Market and social relations! बाजार और सामाजिक संबंध!

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बाजार अब हमारे घर में घुस चुका है। हम बाजार से आकर्षित होते हैं और बाजार को अपने घर बुलाने लगते हैं। बाजार पहले भी घर में मौजूद था किंतु सोवियत संघ के विघटन और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह की टोली ने इसे बढ़ावा दिया। अब तो हालात ये हैं, कि बाजार हमें ही घर से बेदखल कर रहा है। और हम घर फूँक तमाशा देखने की स्थिति में हैं। इसीलिए अब महँगाई पर चर्चा नहीं होती, कोई सड़क पर नहीं उतरता, किसी को कोई बिलबिलाहट नहीं होती। सबको पता है, कि ईंधन के दाम बढ़ने से हर चीज को आग लग जाएगी लेकिन किसी भी राजनेता ने इस पर सिवाय ट्वीट करने के और कुछ नहीं किया यानी विरोध प्रदर्शन के लिए भी बाजार। दूध की कीमते एक मार्च से बढ़ने की आशंका है। और इसके विरोध में कोई विरोधी दल खड़ा होने की दम नहीं भर रहा। मजे की बात कि दूध की कीमतें बढ़ने का कोई कारण नहीं है।
कोरोना के भय से मिठाई की दूकानों पर सन्नाटा है फिर यह दूध कहाँ जाता है। लेकिन अकूत मुनाफा कमाने को आतुर कंपनियाँ हर तरह के छल, छद्म पर उतारू हैं। व्यवस्था ऐसी कम्पनियों का पोषण करती है। वह देख रही है कि जब व्यक्ति किसी भी वृद्धि पर आपत्ति नहीं कर रहा, तो जो चाहो सो करो। कोई रोक-टोक करने वाला नहीं। बाजार के लिए यह बहुत मजे की स्थिति होती है। लोकतंत्र में जब विपक्ष विरोध की पहल न करे तो मान लीजिए कि उसने विपक्ष में बैठना अपनी नियति मान लिया है। यह स्थिति जनता के लिए दुखद है। पूँजीवादी लोकतंत्र खुली अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा देता है। यह किसी कम आबादी वाले देश के लिए तो सही हो सकता है किंतु इतनी विशाल आबादी वाले देश के लिए बहुत घातक होता है। इसके चलते एक विशाल मध्यवर्ग तथा किसान व मजदूर अपने-अपने अधिकारों से वंचित हो जाते हैं।
वे एक मशीनी जिÞंदगी जीने को विवश हो जाते हैं और व्यवस्था को यह सूट करता है। आज देश की स्थिति खराब होती जा रही है। मगर अंधश्रद्धा और धार्मिक उन्माद में डूबे समाज को निज के कष्ट कम लगते हैं। वह एक थोथे आत्म-गौरव में डूबा है। उसे लगता है कि महँगाई का तो काम ही है बढ़ना। महँगाई नहीं बढ़ेगी तो देश विकास कैसे करेगा? बहुत-से मध्य वर्गीय लोग तर्क देते हैं, कि महँगी कारें, महँगे मोबाइल और विलासिता की सामग्री तो लोग खरीद ही रहे हैं फिर कैसे माना जाए कि लोग महँगाई से त्रस्त हैं। वे गाँवों या छोटे शहरों में रह रहे लोगों को काहिल और नाकारा समझते हैं। वहाँ से हो रहे पलायन को मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति मानते हैं। उनको समझ नहीं आता कि गरीबों की जिÞंदगी कितनी पीड़ादायी हो गई है। बड़े शहरों के फुटपाथों और सब-वे पर जिÞंदगी काट रहे लोगों की वे अनदेखी कर देते हैं। किंतु वे यह नहीं समझ रहे कि बाजार जब फैलता है तो वह गरीबों को ही नहीं धीरे-धीरे मध्य वर्ग को भी जकड़ लेता है। वह दिन दूर नहीं जब यह शहरी मध्य वर्ग खुद भी फुटपाथ पर जिÞंदगी गुजारने को विवश हो जाएगा।
इसको जितनी जल्दी समझा जाए उतना ही बेहतर। इस चीज पर भी गौर किया जाए कि आखिर बाजार हमारे घर में घुसा कैसे। आजादी के बाद जो संविधान बना, उसमें बेलगाम बाजार को दूर ही रखने की कोशिश की गई थी। यूँ भी पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू में गांधीवादी सहजता व सरलता थी तथा समाजवादी रुझान भी। तब भला कैसे बाजार को खेलने की अनुमति दी जाती। इसीलिए किसानों और मजदूरों के लिए कई कानून केंद्र सरकार ने बनाए थे, ताकि राज्य सरकारें बेलगाम न हो सकें।
इंदिरा गांधी का अपना झुकाव सोवियत संघ की तरफ था, मगर उनके समय से ही मजदूर कानूनों से छेड़छाड़ होने लगी और ज्यादातर कारखाने इसी काल में बंद हुए। मजदूर-यूनियनों पर इंटक या कुछ स्वतंत्र माफिया टाइप नेताओं ने कब्जा किया और इन लोगों ने प्रबंधन के साथ सौदेबाजी की नई परंपरा शुरू की। मिल मालिक अपनी पुरानी हो चुकी मिलों को बंद करने की फिराक में थे। शहर के भीतर आ चुकी इन मिलों की जमीन का भू-उपयोग बदलवा कर उनके व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए मिल मालिक सत्तारूढ़ दल के नेताओं को पैसा देने लगे। मिलें बंद हो जाने से कारखाना मजदूर बेकार हो गए। उनके समक्ष दो ही विकल्प थे, अपने गाँव लौट जाएँ या किसी बड़े शहर की राह पकड़ें। बड़े शहरों में स्थिति कोई भिन्न नहीं थी।
