Budget going away from public welfare 2021 – 22: लोक कल्याण से दूर होता हुआ बजट 2021 – 22

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7, लोक कल्याण मार्ग प्रधानमंत्री का सरकारी आवास है। यह पहले रेसकोर्स रोड कहा जाता था। यह भी एक विडंबना है कि, जब से यह नाम बदल कर 7, लोक कल्याण मार्ग हुआ है, तब से संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा, पीछे छूट गयी है। आज़ादी के बाद देश ने कुछ प्राथमिकताएं तय की थीं, जिनमे सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, कृषि, शिक्षा और रोजगार। आज़ादी के बाद देश की आय, उन्नति, और जीवन यापन का सबसे महत्वपूर्ण आधार कृषि रहा है। उस समय सरकार ने कृषि के सम्यक विकास के लिये भूमि सुधार कार्यक्रम, जिंसमे जमींदारी उन्मूलन एक प्रमुख कार्यक्रम था, को लागू किया। कृषि में उपज बढ़ाने के लिये सिंचाई योजनाएं चलाई गयी, कृषि विकास के लिये कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गयी, बीज उत्पादन और विशेष फसलों के लिये अलग अलग शोध संस्थानों की स्थापना की गयी, हरित क्रांति की शुरुआत हुयी और आज़ादी के 25 साल के अंदर ही देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। कृषि ही वह मज़बूत सेक्टर है जिसने शून्य से नीचे जाती मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, एमएसएमई, और रीयल सेक्टर में पहले नोटबन्दी और फिर कोरोना के बाद आयी भयानक मंदी के बाद, देश की आर्थिकी को संभाला। उसी के बाद इस सेक्टर पर निजी क्षेत्रों और कॉरपोरेट की गिद्ध दृष्टि पड़ी, परिणामस्वरूप सरकार ने कृषि व्यापार से जुड़े तीन कानून 20 सितंबर को पास कराये जिनका लगभग तीन महीने से लगातार देशव्यापी विरोच हो रहा है।

शिक्षा के क्षेत्र में, सरकार ने सामान्य स्कूलों, विद्यालयों के अतिरिक्त इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खोले। तकनीकी शिक्षा के लिये आईआईटी, एम्स और अन्य बड़ी संस्थाएं खोली गयीं। जब शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश हो रहा था तब तक सरकारी संस्थाओं ने ऐसे प्रतिभावान छात्रों को तैयार कर दिया था कि उनकी प्रतिभा से विदेशों को भी चमत्कृत कर दिया था। प्रतिभा पलायन, उन प्रतिभाओं को अपने देश मे उचित स्थान न मिलने की खेदजनक स्थिति तो थी, पर यह सब सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किये गए योगदान का भी परिणाम था। सरकारी शिक्षा न केवल सस्ती होती थी, बल्कि वह समाज के गरीब और वंचित प्रतिभावान छात्रों के लिये भी सुलभ थी। विश्वविद्यालय हों या तकनीकी संस्थान, इनका मुख्य उद्देश्य प्रतिभा को उचित शिक्षा का अवसर प्रदान करना था, न कि व्यापारिक लाभ हानि के दृष्टिकोण से शिक्षा संस्थानों को चलाना।

रोजगार के लिये उद्योग नीति लायी गयी, जिसमें सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया। बड़े और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी बड़ी बड़ी योजनाएं, सरकार ने खुद शुरू की और मध्यम तथा छोटे मझोले उद्योग निजी क्षेत्र में आये। 1970 में 14 बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया। उसी साल राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म किये गए। सरकार की आर्थिकी का स्पष्ट झुकाव, समाजवादी समाज की स्थापना की ओर था। लेकिन, 1990 में आकर सरकार की यह नीति बदली और निजी क्षेत्र, जो तब के न्यू वर्ल्ड ऑर्डर में, एक संगठित बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट के रूप में बदल रहा था, ने सरकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुनौती देनी शुरू कर दी और उसका प्रवेश इंफ्रास्ट्रक्चर तथा अन्य बड़े उद्योगों में भी हुआ। 1990 के बाद एक नया क्षेत्र शुरू हुआ सर्विस सेक्टर, जो इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के प्रसार के बाद सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र बना। लेकिन सामान्य जन के लिये सबसे अधिक रोजगार और नौकरियों की संभावना कृषि और असंगठित क्षेत्र में बनी रही। असंगठित क्षेत्र में रीयल स्टेट एक प्रमुख क्षेत्र रहा। लेकिन नोटबन्दी और कोरोना आपदा के बाद सबसे अधिक नुकसान और मंदी इसी क्षेत्र को उठानी पड़ी।

इस निजीकरण की आंधी ने शिक्षा को भी नही छोड़ा और तकनीकी शिक्षा सहित अन्य महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थान भी निजीकरण के शिकार धीरे धीरे होने लगे। बजट 2021 -22 में शिक्षा के लिये जो आवंटन था, वह कम हो गया है। शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षा के विविध आयामो की तो बात ही छोड़ दीजिए, जिस गति से आबादी बढ़ रही है, उस गति से शिक्षा का बजट कम होता जा रहा है। कहने को तो हमारा सालाना बजट आम बजट कहलाता है, पर यह धीरे धीरे खास बजट बन गया है। आम लोगों की संसद में, आम लोगों के नाम पर, आम चुनावों द्वारा चुनी गयी सरकार द्वारा पेश किया जाने वाला यह वार्षिक आय व्यय का लेखा जोखा, खास लोगों को ध्यान में रख कर बनाया हुआ बजट बन गया है। बजट 2021 – 22 के अर्थशास्त्रियों की एक राय बहुमत से है कि, यह बजट आय व्यय के किसी लेखे जोखे के बजाय, सरकारी संपत्तियों के विनिवेश का एक मसौदा है। विनिवेश, यानी, सरकारी कंपनियों में सरकार की जो हिस्सेदारी है, उसे बेचने का तकनीकी नामकरण है। सच तो यह है कि सरकार अपनी कम्पनिया, कॉरपोरेट सेक्टर को बेच रही है। कभी निवेश आमंत्रित करने को सतत उत्सुक रहने वाली सरकार, अब अपनी पूंजी अपनी ही बनाई सरकारी कम्पनियों को बेच कर, निकालने की जुगत में है। यहीं यह सवाल उठता है कि सरकार आखिर अपनी सम्पत्तिया बेच क्यों रही है। निर्मला सीतारमण, वित्तमंत्री ने इसका एक कारण यह बताया है कि, जब सरकार अपनी कम्पनियों को चला ही नहीं पा रही है तो, वह उसे रख कर क्या करेगी ? क्या सरकार द्वारा उसकी अक्षमता का आत्मस्वीकारोक्ति नही है ? एक अक्षम सरकार, अपनी सम्पत्तियों की रक्षा, प्रबंधन और विकास नहीं कर सकती, तो वह उसे बेचने की ही बात सोचने लगती है। सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियां, जिन्होने, देश के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, सरकार उन्हें भी अब विनिवेश जैसे खूबसूरत नाम के साथ ही बेच देना चाहती है।

