Hey Ram! हे राम!

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नई दिल्ली के बिड़ला हाउस में 30 जनवरी 1948 की मनहूस शाम 5 बजकर 10 मिनट पर 79 साल के एक बुजुर्ग महात्मा की तीन गोलियां मारकर हत्या कर दी गई थी। हत्या करने वाला श्रद्धालु बनकर भीड़ में खड़ा था। इस बहरूपिया की नियत उस जघन्य अपराध को करने की थी, जो पूरे देश में आक्रोश और आंश्रुओं की धारा बहाने के लिए काफी था। पूरी दुनिया शांति और प्रेम के इस मसीहा की हत्या पर धिक्कार रही थी। यहां तक कि कभी गांधी के धुर विरोधी रहे, ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने इस अधनंगे फकीर की हत्या पर गहरा अफसोस जताते हुए भारतियों को लानत दी थी। महात्मा गांधी तो इस भौतिक दुनिया में नहीं रहे मगर उनके विचार आज भी जीवित हैं। ठीक 73 साल बाद एक बार फिर से धरती पुत्रों के बीच घुसकर, गांधी के हत्यारों के समर्थक कुछ बहुरूपिओं ने गांधीवादी आंदोलन की हत्या करने की कोशिश की है। इस बार शांति-अहिंसा से चल रहे, इस आंदोलन की ही हत्या नहीं हुई बल्कि उन गरीब-बेसहारा किसानों की भी हत्या हुई है, जो हम सभी को जीवन देने के लिए अपनी धरती माता की छाती फाड़कर अन्न उपजाते हैं। उन्हें देशद्रोही से लेकर पाकिस्तानी-खालिस्तानी और न जाने क्या क्या संज्ञा, उन लोगों ने दी, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई हो या फिर देश की सीमा की रक्षा की लड़ाई, किसी में भी कोई योगदान नहीं किया है। देश की सीमाओं की रखवाली करने वाली सेना-अर्धसैन्य बल हों या फिर देश के भीतर शांति व्यवस्था की जिम्मेदारी उठाने वाली पुलिस, सभी में बहुतायत इन्हीं किसान पुत्रों की है, जो इन हालात को देखकर बिलख रहे हैं।

हमने यह भी देखा कि कैसे सियासी दबाव में “बहरूपिये किसानों” को बैरीकेड के दूसरी ओर पुलिस कैंप के साथ डेरा डालने की सुविधा दी गई। जहां आम आंदोलनकारी किसान को जाने की इजाजत भी नहीं थी। किस तरह इन बहरूपियों ने एक दिन पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह तो किसान एकता मोर्चा और पुलिस के समझौते को नहीं मानेंगे मगर उनको पुलिस ने पाबंद नहीं किया। उन्होंने आगे जाकर जो किया, वह सभी के सामने आ चुका है। पुलिस और सरकारी संरक्षण में कैंप किये, इन बहरूपियों के लिंक किससे हैं, वह भी सबके सामने आ चुका है। लाल किले पर तिरंगे के साथ ही पवित्र निसान साहिब का झंडा लहराने को राष्ट्रीय अपमान और राष्ट्रद्रोह का नाम दे दिया गया। सरकार और पुलिस के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इन लोगों को अंदर जाने के लिए किले का दरवाजा किसने और क्यों खोला? यह फौलादी दरवाजा है, जिसे तोप के गोले से ही तोड़ा जा सकता है। अगर यह बंद होता, तो किसान अंदर जा ही नहीं सकते थे। सरकार के पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है, कि उसने ही लाल किले पर 2014 में निसान साहिब का झंडा क्यों फहराया था? अचानक हुई इस घटना और मीडिया की एकपक्षीय आलोचना से किसान परेशान हो उठे। हिंसा का सच सामने आने पर जब किसान एकबार फिर एकजुट हुए, तो बवाना के भाजपा नेता अमन डबास दर्जनों लोगों को लेकर सिंधू बार्डर पर पहुंच गया। पुलिस ने उनकी गाड़ियों को किसानों के डेरे तक निर्विघ्न जाने का रास्ता दिया, जबकि वही पानी के टैंकर नहीं जाने दे रही थी। अमन की हिंसक टीम ने पुलिस के सामने ही आंदोलनकारी किसानों पर हमला किया और उनके टेंट तोड़े। बचाव में जब कुछ किसानों ने जरूरी प्रतिरोध किया, तो उन्हें मुलजिम बनाकर हवालात में डाल दिया गया। उनको आतंकी बताकर मुकदमों में फंसा दिया गया।