इसलिए संगठित क्षेत्र का यह मजदूर दिहाड़ी का काम करने लगा। जिसमें मजदूरी न के बराबर थी और सरकारी सुविधाएँ शून्य। संगठित क्षेत्र का मजदूर होने के नाते उसे कर्मचारी राज्य बीमा निगम की स्वास्थ्य सेवाएँ, राज्यों के श्रम विभाग से आवंटित क्वार्टर आदि सब कुछ मिलता था। मगर बड़े शहरों में आकर वह फुटपाथ पर जिÞंदगी गुजारने को मजबूर हो गया। उधर छोटी होती कृषि जोतों और परिवार के विस्तार के चलते लाखों लोगों का पलायन प्रति वर्ष होता है। ये सब मजदूर शहर आकर पूँजीपतियों को आराम पहुँचाने लगे। मजदूरों के आधिक्य के चलते उनको सस्ती लेबर मिलने लगी। यहाँ तक कि ड्राइवरी, प्लंबरी और इलेक्ट्रीशियन जैसे कौशल के कामों के लिए मजदूर बहुत सस्ते मिल जाते। और यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, बल्कि निजी क्षेत्र में चल रहे स्कूल के अध्यापकों की स्थिति भी ऐसी हो गई। यानी एक तरह से बाजार ने मिडिल क्लास को अपना गुलाम बना लिया। इंदिरा गांधी के समय शुरू हुई यह लूट अटल बिहारी के समय खुल कर खेली जाने लगी। सरकारी कम्पनियों को विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्रों को सौंपा जाने लगा। इसी की चरम परिणिति है आज का निजाम। आप लोगों को याद होगा कि अटल बिहारी की एनडीए सरकार की इन नीतियों का विरोध भारतीय मजदूर संघ (आरएसएस का संगठन) के नेता भी करते थे। किंतु आज तो कोई विरोध करने वाला भी नहीं है और बाजार हमें ही हमारे घर से बाहर कर रहा है। और हम विरोध तक नहीं कर पा रहे।
किसी भी देश में सिर्फ़ मिडिल क्लास ही विरोध के लिए आगे बढ़ता है। परंतु भारत का मिडिल क्लास अभी सत्ता-मद में चूर है। उसे कारपोरेट की नौकरियाँ लुभाती हैं। और ये नौकरियाँ पाने के लिए वह हर तरह का समझौता करता है। देश की समस्याओं को समझने की उसमें कूवत नहीं है। वह न्यूज और व्यूज से बेखबर है। उसको सिर्फ़ अपने करियर की चिंता है। और जो लोवर मिडिल क्लास है वह धर्म के उन्माद में डूबा है। नतीजा यह है कि महँगाई बढ़ती है, बढ़ने दो। नौकरियाँ खत्म हो रही हैं, खत्म होने दो। उसे बस अपनी चिंता है। लेकिन एक जब तक निजाम कल्याणकारी नहीं बनता, सामाजिक नहीं बनता तब तक लूट-खसोट और निजी लाभ के लिए चल रहे खेल को रोका नहीं जा सकता। सच बात तो यह है कि भारत में पढ़ा-लिखा बौद्धिक मिडिल क्लास कॉफी हाउसों या क्लबों में जाकर बस बहस करता है। मौजूदा खामियों के लिए शासन की लानत-मलामत करता है और फिर ट्वीट कर सो जाता है। विरोधी दलों के नेता भी यही करते हैं। आखिर वे सब इस लूट में हिस्सेदार जो रहे हैं। उन्हें लगता है, कभी जब उनकी सरकार आएगी तब लूट का ऐसा खेल खेलने के लिए उन्हें नजरें नहीं चुरानी पड़ेंगी। तब वे कह सकते हैं कि यह तो सनातन परंपरा है। उधर बिना पढ़ा-लिखा मिडिल क्लास इसमें खुश है कि हमने चीन को हड़काया हुआ है।
पाकिस्तान हमसे डरता है और आज विश्व में हमारा डंका बज रहा है।  जब तक मिडिल क्लास इसी तरह सोता रहेगा, कुछ नहीं हो सकता। उसे बढ़ती महँगाई, कुछ हाथों तक पहुँचती अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होना पड़ेगा। वह खड़ा होगा तो उससे छोटा आदमी भी आ जाएगा। उसे भी पता चल जाएगा, कि खोखला घमंड या गर्व की अनुभूति से रोटी नहीं मिलती। हमारा देश तब सिरमौर होगा जब हम आत्म निर्भर होंगे। हमारे यहाँ से पलायन रुकेगा। रोजी-रोटी के लिए लोग परदेश जाना बंद कर देंगे। अभी तो हमारी स्थिति एक लेबर सप्लायर देश की बनी हुई है। भले वह लेबर स्किल्ड हो या अनस्किल्ड। यह स्थिति तब ही बदलेगी जब हम गलत बात का विरोध करना सीखें। महँगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याओं को समझें। अन्यथा बाजार हमारे घर में घुसता रहेगा और हमारी सामाजिकता को नष्ट करता जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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