2014 के चुनाव में लोकप्रियता के पंख पर सवार जब एनडीए या भाजपा सरकार आयी तो सबसे अधिक उम्मीद, इस सरकार से युवा, व्यापारी, किसान और उद्योगपतियों को थी। अन्ना आन्दोलन ने युवाओं की अपेक्षाओं को जगा दिया था। गुजरात के विकास की अंतर्कथा की जानकारी से वंचित लोग, गुजरात जैसे विकास की उम्मीद में मुब्तिला थे। 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का वादा, युवाओं को लुभा रहा था। और लोगों को लग रहा था, 12 साल में गुजरात की तकदीर बदल देने वाले विकास पुरूष की उपाधि से अलंकृत नरेंद मोदी, देश का काया पलट कर देंगे। पर 2016 की नोटबन्दी के बाद, हम बजट दर बजट खिसकते जीडीपी के साथ साथ नीचे आने लगे और, 2020 की 31 मार्च को जीडीपी 5 % पर आ गयी। फिर तो उसके बाद, कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को ही संक्रमित कर दिया। मार्च 2021 में जीडीपी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गयी और माइनस 23.9% पर आ गयी। इस साल अनुमान है कि 11% की वृद्धि होगी, लेकिन, इतनी वृद्धि के बावजूद भी जीडीपी माइनस में ही रहेगी। दस साल पहले भारत दुनिया की सबसे उभरती हुयी आर्थिकी था, अब वह दुनिया की सबसे गिरती हुयी आर्थिकी बन गया है। कोरोना आपदा, इस स्थिति के लिये जिम्मेदार है, लेकिन यदि आर्थिकी के पिछले 6 साल के आंकड़ों का, यदि अध्ययन किया जाय तो, साल 2016 के 8 नवम्बर, की रात 8 बजे, देश की 84 % मुद्रा का विमुद्रिकरण कर देना, आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास में, किसी भी सरकार द्वारा उठाया गया सबसे अपरिपक्व और आत्मघाती कदम कहा जायेगा, और यह एक ऐतिहासिक भूल थी।

इंडियन पोलिटिकल ड्रामा में 19 जनवरी 2021 को त्रिरंजन चक्रवर्ती ने देश की बढ़ती बेरोजगारी पर एक शोधपरक लेख लिखा था। लेख में उन्होंने बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर एक छोटी मगर सारगर्भित टिप्पणी की है। उक्त लेख के अनुसार, दिसंबर 2020 में बेरोजगारी की दर, नवम्बर 2020 की बेरोजगारी की दर, जो 6.50% थी से, तेजी से बढ़ कर, 9.06% हो गयी है। यह आंकड़ा, सरकार के ही विभाग, सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ( सीएमआईई ) द्वारा जारी किया गया है। पिछली बार बेरोजगारी में इतनी तेज वृद्धि, जून 2020 में हुयी थी। जून 2020, कोरोना आपदा का सबसे कठिन काल था, जब देश भर में लॉकडाउन था, और सारी औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां, लगभग ठप थीं। उस समय बेरोजगारी दर में इतनी तेज बढोत्तरी का एक उचित कारण कोरोना था, जो वैश्विक था। उस समय सीएमआईई के अनुसार, बेरोजगारी की दर 10.18% थी। लेकिन जुलाई से औद्योगिक और व्यायसायिक गतिविधियों में तेजी आयी और बाजारों में रौनक भी बढ़ी, लेकिन क्या कारण है कि बेरोजगारी दर जून 2020 के ही आसपास दिसंबर 2020 में ही रही ? इस पर त्रिरंजन चक्रवर्ती अपनी राय देते हुए कहते हैं कि, हमारी आर्थिकी, लॉक डाउन और कोरोना आपदा के बाद सामान्य होती हुयी परिस्थितियों में भी नौकरी या रोजगार के उतने अवसर नहीं पैदा कर सकी, जितनी की उसे करना चाहिए था। अगर शहरी और ग्रामीण सेक्टरों में बांट कर अलग अलग इस दर को देखें तो, बेरोजगारी की दर, ग्रामीण क्षेत्र में अधिक भयावह और चिंताजनक है।

अब सीएमआईई के दो आंकड़ो की चर्चा करते है। एक आंकड़ा है, जुलाई 2020 से दिसंबर 2020 तक, देश मे कुल और फिर शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रो के अलग अलग बढ़ती हुए बेरोजगारी दर की। जुलाई 2020 में, कुल बेरोजगारी दर, 7.40% रही है और फिर हर माह कुछ न कुछ बढ़ते घटते हुए, अगस्त में, 8.35%, सितंबर में, 6.68%, अक्टूबर में, 7.02%, नवंबर में,6.50 और दिसंबर में, 9.06% तक पहुंच गयी।

इसी प्रकार, शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 9.37%, अगस्त में,9.83%, सितंबर में, 8.45%, अक्टूबर में,7.18%, नवंबर में, 7.07% और दिसंबर में, 8.84% रही है।

इसी अवधि में ग्रामीण क्षेत्रो में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 6.52%, अगस्त में, 7.65%, सितंबर में,5.88%, अक्टूबर में, 6.95%, नवंबर में, 6.24% और दिसंबर में, 9.15% रही है।

