Indian Penal Code vs Hindi Course: भारतीय दंडसंहिता बनाम हिन्दी पाठ्यक्रम

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दोस्तों आजकल माता-पिता के मुख से यह जुमला आम सुना जा रहा है कि हमारा बच्चा अंग्रेजी गणित में तो होशियार है पर इसकी हिन्दी कमजोर है। सवा अरब जनसंख्या वाले देश की राष्ट्रभाषा क्या यह सुन कर आंसू नहीं बहाती होगी? आजकल सब कुछ केवल इसलिए पढ़ा जाता है कि उससे करियर बनता है यानी आमदनी की संभावना उज्जवल होती है। जैसे अब विज्ञान के स्थान पर वाणिज्य पढ़ा जा रहा है। तो आज मात-पिता को हिन्दी में करयिर की सम्भावना नजर नहीं आती। जबकि देश में हिन्दी के सबसे अधिक अखबार व टी वी चैनल हैं। देश में सबसे अधिक फिल्म या सीरीयल, विज्ञापन म्यूजिक एल्बम हिंदी में बनते हैं। अतरू हिंदी में करियर की अपार संभावनाए हैं। समाचार लेखन, ब्रेकिंग न्यूज लेखन स्क्रिप्ट लेखन संवाद लेखन, गीत लेखन जैसी अनेक संभावनाए मौजूद है। मगर भाषाओं के पाठ्यक्रम आज भी भारतीय दंडसंहिता की तरह बाबा आदम के जमाने के ही हैं।
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 जिसे अंग्रजों ने गदर कहा था के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी ही नहीं ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिल गईं थी। 1857 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से भारत की सत्ता तत्कालीन सीधी महारानी विकटोरिया के हाथों सौंप दी गयी। तब उन्हें लगा की अगर भारत पर लम्बे समय तक राज करना है तो कानून व्यवस्था ऐसी बनानी होगी जो अंग्रेज अधिकार को मजबूत करे। तो 1860 में इंडियन पीनल कोड 1872 क्रिमिनल कोड 1909 सिविल कोड उससे पहले 1835 में लार्ड मैकाले द्वारा भारतीय शिक्षा नीति को भी बदल दिया गया था। संस्कृत व फारसी का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया था। अगर आज हम नजर डालें तो ये सभी कानून आज भी लगाभग ज्यों के त्यों हैं। आज हम शिक्षा के बारे में बात करेंगे।
एक पुराना प्रसिद्ध चुटकुला कुछ यूं है कि प्रसिद्ध भारतीय धावक फ्लाइंग सिख श्री मिल्खा सिंह जब ओलम्पिक के फाइनल में दौड़ रहे थे तो उन्होंने एक गलती की कि वे पीछे मुड़कर देखने लगे कि उनसे पिछले धावक कितना पीछे हैं, बस सेकेंड के इसी हिस्से के कारण तीन धावक उनसे आगे निकल गये और वे चतुर्थ स्थान पर आए मगर इस गलती से उन्होंने एक सबक लिया कि पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। एक बार उनके घर में एक चोर घुस गया चोर ने अभी कुछ खास उठाया नहीं था कि मिल्खा की आंखें खुल गई। चोर भाग निकला और मिल्खा उसके पीछे। वे चोर के इतने पास पहुंच गये कि उसे पकड़ ही लेते, मगर उनके भीतर बैठे धावक ने जोर मारा और वे भागते-भागते चोर से आगे निकल गये। चोर चुपचाप पीछे लौट गया और बच गया। शुरूआत इस चुटकुले से करने का अर्थ इतना है कि इंडियन पीनल कोड जो ब्रिटिश साम्राज्य के दिनों में सन् 1862 में बनाया गया और जो भारतीय महाद्वीप के अतिरिक्त मलेशियाए सिंगापुर व हांगकांग पर भी लागू था। बाकी सब देशों ने तो प्रगति के साथ-साथ इस दंडसंहिता में आमूल चूल परिवर्तन कर लिए हैं मगर भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में अभी भी कमोबेश अपने उसी रूप में लागू हैं। यानि समय व परिस्थितियां तो मिल्खा सिंह की तरह दौड़े जा रहे हैं और इंडियन पीनल कोड अपनी जगह अंगद के पांव सा अडिग खड़ा है। यही कुछ हाल मेकाले द्वारा निर्मित शिक्षा नीति पर आधारित जर्जर ढांचे पर खड़े हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं का पाठ्यक्रम का भी है। उसमें भी जो कुछ अच्छा था वह भी आज यानि व्याकरण व छंद ज्ञान नदारद हो गया है।
