Filhaal jere bahas hai utter pradesh: उत्तरकथा : फिलहाल जेरे बहस है उत्तर प्रदेश !

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 हिंदी हृदय प्रदेश से पिछले पखवाड़े कुछ ऐसी खबरें आई जो देश – दुनिया में स्याह सुर्खियां बनीं । तमाम अच्छाइयों के बावजूद कुछ ऐसे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण है जिसके चलते उत्तर प्रदेश को लेकर देश के बाकी हिस्सों में खराब राय बनती देखी गई है ।  उन्नाव रेप पीड़िता प्रकरण की पुलिस पड़ताल के अंतिम परिणाम चाहे जो कुछ निकले, प्रथम दृष्टया इस घटना की वीभत्सता ने न सिर्फ  विचलित किया है अपितु सूबे में महिलाओं की दशा को लेकर सरकार सहित समाज को भी चिंतित किया है ।  यह अच्छी बात है कि इस घटना के बाद योगी सरकार ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जो राज्य में महिलाओं के भीतर सुरक्षा बोध और पुलिस सिस्टम को संवेदनशील एवं दुरुस्त करने के लिए बेहद जरूरी थे। महिला और बाल अपराध की लगातार बढ़ती घटनाओं के बाद अदालती दिक्कतों के नाते इंसाफ  मिलने में लगातार हो रही देरी को दुरुस्त करने के लिए  राज्य सरकार ने बड़े पैमाने पर फ़ास्ट ट्रैक कोर्टऔर पॉक्सो अदालतें बनानी शुरू कर दी है ।
 दो दिन बाद ही पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और चंद्रशेखर आजाद की धरती उन्नाव को बदनाम करने वाले एक और चर्चित रेप कांड के मुकदमे में दिल्ली की अदालत फैसला देने जा रही है ।  इस मामले में दो बार समाजवादी पार्टी और फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के चर्चित विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के ऊपर आने वाले फैसले पर देश की निगाहें हैं। यह भी संजोग है कि इसी के आसपास दिल्ली के बहुचर्चित निर्भया कांड के अभियुक्तों की फांसी का भी दिन तय माना जा रहा है । निर्भया भी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की बिटिया थी।
उत्तर प्रदेश आबादी के लिहाज से दुनिया के तमाम देशों से बढ़ा प्रदेश है और आपराधिक घटनाओं को लेकर भी इसकी गिनती उसी अनुपात में होती रही है । लेकिन देश ही नहीं,  दुनिया के उन चंद सूबों में इसका शुमार होता रहा है जो उच्चशिक्षा में अग्रणी हैं।  आजादी के पहले से ही उच्च शिक्षा के सर्वोच्च संस्थान इसी राज्य से आते हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय ने जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय और सर सैयद अहमद ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की तो विश्व के शिक्षा फलक पर इस सूबे का चमकदार नाम चर्चा में आया। वक्त के साथ इन दोनों नामी विश्वविद्यालयों में न सिर्फ शैक्षणिक स्तर में भारी गिरावट आई बल्कि यह परिसर अन्यान्य कारणों से सियासी अखाड़े में तब्दील होते गए। फिलहाल अलीगढ़ और बनारस यूनिवर्सिटी में जो कुछ हो रहा है लज्जाजनक है । बीएचयू के तमाम छात्र पिछले 33 दिनों तक धरने पर बैठे रहे।
