक्षकारों को मिलकर इसका समाधान निकालना चाहिए। हमारा मानना है कि सूचनाओं का निर्बाध प्रवाह, जिसमें इंटरनेट भी शामिल है, अभिव्यक्ति की आजादी का अभिन्न अंग है। जीवित लोकतंत्र का हॉलमार्क है’। कांग्रेस पार्टी के अगुआ राहुल गांधी ने कहा, ‘सबसे पहला सवाल यह है कि सरकार किलेबंदी क्यों कर रही है? क्या ये किसानों से डरते हैं? क्या किसान दुश्मन हैं? किसान देश की ताकत है। इनको मारना, धमकाना सरकार का काम नहीं है। सरकार का काम बातचीत करना और समस्याओं का समाधान निकालना है’। गांधीवादी तरीके से ढाई महीने से चल रहे इस शांतिपूर्ण किसान आंदोलन को देश में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी समर्थन मिल रहा है। मगर अपने ही देश की सरकार पुलिस से उनके रास्तों में कीलें गड़वा रही है। जिसको लेकर किसानों का मानना है कि धरती हमारी माता है और इस पर इस तरह कीलें गाड़ना हमारी छाती पर कील ठोकने जैसा है। पाकिस्तान और चीन की सीमा पर ऐसी कीलें गाड़ने की सरकार ने हिम्मत क्यों नहीं दिखाई?

किसानों के साथ होते अन्याय और सरकारी तानाशाही के खिलाफ कांग्रेस की अगुआई में 14 विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार किया मगर राष्ट्रपति से लेकर अदने से मंत्री तक ने किसानों का दर्द समझने की कोशिश नहीं की। मजबूरन किसानों ने छह फरवरी को देशभर में तीन घंटे का चक्का जाम किया, जिसे व्यापक समर्थन हासिल हुआ। हालांकि, सरकार ने पुलिसराज का इस्तेमाल करके उसे दबाने का भरपूर प्रयास किया। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सरकार किसानों से बातचीत का सिलसिला ख़त्म नहीं करना चाहती है। वह किसानों की बात सुनने के लिए सिर्फ़ एक फ़ोन कॉल की दूरी पर हैं। जिस दिन मोदी ने यह बता कही, उसी के अगले दिन से किसान आंदोलन स्थलों के आसपास बड़े दायरे में इंटरनेट सेवाएं निलंबित कर दी गईं। नेटवर्क फेल हो गया और पत्रकारों को भी वहां जाने से रोक दिया गया। यही हाल 26 जनवरी को हुआ था। किसान यूं ही आईटीओ और लाल किले पर नहीं पहुंचे थे बल्कि पुलिस ने पूर्व में तय रूट को बार-बार बदलकर किसानों को वहां पहुंचने के लिए विवश किया था। जब किसानों ने प्रतिरोध किया, तो उनके ऊपर बल प्रयोग किया गया। नतीजा, प्रतिक्रिया स्वरूप हिंसक माहौल बनाने के लिए पर्याप्त रहा। इसी दौरान मुख्य धारा के मीडिया के एक बड़े वर्ग और कर्मियों ने सरकारी तंत्र के साथ मिलकर किसानों को बदनाम करने और आंदोलन टूट जाने का प्रपोगंडा किया। यह भी इस जनांदोलन की छाती पर कील गाड़ने जैसा रहा। यही कारण है कि किसानों के साथ ही देश की एक बड़ी आबादी ने न्यूज चैनलों और अखबारों से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। वह परंपरागत मीडिया से हटकर सोशल मीडिया और स्वतंत्र यूट्यूब चैनलों पर अधिक यकीन कर रहा है। न्यायिक खामोशी भी चिंता का विषय बनी हुई है।

केंद्र सरकार ने जो बजट पेश किया, उससे भी किसानों को निराशा हाथ लगी है। किसानी के बजट में छह फीसदी कटौती की गई है। ग्रामीण विकास के धन में भी कटौती की गई है। रोजगार सृजन की दिशा में भी सरकार ने कोई समर्थक व्यवस्था नहीं की। बढ़ती बेरोजगारी और किसानी पर संकट के कारण युवा पीढ़ी निराशा के दौर में है। जो लोग उन्नत खेती के जरिए रोजगार बढ़ाने की कोशिश में जुटे थे, उनकी हालत भी बिगड़ी है। तीनों कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन अब दिल्ली की सीमाओं, हरियाणा-पंजाब तक ही सीमित नहीं रह गये हैं। इसका दायरा बढ़कर तमाम जिलों कस्बों तक पहुंच गया है। चंडीगढ़ के हर चौक पर रोजाना छात्र-छात्राओं से लेकर कर्मचारियों और वकीलों तक ने प्रदर्शन का क्रम बना दिया है। सरकारी स्तर पर इसे जितना दबाया जा रहा है, वह उसी तेजी से बढ़ रहा है। अब इसे हर वर्ग का समर्थन भी मिलने लगा है। एक दर्जन किसान महापंचायतें हो चुकी हैं और इतनी ही प्रस्तावित हैं। हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी और उत्तराखंड के तमाम गांवों में सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं के घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इन आंदोलनों की चर्चा हर चौपाल पर हो रही है। इसमें सबसे खास यह है कि हर वर्ग, जाति और धर्म के लोग मिलकर किसानों की लड़ाई को समर्थन और मदद दे रहे हैं।

आजादी के बाद यह पहला आंदोलन है, जो सत्ता के साथ ही मीडिया प्रपोगंडा से भी लड़ रहा है। जो उसकी छाती पर घाव करने से नहीं चूक रहे। 200 से अधिक किसान इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं। सरकार उनसे कोई संवेदना भी नहीं रखती है। पूर्व सिविल सर्वेन्ट्स के एक समूह ने भी केंद्र सरकार को खुला खत लिखकर आंदोलन पर केंद्र सरकार के रवैये की आलोचना की है। उन्होंने लिखा है, कि ‘किसान प्रदर्शन के प्रति सरकार का रवैया विरोधात्मक और टकराव भरा रहा है। अगर भारत सरकार सच में सौहार्दपूर्ण समाधान चाहती है, तो आधे-अधूरे मन से 18 महीनों के लिए कानूनों को रोकने जैसे प्रस्ताव करने की बजाय कानूनों को वापस ले और अन्य संभावित समाधानों के बारे में सोचे। सरकार को हठधर्मी का शिकार नहीं होना चाहिए, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। कई पूर्व जजों ने न्यायिक चुप्पी पर भी सवाल उठाये हैं।

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)

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