सीएमआईई, जब बेरोजगारी के आंकड़े तैयार करती है तो वह एक तकनीकी शब्द प्रयुक्त करती है, लेबर पार्टिसिपेशन रेट ( एलपीआर ). एलपीआर का अर्थ है कि, रोजगार की तलाश में कितने लोगों की संख्या में वृद्धि हुयी है। यदि यह संख्या बढ़ रही है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि वर्कफोर्स में हो रही वृद्धि की तुलना में नौकरी या रोजगार के अवसर उतने नहीं बढ़ रहे हैं। यानी या तो औद्योगिक, व्यावसायिक औऱ अन्य नौकरी प्रदाता संस्थान बढ़ नही रहे हैं या उनकी क्षमता कम हो रही है। ऐसी स्थिति में बेरोजगारी का दर बढ़ना लाज़िमी ही होगा। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2020 में, 4 करोड़ 27 लाख लोग काम की तलाश में थे, जबकि नवम्बर 2020 में यह आंकड़ा, 4 करोड़ 21 लाख का था। एक माह में यह वृध्दि 6 लाख की है। यही कारण है कि दिसम्बर 2020 में बेरोजगारी के आंकड़ो में चिंताजनक वृध्दि हुयी है। देश मे सबसे अधिक श्रम बल, कृषि क्षेत्र देता है और दिसंबर मे खेती का काम कम हो जाता है तो उसका सीधा असर, देश के बेरोजगारी के आंकड़ों पर पड़ता है। यह इस बात को भी बताता है कि सरकार देश को सबसे अधिक काम देने वाले सेक्टर को, सबसे अधिक उपेक्षा से ट्रीट करती है।

अब कुछ राज्यों के बेरोजगारी दर के आंकड़े देखिये। दिसंबर 2020 में, सबसे अधिक बेरोजगारी दर, 32.5%, हरियाणा में रही। उसके बाद, 28.2% राजस्थान मे रही है। दो अंकों में जिन राज्यो की बेरोजगारी दर रही है, वे हैं, झारखंड, 12.4%, बिहार 12.7%, गोवा 13.2%, उत्तर प्रदेश 14.9%, जम्मूकश्मीर 16.6% और त्रिपुरा 18.2%. इसके अतिरिक्त देश के अन्य राज्य और केंद्र शासित राज्यो की बेरोजगारी दर, एक अंक में रही है।

बेरोजगारी का बढ़ना, महज कुछ आंकड़ो का परिवर्तन ही नही है बल्कि समाज में व्याप्त अंसन्तोष, आक्रोश और अवसाद का भी एक बड़ा कारण है। बढ़ती हुयी बेरोजगार युवाओं की संख्या का असर, समाज के तानेबाने और अपराध की स्थिति पर पड़ता है। यह जब जनअसंतोष का रूप ले लेता है, तो बेरोजगारी की समस्या तो अलग छूट जाती है और अन्य नयी समस्यायें पैदा होने लगती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी का कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम इकाइयों पर सरकार की आर्थिक नीतियों का असर पड़ना है। नोटबन्दी का सबसे बुरा प्रभाव, एमएसएमई कम्पनियों पर पड़ा। जिन्हें हम कुटीर उद्योग के रूप में कभी जानते थे। स्थानीय लोगो को अपने घर गांव के आसपास रोजगार और नौकरियों का अवसर देने वाला यह सेक्टर बुरी तरह से तबाह हो गया था। अब यह धीरे धीरे सुधर तो रहा है, पर इसे और बेहतर तरह से तरक़्की करने के लिये सरकार को अपनी प्राथमिकता में इस सेक्टर को लाना पड़ेगा। जबकि सरकार की प्राथमिकता में कॉरपोरेट है और अब तो यही स्थिति हो गयी है कि कॉरपोरेट की ही सरकार है और शेष कॉरपोरेट के शोषित उपनिवेश की तरह हैं। स्थानीय स्तर पर एमएसएमई के विस्तार और उनकी सबलता से न केवल कामगारों के पलायन और विस्थापन पर असर पड़ेगा, बल्कि, इससे ग्रामीण क्षेत्रो का सम्यक विकास भी हो सकेगा। अब यह तो समय ही बता पायेगा कि, बजट 2021 देश की बेरोजगारी की समस्या को दूर करने मे कितना सक्षम होता है।

नये बजट के अनुसार, सरकार व्यापक स्तर पर सरकारी उपक्रमो का निजीकरण करने जा रही है। बिजनेस स्टैंडर्ड के एक लेख के अनुसार, इस साल 23 कंपनियों में निजीकरण या उन्हें बेचने की मंजूरी दी जा चुकी है। साल, 2019 के पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे के अनुसार, भारत में कुल 348 सरकारी कंपनियां हैं। नीति आयोग, जो इस समय निजीकरण आयोग की तरह काम करने लगा है, ऐसी कंपनियों की एक सूची बना कर इस कार्ययोजना पर काम कर रहा है जिन्हें सरकार निजी क्षेत्र को बेच देना चाहती है। इन कंपनियों में बैंक और बीमा कंपनियां भी शामिल हैं। जीवन बीमा निगम, यानी एलआईसी भी नीति आयोग की सूची और कार्ययोजना में शामिल है। सरकारी उपक्रमो के बारे में अध्ययन करने वाले कंपनी कानून के विशेषज्ञों के एक समूह का अनुमान है कि, अगले कुछ वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या सिमटकर लगभग 25 के आसपास बच जाएगी। पिछले 70 सालों में जनता के टैक्स से बनायी गयी, 348 सरकारी कंपनियों में से 330 कंपनियां निजी क्षेत्र को बेंच दी जायेंगी।