वजह ,  संस्कृत  विद्या धर्म विज्ञान  संकाय में  एक मुस्लिम सहायक प्रोफेसर डॉक्टर फिरोज अहमद की तैनाती । छात्रों का विरोध इस बात के लिए था कि एक मुस्लिम अध्यापक उनके विभाग में कैसे संस्कृत पढ़ा सकता है। लंबे आंदोलन के दौरान यह मुद्दा पूरे देश में जेरे बहस रहा और आखिरकार डॉक्टर फिरोज को इस विभाग से इस्तीफा दिलवा कर कला संकाय मैं तैनाती दी गई।
 ध्यान रहे यह वही प्रदेश है जहां दर्जनों स्कूलों में अभी भी मुस्लिम अध्यापक और अध्यापिकाएं हिंदी और संस्कृत पढ़ाते हैं । बहुत से ऐसे विद्यालय मिल जाएंगे जहां तमाम हिंदू शिक्षक उर्दू और फारसी पढ़ाते हैं। मैंने तो बचपन से देखा है कि मेरे गांव सुइथा कला की रामलीला में मोहम्मद युसूफ जैसे शख्स रावण का किरदार करते थे तो इसाक दर्जी भी वानर सेना में नल  -नील की भूमिकामें नजर आते थे ।  दर्जनों ऐसी रामलीलाओं का अभी भी  इसी प्रदेश में मंचन होता हैं जहां राम , लक्ष्मण से लेकर रावण और विभीषण तक की भूमिका में मुस्लिम  नजर आते हैं।
बीएचयू में फिरोज खान विवाद किसी तरह खत्म हुआ तो अगले दिन नया तमाशा शुरू हो गया। जिस संकाय में मुस्लिम शिक्षक को लेकर इतना बवाल मचा, वहीं पर छात्रों ने एक दलित प्रोफेसर को पीट दिया। अब वहां के अध्यापक धरना प्रदर्शन और आंदोलन कर रहे हैं ।
 दूसरी ओर नागरिकता संशोधन बिल पर देश में चल रहे तूफान के बीच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों से एक बार सिर्फ वैसा ही नकारात्मक संदेश दिया है अतीत में जिसके चलते इस परिषद की छवि लगातार खराब हुई है । बहुत बार देखा गया है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में देश विरोधी नारों की चर्चाएं सुर्खियां बनी है तो कई बार पाक परस्त  हरकतें भी इसके दामन पर दाग लगा चुकी है । नागरिकता संशोधन बिल का विरोध करते हुए छात्रों ने प्रधानमंत्री मोदी और के मंत्री अमित शाह के खिलाफ नारे लगाए , यह बात तो सामान्य है । लेकिन इतने महत्वपूर्ण शैक्षणिक परिसर में हिंदुओं  और हिंदुत्व के खिलाफ जिस तरह की नारेबाजी की गई अलीगढ़ जैसे सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील शहर के लिए कतई अच्छी बात नहीं है ।
 योगी सरकार की एनकाउंटर पालिसी
उन्नाव प्रकरण के बाद सवाल उठने लगा है कि सत्ता संभालने के बाद एनकाउंटरों की झड़ी लगा कर अपराधियों में दहशत भर देने का योगी सरकार का दावा क्या महज कागजी ही था। क्या वाकई में योगी की एनकाउंटर पालिसी फेल हुयी है या एनकाउंटर अपराध को रोक पाने का कोई हथियार नही है। तब तो इस दावे पर और भी सवाल उठने लगे हैं जब खुद मुख्यमंत्री योगी से लेकर भाजपा के बड़े नेता व मंत्री सभाओं, रैलियों व प्रेस बयानों में एनकाउंटरों के आंकड़े गिना प्रदेश को भयमुक्त होने का दावा करते नहीं थकते हैं। वैसे मेरा मानना है कि सैकड़ों की तादाद में हुए छोटे पुलिस एनकाउंटर से संगठित अपराध के हालात पर काफी हद तक काबू पाया गया है। अपराधियों में अपेक्षकृत भय देखा गया है लेकिन समाज को निर्भय रखने के जिम्मेदार उत्तर प्रदेश पुलिस का एक बड़ा हिस्सा अभी भी संवेदनशीलता जैसे विषय को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
