Government should remove mistrust and fear: अविश्वास व डर तो दूर करो सरकार

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कभी सीएए और एनआरसी से डरे लोग एक सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और देश का बड़ा हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। कभी अपनी खेती जाने और कृषि कार्य में संकट बढ़ जाने का डर बताते किसान दिल्ली सीमा पर सड़क जाम कर बैठ जाते हैं और फिर देश का वही हिस्सा उनके साथ खड़ा दिखता है। दोनों स्थितियों मे देश का दूसरा बड़ा हिस्सा इन आंदोलनों के विरोध में जुट जाता है।
वह भी इस हद तक कि देश के युवा हों या किसान, सब उन्हें आतंकवादी तक लगने लगते हैं। जाम लगाने वाले व आंदोलन करने वालों के बीच भी कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं, जो इस डर को दहशत में तब्दील करने का अवसर दे देते हैं। यह स्थितियां देश के भीतर वैचारिक विभाजन से ऊपर मानसिक विभाजन की स्थितियां सृजित कर रही हैं। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह देश की जनता के मन में किसी भी तरह का अविश्वास न रहने दे और हर प्रकार का डर दूर करे। मौजूदा स्थितियों में भी किसानों के मन से डर निकालकर अन्नदाता के साथ विश्वास का रिश्ता कायम किया जा सकता है।
पिछले एक सप्ताह से देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर किसानों ने डेरा डाल रखा है। दिल्ली पहुंचने से पहले जो आंदोलन किसानों के समग्र विरोध का परिणाम लग रहा था, दिल्ली पहुंचते ही इस आंदोलन के साथ लोग शाहीन बाग को याद करने लगे हैं। जिस तरह शाहीन बाग में महिलाएं डेरा डालकर बैठी थीं और केंद्र सरकार विरोधी उस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे, उसी तरह किसान आंदोलन भी नजर आने लगा है। फर्क सिर्फ इतना है कि शाहीन बाग आंदोलन के दौर में केंद्र सरकार वार्ता के लिए इस हद तक उत्साहित नहीं नजर आ रही थी, जिस तरह से इस बार प्रयास हो रहे हैं।
सरकार और किसानों के बीच बातचीत की पहल भले ही हुई हो किन्तु देश एक बार फिर दो हिस्सों में बंटा नजर आ रहा है। जिस तरह से शाहीनबाग में नारेबाजी के कुछ वीडियो आंदोलनकारियों को देशद्रोही साबित करने की कोशिश का सबब बने थे, उसी तरह किसान आंदोलन के दौरान एक वीडियो आंदोलनकारियों को खालिस्तानी तक साबित करने का कारण बन गया है। किसी भी आंदोलन की इस तरह की विभाजनकारी परिणति देश के लिए चिंताजनक है और इस समय वही स्थितियां साफ नजर आ रही हैं। सोशल मीडिया इसमें और तेजी से आग लगाने का काम कर रहा है। दोनों स्थितियों में भय व अविश्वास सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। शाहीनबाग के आंदोलनकारियों के मन में अपनी नागरिकता बची रहने का भय व्याप्त था और वे इसे ही मुद्दा बनाकर आंदोलन कर रहे थे।
अब किसानों को अपनी फसल के लिए उचित मूल्य न मिल पाने और बड़े उद्योगपतियों द्वारा उनका हक मारे जाने का डर सता रहा है। दोनों स्थितियों में सरकारी मशीनरी डरे लोगों का डर भगा पाने में सफल नहीं हुई और आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गए। किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह कनाडा सरकार तक से आवाज उठाई गयी है, यह स्थिति चिंताजनक है। किसानों को लगता है कि भारत सरकार द्वारा उनके हित में बताया जा रहा कानून दरअसल उनके खिलाफ लाया गया है। उन्हें डर है कि इस कानून की आड़ में बड़े उद्योगपति किसानों का हक मार लेंगे। वे अपनी फसलों को वाजिब दाम दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त करने की संभावना से डरे हुए हैं।
यह डर इस कदर है कि स्वयं प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था समाप्त नहीं होने जा रही थी, फिर भी वे विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर खरीद को अपराध घोषित करे और न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर सरकारी खरीद को चालू रखा जाए।
प्रधानमंत्री से लेकर कृषि मंत्री तक बार-बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था जारू रखने और सरकारी खरीद बंद न होने की बात कर रहे हैं। इसके बावजूद किसानों को सरकार पर विश्वास ही नहीं हो रहा है। उनका कहना है कि सरकार हाल ही में लाए कृषि सुधार कानूनों में संशोधन कर इस व्यवस्था को उन कानूनों का हिस्सा बनाएं और सरकार इस पर तैयार नहीं हो रही है। पंजाब से शुरू हुआ आंदोलन देश भर में धीरे-धीरे विस्तार ले रहा है। कोरोना के संकट से जूझ रहा देश किसान आंदोलन से उत्पन्न संकट का संत्रास भी बर्दाश्त कर रहा है। इसके पीछे अविश्वास की स्थितियां होना भी खतरनाक है। अब किसानों व सरकार के बीच अविश्वास की खाईं भरी जानी चाहिए। यदि नए कानून वास्तव में किसानों के हित में हैं तो उन्हें यह बात समझाई जानी चाहिए। साथ ही किसानों की जायज मांगों को कानून का हिस्सा बनाने जैसी पहल भी होनी चाहिए, ताकि उनका भरोसा बढ़े। डर हमेशा खतरनाक होता है और डर नहीं समाप्त हुआ तो संकट बढ़ेगा ही।

डॉ.संजीव मिश्र
(लेखक स्तंभकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

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