Journalists became a legend in the Corona era: कोरोना काल में काल कवलित होते पत्रकार

0
335

यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य होना चाहिए कि कोरोना महामारी से सीधी भिडंत समाज के तीन जनों को है। डाक्टर(अन्य स्वास्थयकर्मी के साथ) पुलिस और पत्रकार।
डाक्टर हमारी पहली जरूरत हैं। यह अपने अन्य सहकर्मियों की मदद से मरीजों को संभालने और उन्हें बेहतर करने के लिए दिन-रात मिहनत कर रहे हैं। इनके काम करने की कोई तय समय सीमा नहीं है। हर कोई इनके काम की सराहना करते हुए इनके सामने नतमस्तक है। इन्हीं खूबियों के कारण ही इन्हें भगवान का दर्जा प्राप्त है। बावजूद इसके डाक्टर हर रोज मरीजों के परिजनों के साथ-साथ शासन और सरकार के निशाने पर हैं।
हाथापाई, मार पिटायी से लेकर पिछले करीब डेढ वर्षों से बिना छुट्टी लिए अपनी और परिवार की पीड़ा झेल रहे हैं। दूसरी सबसे बड़ी भूमिका पुलिस विभाग की है। अधिकांश भारतीय आदतन नियमतोड़ और आत्मानुशासन से हीन होते हुए सीना तानकर चलने में विश्वास करते हैं।
जाहिर है, इन्हें लाइन पर लाकर राइट टाइम करने के लिए पुलिस को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। यहां ध्यान रहे, मैं सिविल मजिस्ट्रेट की बात नहीं कर रहा हूं जो अक्सर चैम्बर नहीं रहने की स्थिति में किसी छायेदार पेड़ के नीचे अपनी कुर्सी लगाकर केवल रोब झाड़ने का इकलौता काम करते हैं। मुख्य जवाबदेही वदीर्धारी पुलिसकर्मियों(अधिकारी सहित) को मैंदान में सामने से असंख्य मुर्खों से जूझना पड़ता है।
आप सोच सकते हैं कि यदि हम अनुशासित होते तो सख्त लॉक डाउन की जरूरत ही क्यों आन पड़ती, यह एक बड़ा सवाल है। तीसरा प्लेयर जो सीधे तौर पर कोरोना महामारी से आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहा है- वो है पत्रकार विरादरी के लोग। कुछ मायनों में ऊपर वर्णित दोनों से अधिक घातक कदम उठाते हुए अपनी डयूटी को अंजाम देने में जुटे हुए हैं।
फर्ज कीजिए, श्मसान घाट हो या कब्रिस्तान की जमीनी सचित्र कवरेज के लिए तो पत्रकार ही जाएंगे जहां इस महामारी की संक्रमण की आशंका सबसे ज्यादा है। पिछले दिनों संपन्न विधानसभा चुनाव में आयोजित रैलियों में उमड़ी भीड़, जिसमें संक्रमित भी शामिल होंगे, को पत्रकार अपनी जान हथेली पर रखकर कवर किया। परिणाम क्या हुआ, अधिकांश पत्रकार संक्रमित हुए। आज भी कई ईलाजरत हैं तो कई अपना जीवन गंवा बैठे।
इस सन्दर्भ में दो नाम जो तुरंत जेहन में आता है, वो हैं- रोहित सरदाना और अरूण पाण्डेय। इन दोनों नामचीन पत्रकारों को कोरोना रूपी जान लेवा प्रसाद बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान ही मिला। दोनों ने जमीनी हकीकत को परखने के लिए दिलचस्प बन चुकी इस चुनावी दंगल में सशरीर उपस्थित होना जरूरी समझा। नतीजा सामने है। दोनों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ी। मेरा मकसद इस कोरोना महामारी के संघर्ष में दो अन्य पहलवानों(चिकित्सक और पुलिस) को कमतर आंकना कतई नहीं है। मगर कुछ अन्तर जरूर है जिसकी चर्चा करना ही मेरा मकसद है। डाक्टर चिकित्सा विधा के मास्टर होने के नाते तमाम वैसे ऐहतियात बरतने को प्राथमिकता देते हुए खुद को कम से कम संक्रमित होने की कोशिश करते हैं। वो बेहतर जानते हैं कि कैसे खुद को बचाया जा सकता है। अधिकांश मामलों में उन्हें इनडोर वातावरण में काम करना होता है। बेशक वो 247 काम करते हैं लेकिन उन्हें खुद की जान बचाने के लिए मेडिकल ज्ञान के आधार पर तय लक्ष्मण रेखा की जानकारी होती है जिसे वो हरगिज नहीं पार करते हैं(करना भी नहीं चाहिए)।
यदि डाक्टर संक्रमित होते भी हैं तो वो अपना इलाज शुरूआत से ही बेहतर तरीके से कर सकने में सक्षम होते हैं। इस खेल का दूसरा खिलाड़ी पुलिसकर्मी हैं। यह मान्य सत्य है कि यह वर्ग शारीरिक रूप से ज्यदा मजबूत, सख्त और विपरीत परिस्थितियों को झेलने में सक्षम होते हैं। उन्हें इस तरह की ट्रेनिंग भी दी जाती है। पुलिस बंधु अक्सर ऐसे हालातों से पूर्व परिचित और झेल चुके होते हैं। ऐसे में, कोरोना उन्हें ज्यादा नहीं बिगाड़ पाता है। इस खतरनाक खेल में शामिल तीसरा प्लेयर जिसे प्रजातंत्र में चौथा खंभा कहा जाता है, मन से ही अपने आप को ह्यगामाह्ण मान बैठा है। पत्रकार विरादरी के लोग मेरी इस बात से सहमत होंगे कि अधिकांश पत्रकार(खासकर युवा) अपनी झूठी ठसक में जीता है। कुछ ठसक और गुमान तो पत्रकारिता की जरूरत भी है, मगर जब हम संयम खोते हैं तो जान पर बन आती है।
(लेखक  वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

SHARE