Is anyone taking credit for the plight of the workers?  है कोई श्रमिकों की ‘दुर्दशा का भी श्रेय’ लेने वाला?

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राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक वर्ष पूरा हो चुका  है। केंद्र सरकार जश्न के मूड में डूबी हुई है। जश्न संबंधी अनेक आयोजनों के भी समाचार हैं। देश के अनेक समाचार पत्रों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित केंद्र सरकार के अनेक वरिष्ठ मंत्रियों व समर्थकों ने अपने अपने आलेखों के द्वारा मोदी सरकार 2 की ‘कारगुजारियों’ का उल्लेख किया है। भारतीय राजनीति में नेताओं को कुछ आए या न आए परन्तु यह हुनर कम-ो-बेश प्रत्येक दलों के नेताओं को बखूबी आता है कि किसी जनहितकारी सरकारी योजना के बनाने से लेकर उसे लागू करने तक का भरपूर ‘श्रेय’ बढ़ा चढ़ाकर कैसे लिया जाए। इसके अलावा भी जिन उपलब्धियों से इनका कोई भी लेना देना न हो उसके बावजूद उनका भी ‘श्रेय झटकने’ की कला इन्हें बखूबी आती है। हद तो यह है कि यदि मौसम अच्छा होने या बारिश समय पर व पर्याप्त होने के चलते फसल अच्छी हो जाए तो चतुराई में पारंगत ये नेता देश में हुई अच्छी पैदावार का भी ‘श्रेय लूट’ लेते हैं। और कुछ नहीं तो यही समझा देंगे कि मैं ‘नसीब वाला’ शासक हूँ इसीलिए ईश्वर ने बारिश अच्छी की और भरपूर पैदावार मेरे ‘अच्छे नसीब’ की वजह से हुई। परन्तु कभी किसी नेता को सूखा या बाढ़ का श्रेय लेते नहीं देखा जा सकता। किसी तबाही या महामारी को अपने हिस्से में न कोई रखना चाहता है न इसकी जिम्मेदारी लेना चाहता है। ठीक इसके विपरीत राजनीति के इन चतुर खिलाड़ियों की कोशिश यह होती है कि किसी नुक्सान, तबाही या महामारी अथवा नकारात्मकता का ठीकरा अपने किसी पारम्परिक विरोधी, आलोचक या राजनैतिक दुश्मन के सिर फोड़ दिया जाए। और उपलब्धियों का श्रेय कुछ इस अंदाज में लिया जाए गोया इस पर खर्च होने वाले पैसे जनता के टैक्स के पैसे नहीं बल्कि ‘नेताजी’ अपनी निजी कमाई से या अपनी जमीनें बेचकर कोई जनहितकारी योजना को चला रहे हों।
कोरोना महामारी का संकट पूरे विश्व में अपने दुष्प्रभाव छोड़ रहा है। दुनिया के अलग अलग देश अलग अलग तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं। परन्तु लॉकडाउन के चलते बेरोजगारी का बढ़ना और उद्योग धंधे व व्यवसाय ठप होने के चलते अर्थव्यवस्था में आई भारी गिरावट लगभग सभी देशों की सामान त्रासदी है। परन्तु इन सब से अलग भारतवर्ष इस समय कोरोना जैसी ही जिस दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी से जूझ रहा है वह है श्रमिक वर्ग के लोगों का नगरों व महानगरों से अपने घरों व गांव की ओर होने वाला महा कष्टदायी प्रस्थान । देश की लगभग सभी दिशाओं से भारी संख्या में श्रमिक वर्ग लॉक डाउन की अचानक हुई घोषणा के बाद अपने व अपने परिवार के समक्ष आए अनिश्चितता के संकट में अपने अपने उद्योग, व्यवसाय नौकरियों व काम धंधों को छोड़ कर सैकड़ों व हजारों किलोमीटर की पदयात्रा पर निकल पड़ा। रास्ते में इन श्रमिकों को किन किन संकटों से जूझना पड़ा, कितने लोग भूखे प्यासे, थक हार कर मर गए इसका कोई हिसाब नहीं। सैकड़ों लोग रास्ते में बसों,ट्रकों व ट्रेन हादसों का शिकार हुए। कोई अपने बच्चे की लाश अपने कंधे पर पैदल ले जाता दिखाई दिया तो कोई बच्चा अपनी मृत मां को उसकी चादर खींच कर जगाता नजर आया। भीषण गर्मी में पैदल, नंगे पांव या टूटी चप्पलें पहने हुए लाखों ‘भारत भाग्य विधाताओं’ के पैरों में ऐसे जख्म हो गए कि मानव हृदय रखने वाला कोई भी शख्स इन्हें देख नहीं सकता।
