Indira’s Emergency was a tonic for democracy! लोकतंत्र के लिए टॉनिक था इंदिरा का आपातकाल!

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बुधवार की रात तमाम आशंकाओं के बीच विश्व की सबसे पुरानी लोकतांत्रिक धरती पर जो बाइडेन ने 46वें राष्ट्रपति और कमला देवी हैरिस ने उपराष्ट्रपति पद की शपथ ली। लगभग 200 साल पहले 1804 में वहां चुनाव कराकर एक नये युग की नीव रखी गई थी। वहां का लोकतंत्र विश्व के लिए नजीर रहा है, मगर चार साल पहले एक कट्टर राष्ट्रवादी क्षवि के डॉनल्ड जॉन ट्रंप ने 45वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी। उन्होने अपने अतिवादी और मनमानी फैसलों से कई बार अमेरिका को शर्मिंदा किया। अमेरिका के विकासपरक समझदार नागरिकों ने चार साल परखने के बाद उन्हें सिरे से नकार दिया। जाते-जाते भी हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दोस्त ट्रंप ने महान लोकतांत्रिक देश के इतिहास को कलंकित करने का काम किया। तभी वह अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति बने, जिन पर दो बार महाभियोग चला। उन्होंने चुनावी नतीजों के चोरी होने का आरोप लगाकर अपने समर्थकों को वाशिंगटन बुलाया। कैपिटल हिल में हिंसा करवा संवैधानिक व्यवस्था में दख़ल देने की कोशिश की। उन्होंने राष्ट्रवाद के नाम पर दक्षिणपंथी अतिवादियों को हिंसा करने के लिए भड़काया। पुरुषवादी कांस्पेरिसीज थ्योरी को भी बढ़ावा दिया। ट्रंप के तमाम फैसले वैश्विक अमेरिका को एक क्षेत्रीय अमेरिका बनाने वाले रहे, जिनमें सभी को बगैर किसी भेदभाव के नागरिकता और अधिकार देने का विरोध भी शामिल था। अमेरिका के नागरिकों ने इस कंजरवेटिव सोच से खुद को न सिर्फ उबारा बल्कि दूसरे सबसे ताकतवर पद पर पहली बार एशियन अफ्रीकन मूल की महिला कमला को भी चुना। यह सिर्फ तभी संभव हो सका, जब वहां एक सशक्त और स्वस्थ लोकतंत्र जीवित है।

अमेरिका अगर विश्व का सबसे पुराना संवैधानिक लोकतंत्र है, तो भारत दुनिया का सबसे बड़ा संवैधानिक लोकतंत्र है। यह बात हमारे लिए गर्व का विषय हो सकती है। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान पहली बार कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा, के नारे के साथ लोकतंत्र की लड़ाई शुरू की थी। महात्मा गांधी ने 1920 में ‘‘मेरा स्वराज भारत के लिए संसदीय शासन की मांग है, जो वयस्क मताधिकार पर आधारित होगा”, कहकर इसे आगे बढ़ाया था। कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर 31 दिसंबर 1929 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया था। नतीजतन 1935 में ब्रिटिश संसद ने को मजबूरन भारत की प्रांतीय शासन व्यवस्था को लोकतांत्रिक विधि से भारतियों को सौंपने की शुरूआत करनी पड़ी थी। इस विधि से 1937 में चुनाव संपन्न हुआ। केंद्रीय व्यवस्थापिका में कांग्रेस सबसे बड़े दल होने के साथ ही आठ राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही थी। छह राज्यों में अंग्रेजी हुकूमत के समर्थक दलों की सरकार बनी थी। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने पर 1939 में भारतीय विधान मंडल की सहमति के बिना ही ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी युद्ध में झोंक दिया था। देश में आपातकाल लगा दिया गया। पंडित नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने युद्ध के बाद भारत को पूर्ण स्वराज का नारा बुलंद किया। वायदा करने के बाद भी अंग्रेजी सरकार मुकर गई। विरोध में कांग्रेस ने 15 नवंबर, 1939 को सभी प्रांतीय मंत्रिमंडलों से इस्तीफा दे दिया। यहीं से भारत में लोकतंत्र की नीव रखी गई। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया और विषम परिस्थितियों में देश आजाद हुआ।

लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए विश्व का सबसे बड़ा संविधान बनकर तैयार हुआ। उसके तहत, पहली बार 1952 में आम चुनाव संपन्न हुए। चार महीने (25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952) चुनाव प्रक्रिया चली। लोकसभा की 497 और विधानसभाओं की 3,283 सीटों के लिए 17,32,12343 मतदाता पंजीकृत हुए, इनमें से 10 करोड़ 59 लाख यानी करीब 85 फीसद मतदाता निरक्षर थे। कांग्रेस 401 सीटों पर हुए  चुनाव में 44.99 फीसदी मतों के साथ 364 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीटें जीतकर सबसे बड़ा विपक्षी दल। उसे नेता प्रतिपक्ष का पद भी मिला। इस चुनाव ने भारत में लोकतंत्र के विरोधी रहे ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल सहित पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया था। अगर सभी लोकसभाओं ने अपने कार्यकाल पूरे किये होते तो 2021 में हम 15वीं लोकसभा के लिए मतदान कर रहे होते। लोकतंत्र पर सियासी खेल इतना हावी हुआ कि 2019 में 17वीं लोकसभा का चुनाव कराना पड़ा। इसमें भारतीय जनता पार्टी 37.43 फीसदी मतों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और कांग्रेस 19.51 फीसदी मतों के साथ सबसे बड़ा विपक्षी दल बनकर संसद पहुंची है। साफ है कि 62 फीसदी से अधिक नागरिकों ने सत्तारूढ़ दल को वोट नहीं दिया है मगर सियासी दांवपेंच में दूसरा कोई दल उस 62 फीसदी मत पर एकाधिकार नहीं कर सका। भारत में यही लोकतंत्र की विडंबना है। यहां 5वीं लोकसभा के लिए 1971 में हुए चुनाव का जिक्र बेहद जरूरी है, जब दो टुकड़े हो चुकी कांग्रेस श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 43.68 फीसदी वोट हासिल करके 352 सीटों पर जीती थी। जीत के तुरंत बाद श्रीमती गांधी ने देश को सशक्त बनाने के लिए तमाम बड़े कदम उठाये थे। उनकी कूटनीति और राजनीति के कारण ही पाकिस्तान दो टुकड़े हो गया था।

सवाल यह है कि भारी जीत, विदेशी और आंतरिक ताकतों को खत्म करने को मिल रहे जनसमर्थन के बावजूद श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल क्यों लगाया? क्या यह लोकतंत्र का गला घोटकर तानाशाही स्थापित करने की तैयारी थी? जब हम इन सवालों के जवाब तलाशते हैं, तब जो सच सामने आता है, वह चौकाने वाला है। इंदिरा जब पीएम बनी, वह दौर भारत का सबसे अशांत काल था। पांच साल पहले ही हम चीन से हारे थे और पाकिस्तान से हारते-हारते बचे थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लोकतंत्र को बहुतायत दे रखी थी, जिससे हर कोई सत्ता से कोई भी सवाल पूछ लेता था। “टू मच डेमोक्रेसी” इस हद तक थी कि जब चीन हमला कर रहा था, उस वक्त भी संसद में अटल बिहारी वाजपेई, सरकार के खिलाफ बोल रहे थे। अखबार सरकार के खिलाफ जहर उगल रहे थे। मिजो, नगा, कुकी, सिक्किम, द्रविण अलग स्वतंत्र देश का झंडा बुलंद किये थे। वो संविधान के तहत शपथ लेने को भी तैयार नहीं थे। जनसंघ अलग अपनी खिचड़ी पका रहा था। गौरक्षक बनकर हजारों कट्टर हिंदूवादी 1966 में संसद में घुसकर हंगामा कर रहे थे, जो ग्वालियर के सिंधिया के पोषित थे। सत्तालोलुपों ने कांग्रेस को दो टुकड़े कर दिया था। देश के इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए सांसदों ने वोट कर इंदिरा को कुर्सी सौंपी थी। इंदिरा ने रजवाड़ों की सत्ता (प्रिवीपर्स) छीनकर देश के नागरिकों को हक दिया था। हम अकाल से बाहर निकाले थे, मगर आर्थिक और बंगलादेशी शरणार्थी संकट सामने खड़ा था। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से सीधी दुश्मनी के चलते देश के भीतर सीआईए एजेंट के रूप में तमाम तरह की ताकतें सक्रिय थीं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने चुनाव एजेंट यशपाल कपूर के इस्तीफे के वक्त को असामयिक साधन प्रयोग मानते हुए इंदिरा की सांसदी रद्द कर दी थी, हालांकि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अय्यर ने रोक दिया था।