70 साल बाद संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव रखने वाले दिन एक और हत्या हुई, वह किसी व्यक्ति की नहीं बल्कि उस संस्था की हत्या, जिसके ऊपर तीनों संवैधानिक संस्थाओं की निगहबानी की जिम्मेदारी है। जो सदैव से खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दंभ भरता रहा है। वह स्तंभ भी झूठ की बाढ़ में ढह गया। उस मीडिया ने सत्ता के चारण में उस जनता को जहर पिलाया, जिसके बूते वह खुद रोजगार पाता है और अपने मीडिया हाउसेस के मालिकों की तिजोरी भरता है। उस मीडिया ने सरकारी खेमें में खड़े होकर धरतीपुत्रों को आतंकी-डकैत और गुंडे बनाकर पेश किया। निगहबानी नहीं की बल्कि कांट्रेक्ट किलर की तरह काम किया। तमाम रिपोर्टर्स के ट्वीट और सोशल मीडिया पोस्ट सियासी आईटी सेल की कॉपी पेस्ट थे। ऐसे मीडियाकर्मी, आईटी सेल की पोस्ट आगे से आगे शेयर करते रहे। यह देख, हमें पत्रकार होने पर शर्म महसूस हुई। एक बार मन किया कि जिसे हम पवित्र पेशा समझकर, आये थे, उसे छोड़ देना चाहिए। फिर सोचा जब यह देश हमारा है, संविधान हमारा है और सरकार भी हमारी है, तो किसी और को दोष क्या देना! दोषी तो हम हैं, जो हमने ऐसे अहंकारी और मक्कार लोगों को चुनाकर, उन्हें अपना भाग्यविधाता बनाया है। पुलिस या सरकारी अफसर तो सिर्फ हमारी सेवक सरकार के नौकर हैं। अगर हमारे प्रतिनिधि ही किसानों-मजदूरों को उनके भाई-बेटों से लड़वाकर सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं, तो तय है कि लोकतंत्र की हत्या हमने की है, किसी और ने नहीं।

लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में शायद दीमक लग चुका है! शायद संविधान पुराना हो चुका है! या फिर हम खुद मक्कार हो गये हैं! अगर ऐसा है, तो फिर किसी से कोई सवाल क्यों? अगर सवाल करना है तो खुद से करूंगा, कि तुमने पढ़-लिखकर यह क्या हाल कर दिया है? पंडित जवाहर लाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री का पद संभालने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही देश के पहले राष्ट्रपति बने। उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले भाषण में भी किसान और कृषि को लेकर चिंता जाहिर की थी। उस वक्त जब बग्घी से बगैर सुरक्षा राष्ट्रपति राजपथ पर निकले थे, तब उनके सामने तमाम राज्यों की झांकियां ट्रैक्टर से ही निकली थीं, जिस ट्रैक्टर से आज सरकार डर रही है। आज उसी किसान की चुनी गई सरकार, उन पर उसके ही बेटों (पुलिस) से लाठी-डंडे चलवा रही है। शांतिपूर्ण मार्च करते, जब हजारों किसान पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के तहत मुंबई में राज्यपाल को ज्ञापन देने पहुंचे, तो वह गायब हो गये। उन्होंने दूसरे कामों में व्यस्त होना कहकर चंद मिनट देना मुनासिब नहीं समझा। वहीं, किसानों के प्रधान सेवक उनसे बात करना दूर, उनका हाल जानने को भी तैयार नहीं हैं। निश्चित रूप से यह आंदोलन असंवैधानिक तरीके से बने कानूनों का विरोध है। बगैर सभी पक्षों से चर्चा, विमर्श और राज्यों की राय के ध्वनिमत से पास घोषित कानून सवालों में तो रहेंगे ही। देश की आजादी के बाद यह पहला आंदोलन है, जो लाल किले तक पहुंचा है। लाल किले पर आंदोलन का झंडा फहरा दिया गया। यह कोई अपराध नहीं है। यहां राष्ट्रीय ध्वज और अस्मिता का अपमान भी नहीं हुआ।

हमें समझना चाहिए कि जब-जब देश पर संकट आया है, पंजाब ने ढाल और तलवार बनकर हमें बचाया है। उसने भूखों को खाना भी खिलाया है और घाव पर मरहम भी लगाया है। उस पंजाब के वासियों के साथ देश के किसान अन्यायी कानून के खिलाफ खड़े होते हैं, तो उन्हें खालिस्तानी-पाकिस्तानी कहकर, वह लोग अपमानित करते हैं, जिनका अतीत गद्दारी से भरा है। तय है, कि महात्मा गांधी की आत्मा को अब उनके बनाये गये लोकतांत्रिक देश की सरकार ही छलनी कर रही है। अधनंगे फकीर की आत्मा बार-बार बिलखकर बोल रही होगी, हे राम! देखो तुम्हारे नाम को बेचने वाले, अब तुम्हारी मर्यादाओं को भी छलनी कर रहे हैं। तुम्हारे नाम पर चंदा वसूलकर पूंजीवादी बन, गरीब-मजलूम अन्नदाता को लूट रहे हैं। अब तो देखो। हे राम!

          

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)

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