यह विनिवेश या कम्पनी बेचो अभियान का असर, न केवल बेरोजगारी पर पड़ेगा, बल्कि इसका एक घातक प्रभाव, संविधान में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये, आरक्षण के अधिकार पर भी पड़ेगा। 348 से सिमट कर 25 सरकारी कम्पनियां हों जाने पर, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उन युवाओं के सामने, नौकरी की नयी चुनौती खड़ी हो जाएगी, जिन्हें सरकारी नौकरियों में अब तक 49.5% तक आरक्षण मिलता था। निजी क्षेत्र, आरक्षण के उक्त संवैधानिक प्राविधान से मुक्त हैं, तो उनकी ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं है कि वे, देश के आरक्षित समूहों को नौकरी दें। बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस समस्या का अध्ययन, देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम के संदर्भ में किया है। सरकार बीपीसीएल की 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी में है।

बिजनेस स्टैंडर्ड के लेख में, बीपीसीएल के ह्यूमन रिसोर्स पर किये अध्ययन के अनुसार,

” इस कम्पनी में, 1 जनवरी 2019 तक 11,894 कर्मचारी काम कर रहे थे। इनमें पिछड़ा वर्ग के 2042, अनुसूचित जाति के 1921 और 743 अनुसूचित जनजाति के कर्मचारी थे। इनमें 90% से ज्यादा भर्तियां आरक्षण के तहत हुई थीं। प्राइवेटाइजेशन के बाद वहां की चार हजार से ज्यादा आरक्षित भर्तियों को भी खुली भर्ती से भरा जाएगा। यह एक उदाहरण है।”

इसी उदाहरण के पैटर्न पर अन्य सरकारी कंपनियों का सिसिलेवार अध्ययन किया जा सकता है। इससे जिन उद्देश्यों से समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक उत्थान के लिये आरक्षण की सुविधा, संविधान में दी गयी है, वे उद्देश्य पूरे नहीं हो सकेंगे।

एक अनुमान के अनुसार, सरकारी कंपनियों के निजी हाथों में चले जाने से करीब 7 लाख आरक्षित नौकरियों पर संकट आ सकता है। पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे की साल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी कंपनियों में कर्मचारियों की कुल संख्या करीब 15 लाख है। इसमें से 10.4 लाख स्थायी कर्मचारी हैं। इन नौकरियों में अनुसूचित जाति के लिए 15%, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% और ओबीसी के लिए 27% आरक्षण है। सरकारी कंपनियां विनिवेश के बाद निजी हाथों में जाएंगी तो नौकरियों से आरक्षण की कोई गारंटी नहीं रहेगी। इससे 49.5 प्रतिशत भर्तियां होंगी, जिनकी संख्या करीब 7 लाख हो सकती है।

ऐसा नहीं है कि इन सब विसंगतियों पर अध्ययन और प्रतिक्रियाये नहीं आ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया तो, यहां तक कहते हैं कि,

” सरकारी कंपनियों का प्राइवेटाइजेशन आरक्षण खत्म करने के लिए ही किया जा रहा है। अब रिवर्स आरक्षण का दौर चल रहा है। आने वाले दिनों में एक बार फिर से समाज में एक बड़ी खाई देखने को मिलेगी।”

ऐसी प्रतिक्रिया केवल अनिल चमड़िया की ही नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर सामाजिक न्याय के मुद्दों को लगातार उठाने वाले सामाजिक चिंतक, सरकार पर आरक्षण को खत्म करने की साज़िश करने का, सीधा आरोप लगाते हैं। लैटरल एंट्री वाली नौकरियां में, आरक्षण न होने और निजीकरण के कारण, पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग में आरक्षण खत्म होने की संभावना के कारण यह आशंका निर्मूल नहीं है कि सरकार आरक्षण को कमज़ोर करने की तैयारी में हैं। संविदा पर भर्ती को भी इसी रणनीति का एक हिस्सा माना जा रहा है।

आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है, और जब बेरोजगारी की गति बढ़ने लगती है, नौकरियों के अवसर सिकुड़ने लगते हैं तो, यह मुद्दा और भी संवेदनशील हो जाता है। जैसे-जैसे प्राइवेटाइजेशन बढ़ा, आरक्षण से मिलने वाली नौकरियां वैसे वैसे कम होती गयीं। वर्ष 2001 से 2004 के बीच अब तक का सबसे बड़ा निजीकरण अभियान चलाया गया। 14 बड़ी सरकारी कंपनियों को पूरी तरह प्राइवेटाइज करने की कोशिश की गई। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित क्रिस्टोफर जैफरलॉट के एक लेख के अनुसार, 2003 में केंद्र सरकार के अनुसूचित जाति/जनजाति के 5.40 लाख कर्मचारी थे जो 2012 तक 16% घटकर 4.55 लाख हो गए।

इसी प्रकार उसी लेख के अनुसार,

” साल 1992 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण की शुरुआत हुई। तब 2004 तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी 16.6% थी, 2014 आते-आते 28.5% हो गई। देश में ओबीसी की जनसंख्या करीब 41% है। आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में वे बराबरी की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद इसकी भी गारंटी नहीं रह जाएगी।”

इन बड़ी कंपनियों के अतिरिक्त, भारत सरकार ने, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को भी प्राइवेट कर चुकी है। इसका सबसे बड़ा असर नौकरियों में पड़ा। केंद्र सरकार की नौकरियों में साल 2003 में 32.69 लाख लोग थे। प्राइवेटाइजेशन के चलते 2019 आते-आते 50% से ज्यादा घटकर सिर्फ 15.14 लाख कर्मचारी ही बचे। यानी 16 सालों में केंद्र सरकार की नौकरियों में 17.55 लाख की कमी आई। मई 2014 से अब तक सरकार ने 121 कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच दी है और साल 2014 के बाद से आई भर्तियाेें का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है। आने वाले समय मे सरकार को बेरोजगारी की समस्या का सामना करने के लिये, एक स्पष्ट और गम्भीर नीति बनानी पड़ेगी, अन्यथा इस समस्या की विकरालता, अनेक समस्याओं को जन्म देगी, जिससे निपटना आसान नहीं होगा।

( विजय शंकर सिंह )

