Ideological pollution continues to violent youth: वैचारिक प्रदूषण बना रहा युवाओं को हिंसक!

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इस वक्त भारत में किसी भी देश की तुलना में सबसे अधिक युवा हैं। एक अध्ययन हमें परेशान करने वाला है, जिसके मुताबिक हमारा हर सातवां युवा मानसिक विकार का शिकार है। लांसेट साइकैट्री में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पिछले एक दशक में वैचारिक प्रदूषण से युवा वर्ग अवसाद का शिकार हुआ है, जिससे उसमें हिंसक प्रवृत्ति बढ़ी है। इसमें उत्तर भारतीय सबसे अधिक हैं। आप भी सोचेंगे कि हम मनोविज्ञान की बातें लेकर क्यों बैठ गये मगर इस वक्त यह चर्चा लाजिमी है। हम विश्व की एक बेहतरीन संस्कृति के वाहक देश के वासी हैं। ऐसे में हमारे युवाओं का हिंसक और दिशाहीन होना चिंता का विषय है। यह चिंता तब और भी गंभीर हो जाती है, जब उच्च शिक्षण संस्थाओं में हिंसक घटनायें होने लगें। यह वो संस्थायें हैं, जो हमें विद्वता सिखाने के साथ ही सभ्य और विचारशील, सहिष्णु नागरिक बनाने का भी काम करती हैं। हाल में देश के सर्वोच्च शैक्षिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में जो हिंसक घटना हुई, वह बेहद चिंता का विषय है। यह घटना ऐसे वैचारिक संस्थान में घटी जो देश को राह दिखाने का काम करता रहा है। यहां एक बेटी आईशी घोष पर हमला हुआ तो दूसरी दीपिका पादुकोण को ट्रोल किया गया। यह कुकृत्य उन कायरों ने किया जो खुद को भारतीय संस्कृति का रक्षक मानते हैं। स्थिति तब और भी दुखद हो गई जब दिल्ली पुलिस ने सियासी एजेंट की तरह प्राथमिक जांच के नाम पर सिर्फ वामपंथी छात्र संगठन और उसके विद्यार्थियों को ही दोषी बता दिया।
जेएनयू में वैचारिक मतभेद होना और उस पर बहस आम बात रही है। हमें याद आता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ वैचारिक क्रांति का जन्म इसी विश्वविद्यालय से हुआ था। इंदिरा गांधी से जब तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष सीताराम येचुरी ने कहा कि उनका कुलाधिपति के पद पर बना रहना संस्थान हित में नहीं है, तो उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था। आपातकाल के खिलाफ बिगुल यहीं से बजा, जिससे देश की सियासत में समाजवादी और दक्षिणपंथी दोनों मजबूत हुए। विरोधी गूंज के बावजूद इंदिरा सरकार ने कभी संस्थान और युवाओं के वैचारिक विरोधी चर्चाओं पर लगाम नहीं लगाई। मुखर चर्चाओं और विरोधी स्वर से ही सत्ता को अपनी नीतियों पर चिंतन करने की राह मिली। फलस्वरूप देश को श्रेष्ठ अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और सियासी नेता मिले। जिन्होंने देश-विदेश में भारत का नाम रोशन किया। यहां से निकले विद्वजनों और नौकरशाही ने देश को विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ाया। प्रकृति का नियम है कि हम रचनात्मक चर्चा करते वक्त विध्वंसक विषयों पर भी समान चर्चा करें, जिससे हमें गुणदोष का ज्ञान रहेगा। हम गलत दिशा में नहीं जाएंगे। पिछले कुछ सालों के दौरान जिस तरह से चर्चाओं में सिर्फ एक विचारधारा थोपने की कोशिश हुई, वही संकट बन रही है।
पिछले रविवार को जेएनयू में वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई, जिसकी निंदा पूरे विश्व में हो रही है। इसके विरोध में प्रदर्शन अभी भी जारी हैं। जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आइसी घोष और उनके साथियों पर जनलेवा हमला हुआ। वीडियो और व्हाट्सएप से मिले तथ्यों से पता चला कि यह हिंसक घटना सुनियोजित थी। इसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं और समर्थक प्रोफेसरों ने विश्वविद्यालय के उच्चस्थ अधिकारियों के साथ मिलकर अंजाम दिया था। बार-बार पीसीआर को बुलाने पर भी कई घंटों तक पुलिस ने पीड़ितों की कोई मदद नहीं की। उसके सामने हिंसक घटनाएं हुईं मगर वह मूक दर्शक बनी रही। जब एफआईआर दर्ज करने को अर्जियां दी गईं तो पुलिस ने पीड़ित पक्ष को ही मुलजिम बना दिया। प्रधानमंत्री से लेकर अन्य मंत्रियों तक ने इस पर कोई गंभीरता नहीं दिखाई। यहां सबसे अधिक हिंसा का शिकार लड़कियां और महिला प्रोफेसर्स हुईं। हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन में नैतिक समर्थन देने पहुंचीं फिल्म तारिका दीपिका पादुकोण को भी दोषी विचारधारा के लोगों ने ट्रोल किया। पूरे प्रकरण में पुलिस और कुलपति प्रो. जगदीश कुमार की भूमिका सबसे अधिक संदिग्ध रही। दोनों ही अपने कर्तव्यों के निर्वहन से भागते दिखे। कुलाधिपति वीके सारस्वत का मौन दुखद रहा।
