Saamana Sampadakiy : Isn’t it provocative ?, from Pandit Nehru to Modi! सामना संपादकीय: यह उकसाना नहीं है क्या?, पंडित नेहरू से मोदी तक!

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अब यह स्पष्ट हो चुका है कि चीनी बंदरों ने हिंदुस्थानी सैनिकों को बड़ी बेरहमी से मार डाला। क्या चीनी नरभक्षी हैं, ये कहा नहीं जा सकता। लेकिन कोरोना वायरस का पैष्ठलाव चीन के मछली-मांस बाजार से पैष्ठला। जब वहां खोज की गई तब पता चला कि चीनी लोगों का खाना कुछ ऐसा है कि नरभक्षी भी शरमा जाएं। चीन के लोग चमगादड़, छिपकली, तिलचट्टे, अजगर, सांप, मगरमच्छ, कुत्ते,भेड़िये आदि जंगली पशु-पक्षी चटकारे लेकर खा जाते हैं। यही कारण है कि क्रूरता उनकी नस-नस में भरी हुई है। चीनी सैनिकों ने गलवान घाटी में हमारे सैनिकों को घेर लिया, अपहरण किया और कंटीले डंडों से बेरहमी से पीटा। हिंदुस्थान के सैनिक असावधान थे और चीनी सैनिकों ने अचानक हमला कर दिया। इसके पहले पाकिस्तानी सैनिक कश्मीर में हमारे सैनिकों के सिर काट कर ले गए थे। तब हम सब चिल्ला रहे थे कि हम एक की बजाय दस सिर लाएंगे। सौरभ कालिया के मामले को भुलाया नहीं जा सकता। हमारे सैनिकों को बांग्लादेश सीमा पर भी इसी अमानवीय तरीके से मारा गया था। अब चीनी बंदरों ने हमारे २० सैनिकों को बहुत ही क्रूरता से मार डाला। १५० से अधिक सैनिक गंभीर रूप से घायल हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने अब जल्दबाजी में सर्वदलीय बैठक बुलाई है। मोदी ने पहले दिल्ली से कहा था, हिंदुस्थान अखंडता पर कभी समझौता नहीं करेगा। अगर कोई हमें उकसाने की कोशिश करता है, तो हम उसे सही जवाब देंगे! प्रधानमंत्री यह भी कह रहे हैं, हिंदुस्थान अपने आत्मसम्मान और एक-एक इंच जमीन की रक्षा करेगा।  मोदी कहते हैं, उकसाने पर माकूल जवाब देंगे। २० जवानों को बड़ी निर्ममता से शहीद कर दिया गया। ये उकसाना नहीं तो और क्या है? अन्य स्वाभिमानी देश अपने सैनिक पर हमले को देश के स्वाभिमान पर हमला मानकर जवाबी कार्रवाई करते हैं। इसलिए चीनियों ने हमारे २० सैनिकों को मार दिया, यह उकसाना ही है। आत्मसम्मान और अखंडता पर यह सबसे बड़ा हमला है। २० सैनिकों का ताबूतों में आना कोई स्वाभिमान या गर्व की बात नहीं है। अब कहा जा रहा है कि हमारे सैनिकों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। यही हमारी परंपरा है। लेकिन चीनी सेना का हमला १९६२ जितना ही भयानक और जानलेवा है। चीन को मुंहतोड़ जवाब देने की बात तब भी बोली गई थी और अब भी। लेकिन हम केवल पाकिस्तान को धमकी दे सकते हैं। हम इस भ्रम से देश को कैसे मुक्त कर पाएंगे कि हम चीन से निपटने में असमर्थ हैं? ट्रंप, जिनके लिए मोदी चीन से भिड़ गए हैं, कहा जा रहा है कि वे व्हाइट हाउस में बैठकर हिंदुस्थान-चीन के तनाव पर नजर रखे हुए हैं। इससे क्या होगा? पाकिस्तान से १९७१ में युद्ध हुआ और यह बात सामने आई कि अमेरिका, पाकिस्तान की मदद कर रहा है। तब रूस ने इंदिरा गांधी की मदद करने के लिए अपना सातवां बेड़ा भेजा। इसके साथ ही अमेरिका पीछे हट गया। क्या प्रे. ट्रंप अपने दोस्त मोदी की मदद के लिए कुछ ऐसी ताकत भेजेंगे? हमें चीन से इस युद्ध को खुद लड़ना होगा और उसके अनुसार खुद को तैयार करना होगा। चीन को सबक सिखाने के लिए सीमा पर मुस्तैदी ठीक है। वायु सेना भी तैनात। टैंक आदि भी यथावत रहेंगे ही, लेकिन चीन को वित्तीय संकट में डालना कुछ हद तक निश्चित रूप से संभव है। चीन से हमारे देश में आनेवाले हजारों सामानों का बहिष्कार किया जाना चाहिए। लेकिन यह स्वदेशी जागरूकता जनता को दिखानी चाहिए। हालांकि हिंदुस्थान में पैष्ठली कई चीनी कंपनियों का आप क्या करनेवाले हो? अगर किसी चीनी कंपनी को महाराष्ट्र से निर्वासित किया तो कोई अन्य राज्य उसके साथ समझौता कर सकता है। इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि हिंदुस्थान चीनी कंपनियों को लेकर राष्ट्रीय नीति तैयार करे। दोनों देशों में ६ लाख करोड़ रुपए का व्यापार होता है। निवेश और रोजगार दोनों ही हैं, लेकिन चीन को सबसे ज्यादा फायदा होता है। दोनों देशों के बीच अच्छा रिश्ता बन रहा था जोकि अमेरिका के कारण खराब हो गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन हमारा सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी है। पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश हिंदुस्थान को तवज्जो नहीं देते। हिंदुस्थान-अमेरिका की दोस्ती शुरू होने से चीन जैसा राष्ट्र पीछे हट जाएगा, ऐसा बिल्कुल नहीं है। जब मोदी प्रधानमंत्री बने तो वे पूरी दुनिया में गए। लेकिन रूस और इजराइल जैसे देशों ने भी चीन के साथ संघर्ष में हिंदुस्थान का पक्ष नहीं लिया। उनका संदेश है कि अपने मतभेदों को आपस में मिलकर सुलझाएं। किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति उसके पड़ोसियों के प्रति उसकी नीतियों से ही निर्धारित होती है। हमें चीन और पाकिस्तान की नीतियों को ध्यान में रखकर ही अपनी विदेश नीति की दिशा निर्धारित करनी चाहिए। क्योंकि ये दोनों राष्ट्र हिंदुस्थान से खिलाफत के मुद्दे पर एक हो गए हैं। इसलिए हमें यह ध्यान रखना होगा कि अगर इन देशों में से किसी एक के साथ भी संघर्ष होता है,तो हमें इन दोनों के खिलाफ लड़ना होगा। हम अपने रक्षा कौशल को कितना भी बढ़ा लें, लेकिन एक ही समय में दो मोर्चों पर लड़ना संभव नहीं हो पाएगा। हम रक्षा और विदेशी मामलों के दो महत्वपूर्ण विभागों के बीच अविभाज्य संबंध को भूल गए और अक्टूबर १९६२ में हमें चीन के एक झटके से अपमानित होना पड़ा। हम उस गलती का ठीकरा पंडित नेहरू पर फोड़ते रहे। लेकिन आज के शासकों ने उस गलती से कोई सीख ली है, ऐसा नहीं लगता। रक्षा और विदेश नीति में वैसी ही मनमानी करके हमने अपने २० सैनिकों को खो दिया और चीन को भी चुनौती दे दी। नेहरू के काल में हमारे सैनिक चीन से लड़ते समय विषम परिस्थितियों से जूझ रहे थे। साधारण वैष्ठनवास के जूते, हथियारों और गोला बारूद की कमी, अपरिचित क्षेत्र की स्थिति थी। आज सबकुछ है, लेकिन फिर भी चीनियों ने हमारे सैनिकों की क्रूरता से जान ले ली। अगर पंडित नेहरू को दोष देनेवाले आत्मपरीक्षण कर लें तो भी २० सैनिकों का बलिदान सार्थक हो जाएगा!

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