लोक कल्याण से दूर होता हुआ बजट 2021 – 22

7, लोक कल्याण मार्ग प्रधानमंत्री का सरकारी आवास है। यह पहले रेसकोर्स रोड कहा जाता था। यह भी एक विडंबना है कि, जब से यह नाम बदल कर 7, लोक कल्याण मार्ग हुआ है, तब से संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा, पीछे छूट गयी है। आज़ादी के बाद देश ने कुछ प्राथमिकताएं तय की थीं, जिनमे सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, कृषि, शिक्षा और रोजगार। आज़ादी के बाद देश की आय, उन्नति, और जीवन यापन का सबसे महत्वपूर्ण आधार कृषि रहा है। उस समय सरकार ने कृषि के सम्यक विकास के लिये भूमि सुधार कार्यक्रम, जिंसमे जमींदारी उन्मूलन एक प्रमुख कार्यक्रम था, को लागू किया। कृषि में उपज बढ़ाने के लिये सिंचाई योजनाएं चलाई गयी, कृषि विकास के लिये कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना की गयी, बीज उत्पादन और विशेष फसलों के लिये अलग अलग शोध संस्थानों की स्थापना की गयी, हरित क्रांति की शुरुआत हुयी और आज़ादी के 25 साल के अंदर ही देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। कृषि ही वह मज़बूत सेक्टर है जिसने शून्य से नीचे जाती मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, एमएसएमई, और रीयल सेक्टर में पहले नोटबन्दी और फिर कोरोना के बाद आयी भयानक मंदी के बाद, देश की आर्थिकी को संभाला। उसी के बाद इस सेक्टर पर निजी क्षेत्रों और कॉरपोरेट की गिद्ध दृष्टि पड़ी, परिणामस्वरूप सरकार ने कृषि व्यापार से जुड़े तीन कानून 20 सितंबर को पास कराये जिनका लगभग तीन महीने से लगातार देशव्यापी विरोच हो रहा है।

शिक्षा के क्षेत्र में, सरकार ने सामान्य स्कूलों, विद्यालयों के अतिरिक्त इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज खोले। तकनीकी शिक्षा के लिये आईआईटी, एम्स और अन्य बड़ी संस्थाएं खोली गयीं। जब शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश हो रहा था तब तक सरकारी संस्थाओं ने ऐसे प्रतिभावान छात्रों को तैयार कर दिया था कि उनकी प्रतिभा से विदेशों को भी चमत्कृत कर दिया था। प्रतिभा पलायन, उन प्रतिभाओं को अपने देश मे उचित स्थान न मिलने की खेदजनक स्थिति तो थी, पर यह सब सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किये गए योगदान का भी परिणाम था। सरकारी शिक्षा न केवल सस्ती होती थी, बल्कि वह समाज के गरीब और वंचित प्रतिभावान छात्रों के लिये भी सुलभ थी। विश्वविद्यालय हों या तकनीकी संस्थान, इनका मुख्य उद्देश्य प्रतिभा को उचित शिक्षा का अवसर प्रदान करना था, न कि व्यापारिक लाभ हानि के दृष्टिकोण से शिक्षा संस्थानों को चलाना।

रोजगार के लिये उद्योग नीति लायी गयी, जिसमें सरकार ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया। बड़े और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी बड़ी बड़ी योजनाएं, सरकार ने खुद शुरू की और मध्यम तथा छोटे मझोले उद्योग निजी क्षेत्र में आये। 1970 में 14 बैंको का राष्ट्रीयकरण किया गया। उसी साल राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म किये गए। सरकार की आर्थिकी का स्पष्ट झुकाव, समाजवादी समाज की स्थापना की ओर था। लेकिन, 1990 में आकर सरकार की यह नीति बदली और निजी क्षेत्र, जो तब के न्यू वर्ल्ड ऑर्डर में, एक संगठित बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट के रूप में बदल रहा था, ने सरकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था को चुनौती देनी शुरू कर दी और उसका प्रवेश इंफ्रास्ट्रक्चर तथा अन्य बड़े उद्योगों में भी हुआ। 1990 के बाद एक नया क्षेत्र शुरू हुआ सर्विस सेक्टर, जो इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के प्रसार के बाद सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र बना। लेकिन सामान्य जन के लिये सबसे अधिक रोजगार और नौकरियों की संभावना कृषि और असंगठित क्षेत्र में बनी रही। असंगठित क्षेत्र में रीयल स्टेट एक प्रमुख क्षेत्र रहा। लेकिन नोटबन्दी और कोरोना आपदा के बाद सबसे अधिक नुकसान और मंदी इसी क्षेत्र को उठानी पड़ी।

इस निजीकरण की आंधी ने शिक्षा को भी नही छोड़ा और तकनीकी शिक्षा सहित अन्य महत्वपूर्ण शिक्षा संस्थान भी निजीकरण के शिकार धीरे धीरे होने लगे। बजट 2021 -22 में शिक्षा के लिये जो आवंटन था, वह कम हो गया है। शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षा के विविध आयामो की तो बात ही छोड़ दीजिए, जिस गति से आबादी बढ़ रही है, उस गति से शिक्षा का बजट कम होता जा रहा है। कहने को तो हमारा सालाना बजट आम बजट कहलाता है, पर यह धीरे धीरे खास बजट बन गया है। आम लोगों की संसद में, आम लोगों के नाम पर, आम चुनावों द्वारा चुनी गयी सरकार द्वारा पेश किया जाने वाला यह वार्षिक आय व्यय का लेखा जोखा, खास लोगों को ध्यान में रख कर बनाया हुआ बजट बन गया है। बजट 2021 – 22 के अर्थशास्त्रियों की एक राय बहुमत से है कि, यह बजट आय व्यय के किसी लेखे जोखे के बजाय, सरकारी संपत्तियों के विनिवेश का एक मसौदा है। विनिवेश, यानी, सरकारी कंपनियों में सरकार की जो हिस्सेदारी है, उसे बेचने का तकनीकी नामकरण है। सच तो यह है कि सरकार अपनी कम्पनिया, कॉरपोरेट सेक्टर को बेच रही है। कभी निवेश आमंत्रित करने को सतत उत्सुक रहने वाली सरकार, अब अपनी पूंजी अपनी ही बनाई सरकारी कम्पनियों को बेच कर, निकालने की जुगत में है। यहीं यह सवाल उठता है कि सरकार आखिर अपनी सम्पत्तिया बेच क्यों रही है। निर्मला सीतारमण, वित्तमंत्री ने इसका एक कारण यह बताया है कि, जब सरकार अपनी कम्पनियों को चला ही नहीं पा रही है तो, वह उसे रख कर क्या करेगी ? क्या सरकार द्वारा उसकी अक्षमता का आत्मस्वीकारोक्ति नही है ? एक अक्षम सरकार, अपनी सम्पत्तियों की रक्षा, प्रबंधन और विकास नहीं कर सकती, तो वह उसे बेचने की ही बात सोचने लगती है। सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कम्पनियां, जिन्होने, देश के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है, सरकार उन्हें भी अब विनिवेश जैसे खूबसूरत नाम के साथ ही बेच देना चाहती है।