व्याकरण जहां गद्य का अनुशासन है वहीं छंद कविता का अनुशासन है और गद्य व पद्य का अनुशासन सीखते सीखते विद्यार्थी जीवन में अनुशासन का पहला पाठ भी सीख लेते थे। यही हाल अंग्रेजी पाठ्यक्रम का भी है का भी है। उपनिषदों में एक सूत्र आता है कि धर्म का पालन देश, काल व परिस्थिति अनुसार करना चाहिए। धर्म-यानि बेहतर जीवन जीने का तरीका ना कि कर्म कांड। तो क्या जिस पाठ्यक्रम से हम शिक्षा ग्रहण करते हैं उस पर यह सूत्र लागू नहीं होना चाहिए। देश, काल, परिस्थिति के कारण चूल्हे की जगह गैस या स्टोव, ओवन, माइक्रोवेव हमामदस्ते की जगह मिक्सी ग्राइंडर तथा कपड़ा कूटने की थापी की जगह वाशिंग मशीन ने ले ली है तो पाठ्यक्रम क्यों नहीं बदल गये।
यही नहीं हमारे तीज त्यौहार का प्रारूप बदल गया। बाजारीकरण की चकाचौंध ने इन्हें पारिवारिक सांस्कृतिक शुचिता से दूर ग्लैमर की दुनिया में ला खड़ा किया है। कई बार तो यह भौंड़ेपन तक हो जाता है मगर इससे बचना संभव नहीं है। पर हमें देश, काल, परिस्थिति अनुसार कुछ बदलाव तो लाने ही चाहिये। यहां मैं एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। मैं अपने पुत्र के पास विदेश गया तो मेरी नातिन ने पूछा दादू हमारे सान्ता क्लाज कहां हैं। जाहिर है नातिन वहां की संस्कृति में पल रही थी उसकी उत्सुकता सही थी। जिन दिनों यह बातचीत हुई उसके कुछ दिन पश्चात ही जन्म-अष्टमी थी। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि वहां विदेश में रह रही हिन्दू स्त्रियों ने इसे भव्य रूप से मनाने का विचार किया। प्रारूप बनाने लगी। कुछ सहायता इंटरनेट से ली कुछ हम सरीखे बुजुर्गों से, कुछ भारत में फोन करके। इसी आयोजन की योजना में मैंने नातिन की बात बतलाकर सुझाव रखा की कोई सदस्य भगवान कृष्ण का रूप धरकर बच्चों में सांता क्लाज की तरह उपहार बांटे बस फिर क्या था एक नवविवाहित युवती ने इसे बखूबी अमली जामा पहना कर वाहवाही लूटी। अब तो मैंने सुना है कि होली पर नरसिंह अवतार तथा दीवाली पर लक्ष्मी माता रूपी सांता क्लाज बच्चों को काफी प्रिय हो रहे हैं। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। चूल्हा, चक्की, थापी, हमामदस्ते की उपयोगिता खत्म हुई। जैसे नई उपयोगी वस्तुओं ने इन्हें बदल दिया उसी तरह आज हिन्दी पाठ्यक्रम को आवश्यतानुसार ढालना जरूरी है। यही नहीं हमारे पुराने घिसे-पिटे पाठ्यक्रम के कारण ही विद्यार्थियों में हिन्दी पढ़ने की ललक लगभग समाप्त हो गई है अगर हम इसे आज के समय के अनुरूप नहीं ढालेंगे तो हिन्दी पढ़ने वाले विलुप्त हो जाएंगें। पाठ्यक्रम के संबंध में मेरे सुझाव इस प्रकार हैं : हमें रोजगार आधारित भाषा पाठ्यक्रम बनाए जाने चाहिए।
-कहानी, कविता, (छान्दसिक) नाटक, निबंध, पटकथा लेखन, संवाद लेखन, (पंच लाइन सहित), (सीरियल लेखन), (एपिसोड), (समाचार लेखन), समाचार पत्र, टी.वी. चैनल, विज्ञापन लेखन, फिल्म व म्यूजिक एलबम हेतु गीत लेखन, संगीत का आरम्भिक ज्ञान।
यही नहीं अपने देश की संस्कृति व साहित्य को बचाने व नव पीढ़ी में संस्कार के बीजारोपण हेतु एम.बी.ए.ए चिकित्सा, इंजीनियरिंग यानि हर स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम में साहित्य का पर्चा अनिवार्य रूप से सम्मलित करना चाहिये इसकी भाषा कोई भी भारतीय भाषा हो सकती है।
पाठ्यक्रम बनाने वाली समिति में उपर्युक्त सभी विषयों के विद्वानों को सदस्य बनाकर दसवीं कक्षा के बाद की कक्षाओं के पाठ्यक्रम में ये सभी विषय सम्मिलित होने चाहिए तथा स्नानकोत्तर शिक्षा के लिए इनमें से चुनिन्दा विषयों को रखा जा सकता है।
डॉ श्याम सखा श्याम
यह लेखक के निजी विचार हैं।

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