उन्नाव कांड से हफ्ते भर पहले तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में हुए बर्बर बलात्कार व हत्या के बाद पकड़े गए आरोपियों का वहां की पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया। उन्नाव कांड को लेकर सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक प्लेटफार्मों से लेकर जनता तक ने बलात्कारियों व अपराधियों को इसी तरह की सजा देने की वकालत शुरु कर दी। सूबे में चार बार सत्ता की बागडोर संभाल चुकी मायावती ने भी आनन फानन में बयान दे दिया कि यूपी पुलिस को तेलंगाना से सबक लेने की जरूरत है। यह अलग बात है कि अगले दिन ही राज्यपाल को दिए ज्ञापन में उन्होंने इसे अलग तरीके से पेश करने की कोशिश जरूर की। दरअसल , एनकाउंटरों के जरिए अपराध थामने की वकालत करने वालों के लिए कुछ विचारीणय सवालों पर गौर करना उचित और समीचीन भी होगा। हालांकि हैदराबाद पुलिस की मुठभेड़ पर कुछ लोग शंका कर रहे हैं जब कि कुछ अति प्रसन्न हैं। मुठभेड़ असली थी या प्रायोजित,सत्य तो जांच के बाद ही पता चलेगा । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने पड़ताल शुरू कर दी है और मामला कोर्ट कचहरी तक जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में भी हालात बेकाबू होने पर गुजरे वक़्त कई बार ऐसी ही चर्चित मुठभेड़ें हुई हैं। वर्ष 1991 में  तराई क्षेत्र में सिख आतंकवाद  चरम पर था और हत्या,लूट,फिरौती हेतु अपहरण आम ।ऐसे में पीलीभीत में 10 आतंकी पुलिस मुठभेड़ में मारे गये।  यूपी के मलियाना कांड के चर्चित आईपीएस अधिकारी आरडी त्रिपाठी उस वक़्त पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात थे ।
पहले जनता,मीडिया ने स्वागत किया और बाद में इस मुठभेड़ का सिखों में विरोध हुआ।सरकार ने उच्च न्यायालय के वर्तमान जज से न्यायिक जांच करायी जिन्होनें इसे सही माना।बाद में एक जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी सीबीआई जांच कराई जिसने मृतको को आतंकी व 57 पुलिस कर्मियों को  मारे गये आतंकियों का अपहरण कर हत्या करने का दोषी माना।न्यायालय ने सभी को अप्रैल  2016 में आजीवन कारावास की सजा दी जो लखनऊ जेल में सजा काट रहे हैं।
आज कोई भी व्यक्ति या संस्था उनकी सहायता के लिये घड़ियाली आंसू तक नहीं बहा रहा है। जरा सोचिये,उनकी व उनके परिवार की दशा क्या होगी ।  ये सभी निचले श्रेणी के पुलिसजन हैं। आर्थिक विपन्नता में मुकदमा भी नहीं लड़ पा रहे हैं। इन पुलिसजन ने अपने स्वार्थ ,दुश्मनी या लोभ में मुठभेड़ नहीं की थी और न ही मृतक शरीफ थे। इन 57  पुलिसजन मे से दस मुकदमें के समय,दो सजा के बाद दिवंगत हो चुके हैं । शेष जेल में अपनी मौत की आहट सुन रहे हैं।जिस समाज के लिये मुठभेड़ की,वह अब उन्हें भूल चुका है।
आज जिस गति से समाज में छोटी बच्चियों,लड़कियों के साथ बर्बरता पूर्वक बलात्कार की घटनायें हो रही हैं,कुछ में साक्ष्य नष्ट करने हेतु उनकी हत्या भी की जारही है,वह स्तब्धकारी है। पीड़ित पक्ष पुलिस में मुकदमा लिखाता है।कुछ में मुल्जिम का पता ही नहीं चलता।जिसमें पता भी चला,वे गिरफ्तार भी हुये और उनका मुकदमा भी चला।यह मुकदमा कितने साल चलेगा,अदालत में पीड़िता से कैसे कैसे अपमानजनक प्रश्न होंगे आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते।ऐसी लड़की की शादी में क्या समस्या आ सकती है । यदि किसी तरह यह तथ्य छिपाकर शादी हो भी गयी तो मुकदमें में उसके ससुराल वाले कैसा व्यवहार करेगें, लड़की के बाहर निकलने पर क्या क्या फिकरे कसे जाएंगे ,यह समझा जा सकता है।ऐसे में लड़की के पास आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प बचता है।