2014 के चुनाव में लोकप्रियता के पंख पर सवार जब एनडीए या भाजपा सरकार आयी तो सबसे अधिक उम्मीद, इस सरकार से युवा, व्यापारी, किसान और उद्योगपतियों को थी। अन्ना आन्दोलन ने युवाओं की अपेक्षाओं को जगा दिया था। गुजरात के विकास की अंतर्कथा की जानकारी से वंचित लोग, गुजरात जैसे विकास की उम्मीद में मुब्तिला थे। 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का वादा, युवाओं को लुभा रहा था। और लोगों को लग रहा था, 12 साल में गुजरात की तकदीर बदल देने वाले विकास पुरूष की उपाधि से अलंकृत नरेंद मोदी, देश का काया पलट कर देंगे। पर 2016 की नोटबन्दी के बाद, हम बजट दर बजट खिसकते जीडीपी के साथ साथ नीचे आने लगे और, 2020 की 31 मार्च को जीडीपी 5 % पर आ गयी। फिर तो उसके बाद, कोरोना महामारी ने देश की अर्थव्यवस्था को ही संक्रमित कर दिया। मार्च 2021 में जीडीपी में अभूतपूर्व गिरावट दर्ज की गयी और माइनस 23.9% पर आ गयी। इस साल अनुमान है कि 11% की वृद्धि होगी, लेकिन, इतनी वृद्धि के बावजूद भी जीडीपी माइनस में ही रहेगी। दस साल पहले भारत दुनिया की सबसे उभरती हुयी आर्थिकी था, अब वह दुनिया की सबसे गिरती हुयी आर्थिकी बन गया है। कोरोना आपदा, इस स्थिति के लिये जिम्मेदार है, लेकिन यदि आर्थिकी के पिछले 6 साल के आंकड़ों का, यदि अध्ययन किया जाय तो, साल 2016 के 8 नवम्बर, की रात 8 बजे, देश की 84 % मुद्रा का विमुद्रिकरण कर देना, आधुनिक भारत के आर्थिक इतिहास में, किसी भी सरकार द्वारा उठाया गया सबसे अपरिपक्व और आत्मघाती कदम कहा जायेगा, और यह एक ऐतिहासिक भूल थी।

इंडियन पोलिटिकल ड्रामा में 19 जनवरी 2021 को त्रिरंजन चक्रवर्ती ने देश की बढ़ती बेरोजगारी पर एक शोधपरक लेख लिखा था। लेख में उन्होंने बेरोज़गारी की समस्या की विकरालता पर एक छोटी मगर सारगर्भित टिप्पणी की है। उक्त लेख के अनुसार, दिसंबर 2020 में बेरोजगारी की दर, नवम्बर 2020 की बेरोजगारी की दर, जो 6.50% थी से, तेजी से बढ़ कर, 9.06% हो गयी है। यह आंकड़ा, सरकार के ही विभाग, सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ( सीएमआईई ) द्वारा जारी किया गया है। पिछली बार बेरोजगारी में इतनी तेज वृद्धि, जून 2020 में हुयी थी। जून 2020, कोरोना आपदा का सबसे कठिन काल था, जब देश भर में लॉकडाउन था, और सारी औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियां, लगभग ठप थीं। उस समय बेरोजगारी दर में इतनी तेज बढोत्तरी का एक उचित कारण कोरोना था, जो वैश्विक था। उस समय सीएमआईई के अनुसार, बेरोजगारी की दर 10.18% थी। लेकिन जुलाई से औद्योगिक और व्यायसायिक गतिविधियों में तेजी आयी और बाजारों में रौनक भी बढ़ी, लेकिन क्या कारण है कि बेरोजगारी दर जून 2020 के ही आसपास दिसंबर 2020 में ही रही ? इस पर त्रिरंजन चक्रवर्ती अपनी राय देते हुए कहते हैं कि, हमारी आर्थिकी, लॉक डाउन और कोरोना आपदा के बाद सामान्य होती हुयी परिस्थितियों में भी नौकरी या रोजगार के उतने अवसर नहीं पैदा कर सकी, जितनी की उसे करना चाहिए था। अगर शहरी और ग्रामीण सेक्टरों में बांट कर अलग अलग इस दर को देखें तो, बेरोजगारी की दर, ग्रामीण क्षेत्र में अधिक भयावह और चिंताजनक है।

अब सीएमआईई के दो आंकड़ो की चर्चा करते है। एक आंकड़ा है, जुलाई 2020 से दिसंबर 2020 तक, देश मे कुल और फिर शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रो के अलग अलग बढ़ती हुए बेरोजगारी दर की। जुलाई 2020 में, कुल बेरोजगारी दर, 7.40% रही है और फिर हर माह कुछ न कुछ बढ़ते घटते हुए, अगस्त में, 8.35%, सितंबर में, 6.68%, अक्टूबर में, 7.02%, नवंबर में,6.50 और दिसंबर में, 9.06% तक पहुंच गयी।

इसी प्रकार, शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 9.37%, अगस्त में,9.83%, सितंबर में, 8.45%, अक्टूबर में,7.18%, नवंबर में, 7.07% और दिसंबर में, 8.84% रही है।

इसी अवधि में ग्रामीण क्षेत्रो में बेरोजगारी दर, जुलाई में, 6.52%, अगस्त में, 7.65%, सितंबर में,5.88%, अक्टूबर में, 6.95%, नवंबर में, 6.24% और दिसंबर में, 9.15% रही है।