इंदिरा सरकार के चार साल गुजर चुके थे। सीआईए के एजेंट सियासी चोला ओढ़कर देश भर में हड़तालें करवा रहे थे। अमेरिकी डायनामाइट बरामद हो रहे थे। राजनेता और अखबार देश और लोकहित का साथ देने के बजाय, विरोध में खड़े थे। उनको हो रही विदेशी फंडिंग चर्चा का विषय थी। ऐसी स्थिति में क्या इंदिरा गांधी का 25 जून 1975 को आपातकाल लगाना राष्ट्रहित में जरूरी नहीं था? क्या जब हालात काबू में आये, तब स्वयं इंदिरा गांधी ने ही 21 मार्च 1977 को 21 महीने बाद आपातकाल खत्म कर निष्पक्ष चुनाव नहीं कराये थे? लोकतंत्र और देश को मजबूत करने के इस फैसले के चलते ही उन्हें करारी हाल का सामना करना पड़ा था। उन्होंने लोकतंत्र को खत्म करके अधिनायकशाही स्थापित नहीं की बल्कि लोकतंत्र को टॉनिक दिया था। अगर यह टॉनिक न होता, तो पुनः एक स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित न हो पाता। विरोधी स्वरों को आवाज न मिलती। प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी की हत्या न कर दी गई होती। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 197 सीटें जीतने के बाद भी विपक्ष में न बैठते। मौजूदा सरकार पर जो आरोप लगते हैं, वो सही होते दिखते भी हैं। सरेआम कारपोरेट के कुछ घरानों के फायदे के लिए सरकारी नीतियां बन रही हैं। उन्हें ठेके दिलाने के लिए विदेशी सरकारों से पैरवी की जा रही है। लोकसेवकों, सैन्य अफसरों, न्यायाधीशों और संस्थाओं का इस्तेमाल सियासी फायदे के लिए हो रहा है मगर नैतिक आधार पर किसी की सांसदी निरस्त नहीं हो रही। जनांदोलनों की सरकार सुध नहीं ले रही बल्कि उन्हें राष्ट्रविरोधी साबित करने की हर कोशिश हो रही है। संस्थाओं में नियुक्तियां एक विचारधारा और संगठन के लोगों की हो रही हैं, न कि योग्यता के आधार पर। तब अगर ऐसा होता, तो इंदिरा गांधी भी सिन्हा को हाईकोर्ट का जस्टिस नहीं बनातीं। जेपी ने सेना और पुलिस को इंदिरा सरकार के खिलाफ विद्रोह का आवाह्न किया था, क्या आज ऐसा संभव है।

हमें अमेरिकी नागरिकों से सीखना चाहिए, कि लोकतंत्र में सत्ता जनता के ही हाथ में अच्छी लगती है, न कि किसी अधिनायकवादी या सियासी फायदे के लिए खुद को राष्ट्रवादी बताने वालों के हाथ में। राष्ट्र सिर्फ भौगोलिक सीमाओं से नहीं बनता बल्कि वहां के लोगों, उनके आचरण, जीवनशैली और प्राकृतिक संसाधनों से बनता है। हम सच्चे लोकतंत्र बन सकें, इसके लिए सरकार को काम करना चाहिए। उसे लोक संसाधनों को निजी हाथों में बेचने के बजाय अधिक से अधिक लोक संस्थाओं को सौंपना चाहिए। बहुसंख्यकों के साथ ही अल्पसंख्यकों के हितों और स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रखना लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी है। जब नागरिक ही खुशहाल नहीं होंगे, तो स्वस्थ लोकतंत्र कैसे बन सकता है। जो बाइडेन ने राष्ट्रपति बनते ही यह संदेश देना शुरू कर दिया है कि लोकतंत्र में देश सबका है और सभी देश के। कट्टरपंथी न संसद में घुस सकें और न ही कैपिटल हिल में, हमें ऐसा लोकतंत्र बनाना चाहिए।

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)

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