इन मुकदमें में अधिक समय लगने या मुल्जिम के दबंग या धनाढ्य होने पर गवाह टूट जाते हैं।यदि निचली अदालत में सजा भी हुई तो उच्च,सर्वोच्च न्यायालय में अपील होगी जिसका फैसला भी पर्याप्त समय लेगा और प्राय: कहीं न कहीं से कुछ मुल्जिम छूट भी जाते हैं। पीड़िता के पिता,पति या भाई की मन: स्थिति  क्या होगी,उनकी  बदनामी भी हुई,लड़की का जीवन भी बरबाद हुआ,मुल्जिम भी आजाद घूम रहे हैं।ऐसे में उसके पास बदला ही विकल्प बचता है और इसका उपयोग भी धड़ल्ले से हो भी रहा है।
हैदराबाद प्रकरण में न तो चश्मदीद साक्ष्य हैं और पीड़िता को जला देने से घटनास्थल के साक्ष्य भी समाप्त हो गये।मुल्जिमों की  पुलिस के समक्ष जुर्म स्वीकारोक्ति न तो मान्य है न वे अदालत में इसे स्वीकारते।ऐसी स्थिति में पुलिस इधर उधर की साक्ष्य पर चालान  करती भी तो न्यायालय से वे छूट जाते और फिर न जाने कितनों की अस्मत लूटते।
पहले पुलिस लड़की छेड़ने वालों को उसी मुहल्ले में पीटती थी,मुंह काला कर या सर के बाल मुड़वा कर गधे पर बिठा कर बाजार में घुमा देती थी जिससे वे ऐसी हरकत से बचते थे।अब तो मानवाधिकार,न्यायालय , वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल करने वालों के डर से पुलिस स्वयं सहमी व रक्षात्मक रहती है।अब तो सात साल तक की सजा वाले अपराध में पुलिस मुल्जिम को  गिरफ्तार कर जमानत देने के लिये बाध्य है । नाबालिग को जेल नही भेज सकते,तो छोटे अपराधों में वे जेल भी नहीं जाते।पुलिस का इकबाल पर लगातार सवाल हैं ।  समाज जो पहले ऐसे लोगों का बहिष्कार करता था,वह भी खामोश है ।अपराधी चुनाव जीत कर सरकार बना रहे हैं । ऐसी स्थिति में हम अपनी बहन बेटी,पत्नी की रक्षा कैसे करें,इस पर अदालत,  मानवाधिकार के रक्षक,मीडिया,जनप्रतिनिधि अधिक मुखर हों तो बेहतर होगा।अंगरक्षकों से घिरे,एसी कमरों में रहने वाले,कारों के काफिलों में चलने वाले ऐसे लोगों को इस समस्या से दो चार नहीं होना पड़ता।इसलिये वे   ऐसी हर घटना पर  घड़ियाली आंसू बहायेंगें,विरोधी धरना देंगे,सत्ताधारी “कानून अपना काम करेगा “का प्रवचन देकर भूल जायेगे ,रह जायेगी तो बस पीड़िता व उसका अभागा परिवार। एक पिता,भाई,पति  व नागरिक के रूप में  हैदराबाद पुलिस द्वारा बलात्कारियों के बध किये जाने का हृदय से समर्थन किया जा सकता है, सम्भव है इसमें उन्हे नुकसान हो लेकिन  उनके इस कृत्य का अपराधियों में कुछ खौफ भी अवश्य होगा। बावजूद इस सबके यह देखना होगा कि क्या लोकतंत्र में संविधान व कानून का राज होगा या मध्ययुगीन समाज की तरह मौके पर इंसाफ की रवायत फिर से जिंदा की जाएगी।

हेमंत तिवारी

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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