सीएमआईई, जब बेरोजगारी के आंकड़े तैयार करती है तो वह एक तकनीकी शब्द प्रयुक्त करती है, लेबर पार्टिसिपेशन रेट ( एलपीआर ). एलपीआर का अर्थ है कि, रोजगार की तलाश में कितने लोगों की संख्या में वृद्धि हुयी है। यदि यह संख्या बढ़ रही है तो इसका एक अर्थ यह भी है कि वर्कफोर्स में हो रही वृद्धि की तुलना में नौकरी या रोजगार के अवसर उतने नहीं बढ़ रहे हैं। यानी या तो औद्योगिक, व्यावसायिक औऱ अन्य नौकरी प्रदाता संस्थान बढ़ नही रहे हैं या उनकी क्षमता कम हो रही है। ऐसी स्थिति में बेरोजगारी का दर बढ़ना लाज़िमी ही होगा। सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2020 में, 4 करोड़ 27 लाख लोग काम की तलाश में थे, जबकि नवम्बर 2020 में यह आंकड़ा, 4 करोड़ 21 लाख का था। एक माह में यह वृध्दि 6 लाख की है। यही कारण है कि दिसम्बर 2020 में बेरोजगारी के आंकड़ो में चिंताजनक वृध्दि हुयी है। देश मे सबसे अधिक श्रम बल, कृषि क्षेत्र देता है और दिसंबर मे खेती का काम कम हो जाता है तो उसका सीधा असर, देश के बेरोजगारी के आंकड़ों पर पड़ता है। यह इस बात को भी बताता है कि सरकार देश को सबसे अधिक काम देने वाले सेक्टर को, सबसे अधिक उपेक्षा से ट्रीट करती है।

अब कुछ राज्यों के बेरोजगारी दर के आंकड़े देखिये। दिसंबर 2020 में, सबसे अधिक बेरोजगारी दर, 32.5%, हरियाणा में रही। उसके बाद, 28.2% राजस्थान मे रही है। दो अंकों में जिन राज्यो की बेरोजगारी दर रही है, वे हैं, झारखंड, 12.4%, बिहार 12.7%, गोवा 13.2%, उत्तर प्रदेश 14.9%, जम्मूकश्मीर 16.6% और त्रिपुरा 18.2%. इसके अतिरिक्त देश के अन्य राज्य और केंद्र शासित राज्यो की बेरोजगारी दर, एक अंक में रही है।

बेरोजगारी का बढ़ना, महज कुछ आंकड़ो का परिवर्तन ही नही है बल्कि समाज में व्याप्त अंसन्तोष, आक्रोश और अवसाद का भी एक बड़ा कारण है। बढ़ती हुयी बेरोजगार युवाओं की संख्या का असर, समाज के तानेबाने और अपराध की स्थिति पर पड़ता है। यह जब जनअसंतोष का रूप ले लेता है, तो बेरोजगारी की समस्या तो अलग छूट जाती है और अन्य नयी समस्यायें पैदा होने लगती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी का कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम इकाइयों पर सरकार की आर्थिक नीतियों का असर पड़ना है। नोटबन्दी का सबसे बुरा प्रभाव, एमएसएमई कम्पनियों पर पड़ा। जिन्हें हम कुटीर उद्योग के रूप में कभी जानते थे। स्थानीय लोगो को अपने घर गांव के आसपास रोजगार और नौकरियों का अवसर देने वाला यह सेक्टर बुरी तरह से तबाह हो गया था। अब यह धीरे धीरे सुधर तो रहा है, पर इसे और बेहतर तरह से तरक़्की करने के लिये सरकार को अपनी प्राथमिकता में इस सेक्टर को लाना पड़ेगा। जबकि सरकार की प्राथमिकता में कॉरपोरेट है और अब तो यही स्थिति हो गयी है कि कॉरपोरेट की ही सरकार है और शेष कॉरपोरेट के शोषित उपनिवेश की तरह हैं। स्थानीय स्तर पर एमएसएमई के विस्तार और उनकी सबलता से न केवल कामगारों के पलायन और विस्थापन पर असर पड़ेगा, बल्कि, इससे ग्रामीण क्षेत्रो का सम्यक विकास भी हो सकेगा। अब यह तो समय ही बता पायेगा कि, बजट 2021 देश की बेरोजगारी की समस्या को दूर करने मे कितना सक्षम होता है।

नये बजट के अनुसार, सरकार व्यापक स्तर पर सरकारी उपक्रमो का निजीकरण करने जा रही है। बिजनेस स्टैंडर्ड के एक लेख के अनुसार, इस साल 23 कंपनियों में निजीकरण या उन्हें बेचने की मंजूरी दी जा चुकी है। साल, 2019 के पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे के अनुसार, भारत में कुल 348 सरकारी कंपनियां हैं। नीति आयोग, जो इस समय निजीकरण आयोग की तरह काम करने लगा है, ऐसी कंपनियों की एक सूची बना कर इस कार्ययोजना पर काम कर रहा है जिन्हें सरकार निजी क्षेत्र को बेच देना चाहती है। इन कंपनियों में बैंक और बीमा कंपनियां भी शामिल हैं। जीवन बीमा निगम, यानी एलआईसी भी नीति आयोग की सूची और कार्ययोजना में शामिल है। सरकारी उपक्रमो के बारे में अध्ययन करने वाले कंपनी कानून के विशेषज्ञों के एक समूह का अनुमान है कि, अगले कुछ वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या सिमटकर लगभग 25 के आसपास बच जाएगी। पिछले 70 सालों में जनता के टैक्स से बनायी गयी, 348 सरकारी कंपनियों में से 330 कंपनियां निजी क्षेत्र को बेंच दी जायेंगी।

