China’s growing dominance in Asia is a crisis for India! एशिया में चीन का बढ़ता प्रभुत्व भारत के लिए संकट!

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पिछली दिवाली के दौरान हम श्रीलंका में थे। वहां के बाजार चीनी उत्पादों से पटे पड़े थे। वहां की सबसे बड़ी सड़क जो चीन के दो सिरों को जोड़ती है, उसे चीन ने बनाकर तैयार किया है। वहां के महत्वपूर्ण पोर्ट का रखरखाव चीन ही कर रहा है। हमने पूछा कि आपके यहां भारत ने बहुत काम किया है, फिर चीन को सारा आधारभूत ढांचा क्यों सौंप रहे हैं। वहां के अधिकारियों ने बताया कि पिछले चार-पांच साल में चीन से हमारे रिश्ते मजबूत हुए है क्योंकि चीन ने हमें आधारभूत विकास में भारी मदद की है। वह हमें कर्ज भी देता है और कम लागत में अच्छा काम भी। भारत हमारी ऐसी मदद नहीं करता। श्रीलंका अपने नागरिकों के हितों से कोई समझौता नहीं कर सकता। चीन हमें उन्नत किस्म के उत्पाद, कम कीमत पर उपलब्ध कराता है। चीन की मदद से श्रीलंका का अपने सभी क्षेत्रों से जुड़ाव बढ़ा है। यही कारण है कि हम चीन से अपनापन महसूस कर रहे हैं। हम श्रीलंका के तत्कालीन राजदूत तरनजीत सिंह संधू, जो अब अमेरिका में भारत के राजदूत हैं से मिले, हमने उनसे सवाल किया कि श्रीलंका भारत के बजाय चीनी कंपनियों और सरकार से अधिक समझौते क्यों कर रहा है? उन्होंने कहा कि भारत भी आगे कदम बढ़ा रहा है। अराइवल वीजा से लेकर, फ्री वीजा तक की हमने व्यवस्था की है। भारत यहां से धार्मिक संबंध जोड़ने में लगा है। हम मंदिर विकसित कर रहे हैं। उनके जवाब ने हमें चिंतन करने को विवश कर दिया, कि हम कौन सा खाका तैयार कर रहे हैं।

एशिया पैसिफिक में चीन का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। इस क्षेत्र के अधिकतर देश न सिर्फ चीन के कर्जदार हैं बल्कि वहां के ढांचागत विकास में चीन की अहम भूमिका है। इसके जरिए चीन ने तमाम देशों में अपनी बड़ी पकड़ बनाई है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव और नेपाल को चीन ने अपने कर्ज़ के तले दबा लिया है। अमेरिकी रिपोर्ट के मुताबिक चीन के चार बड़े सरकारी बैंकों में से तीन ने कारपोरेट लोन देने से अधिक बाहरी देशों को कर्ज़ दिया है। चीन ने अपने प्रभाव को मजबूत करने के लिए कर्ज की रणनीति अपनाई है। वह अपनी कंपनियों को दुनिया के उन देशों में व्यवसाय करने के लिए भेज रहा है, जहां से एकतरफ़ा मुनाफ़ा कमाया जा सके। एक अरब डॉलर से अधिक के कर्ज़ के बोझ के चलते श्रीलंका को अपना हम्बनटोटा पोर्ट ही चीन को देना पड़ा। मालदीव ने अपनी तमाम परियोजनाएं भारत से छीनकर चीन को सौंप दी हैं। भारतीय कंपनी जीएमआर से 511 अरब डॉलर की अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा परियोजना को भी मालदीव ने छीनकर चीन को दे दी। अब मालदीव की कई परियोजनाओं का विकास चीन कर रहा है। वह चीन के कर्ज के जाल में फंस चुका है। चीन एशियाई देशों में ही नहीं बल्कि अफ़्रीकी देशों में भी आधारभूत ढांचा विकसित करने पर काम कर रहा है। ऐसे ही एक देश जिबुती ने अपना सबसे अहम पोर्ट चीन को सौंप दिया। जिबुती में अमरीका ने अपना सैन्य ठिकाना बनाया हुआ था। इससे वह असुरक्षित हो गया है, जिससे अमरीका जिबुती से काफी खफा है।