आपको याद होगा कि पिछले महीने सीएबी, सीएए और एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे। इन विरोधी प्रदर्शनों को कुचलने के लिए दिल्ली और यूपी पुलिस जामिया मिलिया विश्वविद्यालय और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के भीतर घुस गई थी। पुलिस ने बगैर कुलपतियों की मंजूरी लिए पुस्तकालय से लेकर हास्टलों तक विद्यार्थियों को जमकर पीटा, प्रताड़ित किया। छात्राओं के साथ भी ऐसा सलूक किया, मानो वह दुश्मनों के जवान हों। पुलिस अगर बेजा बल प्रयोग कर सकारात्मक विचारधारा के लोगों का दमन कर रही थी, तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग सोशल मीडिया पर जहर उगल रहे थे। इन लोगों के समर्थन में सत्ता खड़ी थी, जबकि पीड़ित कड़कड़ाती ठंड में मार खा रहे थे। आखिर क्या वजह रही कि अपनी मांगों और सत्ता की नीतियों के खिलाफ बोलने वालों की जुबान काट देने जैसी कार्रवाईयां हुईं? इस सवाल का जवाब युवाओं की मानसिकता में मिलता है। पिछले कुछ सालों के दौरान युवाओं के दिमाग में नकारात्मकता भर दी गई है। मनगढ़ंत इतिहास-भूगोल और किस्से-कहानियां सोशल मीडिया पर सिखाये/पढ़ाये जा रहे हैं। ज्ञान/विज्ञान और बुद्धिजीविता सिखाने वालों को खलनायक बनाया जा रहा है।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का मूल ज्ञान/विज्ञान, सहिष्णुता, संयम और सदाचार रहा है। हमारे धर्मग्रंथ हमें यही सिखाते थे, जिनके बूते हम विश्व गुरू बने मगर न्यू इंडिया/डिजिटल इंडिया में इसको त्यागने की बात सिखाई जा रही है। यहां गाय-गोबर, पाकिस्तान और हिंदू-मुस्लिम के नाम पर किसी का भी कत्ल कर दो, यह सिखाया जा रहा है। इस वैचारिक प्रदूषण के चलते मॉब लिंचिंग जैसी घटनायें आम हैं। अराजकता और हिंसा की जितनी भी घटनायें हुईं, उन सभी में एक विचारधारा के युवा ही शामिल थे। सभी हिंसक घटनाओं को अंजाम देने वाले युवा न तो बुद्धिजीवी थे और न ही धर्म संस्कृति को समझने वाले। भले ही वो किसी भी विश्वविद्यालय के छात्र/छात्रा रहे हों। वह सभी उस वैचारिक प्रदूषण से ग्रसित थे, जो उन्हें बीते कुछ वर्षों में घुट्टी की तरह वह लोग पिला रहे थे, जो खुद परजीवी हैं। नतीजतन युवा दूसरे की विचारधारा और चर्चाओं से सीखने के बजाय हिंसक हो गया। वजह साफ है कि हमारी युवा शक्ति को रचनात्मक दिशा देने के बजाय उसे विकृति में झोंक दिया गया, जो एक दल विशेष को सत्ता सौंपती है।
विचारधाराओं में वाद-विवाद और विरोध-प्रदर्शन सदैव होते रहे हैं। उन्हें बौद्धिक स्तर पर तर्क के आधार पर अपनाया या खारिज किया जाता था मगर हिंसा को कोई स्थान नहीं रहा। भले ही देश के लिए चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, विस्मिल जैसे शहीदों ने बड़ा काम किया हो मगर वह रास्ता कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। मार्ग सदैव गांधीवादी ही सही होता है, जो हमें सत्य, अहिंसा और प्रेम से संघर्ष करना सिखाता है। जो हिंसा से अहिंसक तरीके से मुकाबला करता है। यही मार्ग हमें श्रेष्ठ और विजयी बनाता है। हमारी संस्थाएं हों या फिर सत्ता सभी में हिंसक विचारधारा हावी है। इसका प्रतिफल यह है कि देश का युवा हिंसक बन गया है। इसे रोकना होगा, नहीं तो परिणिति बरबादी के मार्ग पर ले जाएगी। हमारी संस्कृति बेटियों की रक्षा की है, न कि उन पर हमला करके बेइज्जत करने की।

जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)

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