यह विनिवेश या कम्पनी बेचो अभियान का असर, न केवल बेरोजगारी पर पड़ेगा, बल्कि इसका एक घातक प्रभाव, संविधान में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिये, आरक्षण के अधिकार पर भी पड़ेगा। 348 से सिमट कर 25 सरकारी कम्पनियां हों जाने पर, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उन युवाओं के सामने, नौकरी की नयी चुनौती खड़ी हो जाएगी, जिन्हें सरकारी नौकरियों में अब तक 49.5% तक आरक्षण मिलता था। निजी क्षेत्र, आरक्षण के उक्त संवैधानिक प्राविधान से मुक्त हैं, तो उनकी ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं है कि वे, देश के आरक्षित समूहों को नौकरी दें। बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस समस्या का अध्ययन, देश की दूसरी सबसे बड़ी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम के संदर्भ में किया है। सरकार बीपीसीएल की 53.3% हिस्सेदारी बेचने की तैयारी में है।

बिजनेस स्टैंडर्ड के लेख में, बीपीसीएल के ह्यूमन रिसोर्स पर किये अध्ययन के अनुसार,

” इस कम्पनी में, 1 जनवरी 2019 तक 11,894 कर्मचारी काम कर रहे थे। इनमें पिछड़ा वर्ग के 2042, अनुसूचित जाति के 1921 और 743 अनुसूचित जनजाति के कर्मचारी थे। इनमें 90% से ज्यादा भर्तियां आरक्षण के तहत हुई थीं। प्राइवेटाइजेशन के बाद वहां की चार हजार से ज्यादा आरक्षित भर्तियों को भी खुली भर्ती से भरा जाएगा। यह एक उदाहरण है।”

इसी उदाहरण के पैटर्न पर अन्य सरकारी कंपनियों का सिसिलेवार अध्ययन किया जा सकता है। इससे जिन उद्देश्यों से समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक उत्थान के लिये आरक्षण की सुविधा, संविधान में दी गयी है, वे उद्देश्य पूरे नहीं हो सकेंगे।

एक अनुमान के अनुसार, सरकारी कंपनियों के निजी हाथों में चले जाने से करीब 7 लाख आरक्षित नौकरियों पर संकट आ सकता है। पब्लिक इंटरप्राइजेस सर्वे की साल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी कंपनियों में कर्मचारियों की कुल संख्या करीब 15 लाख है। इसमें से 10.4 लाख स्थायी कर्मचारी हैं। इन नौकरियों में अनुसूचित जाति के लिए 15%, अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5% और ओबीसी के लिए 27% आरक्षण है। सरकारी कंपनियां विनिवेश के बाद निजी हाथों में जाएंगी तो नौकरियों से आरक्षण की कोई गारंटी नहीं रहेगी। इससे 49.5 प्रतिशत भर्तियां होंगी, जिनकी संख्या करीब 7 लाख हो सकती है।

ऐसा नहीं है कि इन सब विसंगतियों पर अध्ययन और प्रतिक्रियाये नहीं आ रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया तो, यहां तक कहते हैं कि,

” सरकारी कंपनियों का प्राइवेटाइजेशन आरक्षण खत्म करने के लिए ही किया जा रहा है। अब रिवर्स आरक्षण का दौर चल रहा है। आने वाले दिनों में एक बार फिर से समाज में एक बड़ी खाई देखने को मिलेगी।”

ऐसी प्रतिक्रिया केवल अनिल चमड़िया की ही नहीं है, बल्कि सोशल मीडिया पर सामाजिक न्याय के मुद्दों को लगातार उठाने वाले सामाजिक चिंतक, सरकार पर आरक्षण को खत्म करने की साज़िश करने का, सीधा आरोप लगाते हैं। लैटरल एंट्री वाली नौकरियां में, आरक्षण न होने और निजीकरण के कारण, पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग में आरक्षण खत्म होने की संभावना के कारण यह आशंका निर्मूल नहीं है कि सरकार आरक्षण को कमज़ोर करने की तैयारी में हैं। संविदा पर भर्ती को भी इसी रणनीति का एक हिस्सा माना जा रहा है।

आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है, और जब बेरोजगारी की गति बढ़ने लगती है, नौकरियों के अवसर सिकुड़ने लगते हैं तो, यह मुद्दा और भी संवेदनशील हो जाता है। जैसे-जैसे प्राइवेटाइजेशन बढ़ा, आरक्षण से मिलने वाली नौकरियां वैसे वैसे कम होती गयीं। वर्ष 2001 से 2004 के बीच अब तक का सबसे बड़ा निजीकरण अभियान चलाया गया। 14 बड़ी सरकारी कंपनियों को पूरी तरह प्राइवेटाइज करने की कोशिश की गई। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित क्रिस्टोफर जैफरलॉट के एक लेख के अनुसार, 2003 में केंद्र सरकार के अनुसूचित जाति/जनजाति के 5.40 लाख कर्मचारी थे जो 2012 तक 16% घटकर 4.55 लाख हो गए।

इसी प्रकार उसी लेख के अनुसार,

” साल 1992 में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण की शुरुआत हुई। तब 2004 तक केंद्र की सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी 16.6% थी, 2014 आते-आते 28.5% हो गई। देश में ओबीसी की जनसंख्या करीब 41% है। आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों में वे बराबरी की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद इसकी भी गारंटी नहीं रह जाएगी।”

इन बड़ी कंपनियों के अतिरिक्त, भारत सरकार ने, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, एचटीएल लिमिटेड, आईबीपी कॉर्पोरेशन लिमिटेड, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड को भी प्राइवेट कर चुकी है। इसका सबसे बड़ा असर नौकरियों में पड़ा। केंद्र सरकार की नौकरियों में साल 2003 में 32.69 लाख लोग थे। प्राइवेटाइजेशन के चलते 2019 आते-आते 50% से ज्यादा घटकर सिर्फ 15.14 लाख कर्मचारी ही बचे। यानी 16 सालों में केंद्र सरकार की नौकरियों में 17.55 लाख की कमी आई। मई 2014 से अब तक सरकार ने 121 कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेच दी है और साल 2014 के बाद से आई भर्तियाेें का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है। आने वाले समय मे सरकार को बेरोजगारी की समस्या का सामना करने के लिये, एक स्पष्ट और गम्भीर नीति बनानी पड़ेगी, अन्यथा इस समस्या की विकरालता, अनेक समस्याओं को जन्म देगी, जिससे निपटना आसान नहीं होगा।

(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

( विजय शंकर सिंह )

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