अमेरिकी विदेश मंत्री ने अपनी संसद को बताया था, कि  चीन तमाम देशों को अपने ऊपर निर्भर बनने के लिए काम कर रहा है। वह बेहिसाब कर्ज़ देकर उनसे अपने मुताबिक काम करवाने को मजबूर करने की स्थिति में है। ऐसे देशों की आत्मनिर्भता के साथ ही संप्रभुता भी खतरे में है। चीन आधारभूत ढांचों का विकास करने में सक्षम है। द सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट का मानना है कि “वन बेल्ट वन रोड” परियोजना में भागीदार बनने वाले आठ देश जिबुती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोन्टेनेग्रो, पाकिस्तान और तजाकिस्तान, चीनी कर्ज़ में दबे हैं। सामरिक महत्व की इस परियोजना से भारत और अमेरिका दोनों के लिए ही खतरा है। पाकिस्तान में ग्वादर और चीन के समझौते को लेकर बताया गया है कि पाकिस्तान चीन के आर्थिक उपनिवेश का हिस्सा बन रहा है। अभी चीन ने बांग्ला देश और भूटान से भी करीबी संबंधों के साथ ही परियोजनाओं पर काम शुरू कर दिया है। इस कड़ी में वह नेपाल, भूटान और बांग्लादेश को भी एक रोड नेटवर्क से जोड़ लेगा। इनके जुड़ने के बाद भारत चारो तरफ से घिर जाएगा। इस परियोजना पर काम भी हो रहा है। वहीं डोकलाम में चीनी सड़क बनकर तैयार हो चुकी है। पाकिस्तान से चीन सीधे सड़क मार्ग से जुड़ रहा है। अब उसकी रेल लाइन डालने की भी योजना है। जो भारत के लिए खतरे की घंटी नहीं बल्कि घंटा है। उधर, चाहे लद्दाख हो या अरुणाचल दोनों ही राज्यों में चीन ने हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि कब्जा कर रखी है। वहां भी वह आधारभूत ढांचा खड़ा करने की तैयारी में है।

पिछले कुछ सालों में चीन ने जिस तरह से हमारे साथ झूला झूलते हुए पीठ में खंजर चलाया है, उससे हम काफी कमजोर हुए हैं। यही कारण है कि बदतर अर्थव्यवस्था के बावजूद हम अपना धन व्यवस्था को सुधारने के बजाय सुरक्षा उपकरण खरीदने में लगा रहे हैं। हम बने ढांचों को गिराकर नया ढांचा बनाने की होड़ में पड़े हैं मगर हमारे देश का ढांचा चरमरा रहा है। चीन के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए हालांकि हमारे पास कोई कारगर उपाय नहीं है। हाल के दिनों में भारत, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने एक गठबंधन बनाकर चीन के खिलाफ रणनीति पर काम शुरू किया ही था कि इसी सप्ताह जापान की सत्ता बदल गई। ऐसे में आर्थिक तंगी का शिकार हो रहा जापान इस नीति पर कितना काम करेगा, यह देखना होगा। वहीं, अमेरिका की अंदरूनी राजनीति में ट्रंप की हैसियत काफी गिरी है। वहां भी जल्द ही चुनाव संभावित हैं। अगर वहां भी निजाम बदल गया तो नीतियों में भी बदलाव होगा, जो इस रणनीति को कमजोर करेगा। इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में साझेदारी के तहत ट्रेड सप्लाई चेन बन जाती तो शायद कोई लाभ मिलता मगर उस पर बहुत सार्थक काम नहीं हो पाया है। भारत की दोषपूर्ण आर्थिक नीतियों, नोटबंदी, बेमेल जीएसटी, राज्यों की खस्ता हालत और सामाजिक विषाक्त वातावरण ने देश को काफी कमजोर किया है। इनके चलते हमारी आर्थिक दशा पहले ही बदतर हो चुकी थी, कोविड-19 ने अब हमारी कमर ही तोड़ दी है। अब हम विश्व की सबसे खराब अर्थव्यवस्था बन गये हैं।

हमारे देश की समस्या यह है कि हमारे हुक्मरां, आम नागरिकों, उपभोक्ताओं, गरीब कामगार-किसानों के हित ध्यान में रखकर नीतियां नहीं बनाते बल्कि वह कारपोरेट और बड़े व्यवसायियों के हितों में कानून-नीतियां बनाते हैं। जब हम आमजन हित नहीं करते तो, उनका ध्यान भटकाने में लग जाते हैं। कभी शिक्षा के नाम पर तो कभी इतिहास-भूगोल और सांप्रदायिक घृणा के खेल में। इससे न देश के अंदर समृद्धि और शांति बन पाती है और न ही देश की सीमाओं पर। हमारी इन नीतियों का फायदा दुश्मनों को मिलता है। वह चारो ओर से हमें घेर लेते हैं, तब हम अपने नागरिकों और देश के विकास पर खर्च करने के बजाय हथियारों की खरीद में धन व्यय करने लगते हैं। फिलहाल यही हो रहा है। अगर वक्त रहते न चेते, तो सबकुछ हाथ से निकल जाएगा और जनता तालियां पीटते।

जय हिंद!

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)  

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