परन्तु सरकार इस तरफ नहीं देखना ही नहीं चाहती कि आखिर श्रमिकों की इस दुर्दशा की वजह क्या है? क्या इन श्रमिकों को गर्मी में अपने व अपने परिवार की दुर्दशा करते हुए हजारों किलोमीटर पैदल चलने का शौक था या यह किसी सरकारी दुर्व्यवस्था का परिणाम है? एक महीने से भी अधिक समय तक जब विश्व मीडिया ने इस ऐतिहासिक श्रमिक कूच के चित्र, वीडियो व इनसे संबंधित कहानियां प्रसारित व प्रकाशित कीं और सरकार पर भारी दबाव पड़ा तब सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने का फैसला  किया। और श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलते ही फिर शुरू हो गया श्रमिकों को ‘घर पहुंचाने का श्रेय’ लेने का सिलसिला। अभी श्रमिक सड़कों और हाईवे पर अपने पैरों के जख्मों के निशान छोड़ते हुए अपने अपने घरों को जा ही रहे थे कि इसी बीच सरकारी हवाले से लाखों श्रमिकों को उनके घरों तक पहुंचाने के श्रेय भी लिया जाने लगे। प्रियंका गांधी ने बसें उपलब्ध कराने की बात कही तो उसमें भी सत्ता का यह डर साफ नजर आया कि कहीं श्रमिकों को घर भेजने का श्रेय प्रियंका गांधी या कांग्रेस पार्टी न ले ले। ‘श्रेय’ की परवाह किये बिना सोनू सूद और प्रकाश राज जैसे फिल्म जगत के लोगों को अपनी धन संपत्ति व समय की कुबार्नी देकर श्रमिकों को मदद करने व उन्हें सुरक्षित घर भेजने का मिशन ऐसे चलाया जा रहा है जैसे यह जिम्मेदारी सरकार की नहीं बल्कि इन्हीं लोगों की है। सोनू सूद ने ने तो राष्ट्र निर्माण में श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका को महसूस करते हुए श्रमिकों को देश का ‘रियल हीरो’ बता दिया जो कि वास्तव में हैं भी। इन्हें देखकर फिल्मी दुनिया के और भी अनेक लोग श्रेय की चिंता किये  बिना श्रमिकों की मदद के लिए सामने आ गए।
दूसरी ओर श्रमिक ट्रेनों में भूखे प्यासे यात्रियों के मरने की खबरें आने लगी हैं। भूखे प्यासे व असहाय यात्रियों द्वारा उनका दु:खद यात्रा वृतांत कई टी वी चैनल्स  व सोशल मीडिया द्वारा प्रसारित होता रहा है। अनेक ट्रेन अपना मार्ग भटककर अनावश्यक रूप से कई कई दिन की देरी से अपने गंतव्य पर पहुंच रही हैं। समाचार पत्र में एक खबर तो यह भी प्रकाशित हुई कि 25 मई को अंबाला से बिहार के मुजफ्फरपुर के लिए रवाना की गई श्रमिक स्पेशल ट्रेन संख्या 04556 भटक कर न जाने कहां चली गयी। कंट्रोल रूम तक को उसकी सुचना नहीं थी। जबकि उसी दिन छोड़ी गयी दूसरी श्रमिक स्पेशल ट्रेन संख्या 04558,  26 मई को निर्धारित समय प्रात: 8 बजे पहुंचने के बजाए रात लगभग 2 बजे यानि 18 घंटे देरी से मुजफ़्फरपुर पहुंच गयी। परन्तु इस दुर्व्यवस्था का ‘श्रेय’ लेने के बजाय सरकार यह आंकड़े जरूर पेश कर रही है कि उसने अब तक कितनी विशेष रेलगाड़ियों से कितने श्रमिकों को घर भेजा, सरकार ने जो खाने के पैकेट व पानी की बोतलें श्रमिकों को दी हैं उनका श्रेय सरकार जरूर चाहती है। परन्तु भूखे प्यासे व बेरोजगार हो चुके श्रमिकों द्वारा आए दिन की जाने वाली आत्महत्याओं का श्रेय लेने वाला कोई नहीं? एक पिता अपने भूखे दूधमुंहे बच्चे के  लिए दूध ढूंढने निकला और जब वापस आया तो उसकी आंखों का तारा भूख से दम तोड़ चुका था, है कोई बिना दूध के मरने वाले इस मासूम की ‘मौत का श्रेय’ लेने वाला ?

तनवीर जाफरी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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