Ambedkar’s thoughts on individual worship: व्यक्ति वंदना पर अंबेडकर विचार

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देशव्यापी लॉकडाउन के बीच बीते 14 अप्रैल को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की 129वी जयंती थी। इस दिन कहीं पर अंबेडकर की पूजा की गई होगी तो कहीं उनकी मूर्ती पर माल्यार्पण किया गया होगा, कहीं अंबेडकर की वंदना की गई होगी तो कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ गए होंगे, कहीं फिजाओं में फिरसे जय भीम के नारे गूंजे होंगे और कुछ राजनीतिक संगठन अंबेडकर के ऊपर अपना दावा जताने से भी नही चूके होंगे। कुछ ने बाबा साहब के ऊपर अपने दावे को फिर से पुनर्जीवित किया होगा। भारत में जब भी किसी महान विभूति की जयंती आती है, तो उन पर दावा करने लोगों की संख्या भी बढ़ जाती है। हर कोई किसी-न-किसी तरीके से उस महान व्यक्ति को अपने आप से या अपने संगठन से जोड़ने का कोई मौका हाथ से नही जाने देता। महात्मा गांधी और सरदार पटेल से लेकर बी.आर. अंबेडकर तक अलग-अलग समय पर और अलग-अलग कारणों के चलते लोग और संगठन इन महान विभूतियों पर अपना प्रथम हक जताने का कोई मौका गवाना नहीं चाहते।
समस्या यह नही कि लोग और कुछ संगठन बाबा साहब के प्रति अपार सम्मान रखते हैं बल्कि समस्या वहां उत्पन्न होती है जब ऐसे कुछ लोग और संगठन यह दावा करने लगते हैं कि वे बाबा साहब के मूल्यों और आदर्शों को जीवित रखे हुए हैं। दावा और आगे बढ़ाते हुए वे यह तक कह जाते हैं कि उन्होंने बाबा साहब को हम सबके बीच अमर रखा है। ऐसे लोगों और संगठनों (भले ही वे राजनीतिक हों या नही) को यह समझना चाहिए कि बाबा साहब का व्यक्तित्व इतना विशाल है और उनके मूल्य और आदर्श इतने दूरगामी हैं कि उन्हें अमर रहने के लिए किसी की बैसाखी की जरूरत नही। बाबा साहब का अस्तित्व कोई संगठन तय नही करता बल्कि उन संगठनों का अस्तित्व बाबा साहब के अस्तित्व की बदौलत है।  गांधी, पटेल और अंबेडकर जैसे लोग भारत के वे सपूत हैं जिन्हें विश्व भर में लोग सम्मान और आदर के साथ याद करते हैं। पूरी दुनिया में लोग ऐसी महान भारतीय विभूतियों के सामने नतमस्तक रहते हैं। ये लोग आधुनिक भारत के निमार्ता हैं जिन पर पूरे भारत को गर्व है। इन महान विभूतियों पर किसी एक का दावा नही हो सकता। जो लोग यह सोचते हैं कि ऐसी महान हस्तियों पर उनका एकाधिकार है, वे अपनी सीमित मानसिकता के कारण सच समझना नही चाहते। इससे भी ज्यादा संकीर्ण मानसिकता उनकी है जो कुछ अफवाहों के चलते इन महान हस्तियों की महानता को नकारते हुए उनको अपशब्द तक कहने का साहस कर जाते हैं। इन सब चीजों से हमे बचने की जरूरत है।
बाबा साहब का नाम आता है, तो उस महान शक्सियत के किए गए काम दोबारा से ताजा हो जाते हैं। भारतीय संविधान के निर्माण में सबसे अग्रणी भूमिका निभाने वाले बाबा साहब अंबेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष थे। इस समिति पर ही संविधान का मसौदा तैयार करने का भार था। जब भारत का संविधान तैयार हुआ तो वह दुनिया के हर अच्छे संविधान के कुछ-न-कुछ अंश को अपने अंदर समाहित करे हुए था। 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियों (वर्तमान में 12) के साथ बना भारत का संविधान संभवत: दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है। जब तक भारत है, तब तक इसका संविधान रहेगा और जब तक संविधान रहेगा तब तक बाबा साहब के विचार उसमें झलकते रहेंगे।
बाबा साहब के प्रति अपार सम्मान रखना उचित है पर उनकी पूजा करना उनके ही विचारों का उपहास उड़ाने जैसा है। शायद बाबा साहब अपनी पूजा होते देख कभी खुश ना होते, जिस चीज के खिलाफ उनकी लड़ाई थी आज वही चीज उनके साथ होती नजर आ रही है। बाबा साहब व्यक्ति वंदना के कितने खिलाफ थे ये जानने के लिए हमें उनके संविधान सभा में दिए अंतिम भाषण को समझना पड़ेगा। उनका वह भाषण लोकतंत्र के हर पैरोकार को पढ़ना और समझना चाहिए। 25 नवंबर 1949, जिसके अगले दिन संविधान सभा अपना काम खत्म करने जा रही थी, अंबेडकर ने एक भावपूर्ण भाषण दिया जिसमें उन्होंने सभा के कार्यों का समापन किया। अंबेडकर ने भविष्य के प्रति तीन चेतावनी देकर अपना यह भाषण खत्म किया। उनकी पहली चेतावनी इस लोकतंत्र में लोकप्रिय जनविरोध से संबंधित थी। उनके विचार में निश्चित तौर पर अब रक्तरंजित क्रांति की कोई जगह नही बची थी लेकिन गांधीवादी तरीकों के लिए भी कोई जगह उपलब्ध नही थी क्योंकि अब हर समस्या के लिए संवैधानिक उपाए उपलब्ध थे। उनकी दूसरी चतावनी व्यक्ति वंदना और वीरपूजा के खिलाफ उनके विचारों को दशार्ती है। उनकी यह चेतावनी किसी करिश्माई सत्ता के सामने बिना सोचे-समझे अपने आपको समर्पित कर देने से सम्बंधित थी। बाबा साहब का कहना था कि भारत में भक्ति या समर्पण की राह या वीरपूजा राजनीति में ऐसी भूमिका निभाती है जैसी दुनिया के किसी भी देश में नही निभाती। उन्होंने कहा कि किसी धर्म में भक्ति की भूमिका आत्मा की मुक्ति के लिए हो सकती है लेकिन राजनीति में भक्ति या वीरपूजा पतन और तानाशाही की राह की ओर ले जाती है। वे जॉन स्टुअर्ट मिल के उस विचार के कायल थे जिसमें उन्होंने कहा था कि किसी महान व्यक्ति के चरणों में भी अपनी स्वाधीनता का समर्पण नही करना चाहिए या ऐसे किसी महान व्यक्ति को सर्वसत्ताधिकारी नही बनाना कि वे तुम्हारी संस्थाओं को ही भ्रष्ट कर दे। बाबा साहब की तीसरी चेतावनी भारतियों से आवाहन के रूप में थी कि वे महज राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट ना हों बल्कि सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी असमानता से मुक्त हों। बाबा साहब व्यक्ति वंदना के प्रमुख विरोधी थे। हालांकि लोग बाबा साहब के प्रति सम्मान जताने के लिए ऐसे उपाय करते हैं, जो शायद सही भी हों। लेकिन बाबा साहब के विचार इस विषय पर इससे अलग जान पड़ते हैं।
-अक्षत मित्तल

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)

 

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