You go ahead we are with you ..! तुम आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं..!

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तू न हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा। अच्छा है कि अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है, तुझको किसी मजहब से कोई काम नहीं है। निश्चित रूप से नफरतों के इस दौर में इन लफ्जों को गुनगुनाने से बेहद सुकून महसूस होता है। श्रीनगर से लेकर गुवहाटी तक और दिल्ली से लेकर चेन्नई तक जो देखने को मिल रहा है, वह दिल दहलाने वाला है। दिल्ली में नागरिकता अधिनियम में हुए सांप्रदायिक बदलाव का विरोध करने वाले विद्यार्थियों को हॉस्टल और लाइब्रेरी में घुसकर पुलिस ने पीटा, यह दुखद था। एमफिल के एक निर्दोष छात्र की आंख पुलिस ने फोड़ दी। सीलमपुर में विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई साजिशन हिंसा से आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की गई। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से भी बुरे हालात अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में देखने को मिले। एएमयू से सैकड़ों छात्र-छात्राओं को रात में उठा लिया गया। दूर थानों में ले जाकर पीटा गया। विश्वविद्यालय में पुलिसिया कार्रवाई से तो यही साबित होता है कि हम लोकतांत्रिक देश में नहीं बल्कि पुलिस स्टेट में रह रहे हैं। दिल्ली में पुलिस ने गोलियां चलाईं मगर मानने से इंकार करती रही जबकि वीडियो फुटेज में कई पुलिसकर्मी गोली चलाते नजर आए। पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे हैं। अब तक इसमें एक दर्जन से अधिक युवाओं को जान गवांनी पड़ी है। सरकार इस पर मौन है मगर विश्व के नामचीन 19 विश्वविद्यालयों में इस कानून और सरकारी दमन की आलोचना की जा रही है। विदेशी अखबारों में छपी खबरें भारत को मानवाधिकार विहीन राष्ट्र बता रही हैं।
वक्त और जरूरत के आधार पर कानूनों से लेकर संविधान तक में संशोधन किये जाने का अधिकार सरकार को विधायिका के जरिए दिया गया है। उसके अच्छे-बुरे पहलुओं पर चर्चा और विरोध का अधिकार भी हमारे नागरिकों, विधायकों-सांसदों को है। विश्वविद्यालयों में देश का भविष्य तैयार होता है, उसको भी इन सभी मुद्दों और पहलुओं पर बहस, चर्चा और विरोध का अख्तियार है। विरोध करने से कोई राष्ट्रद्रोही नहीं हो जाता और सत्ता पक्ष में बोलने से कोई राष्ट्रभक्त नहीं। यह विचारों और समझ का विषय होता है। इसे सांप्रदायिक चश्में से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट करती है कि हम धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) गणराज्य हैं, न कि सांप्रदायिक देश। ऐसी स्थिति में न तो देश की विधायिका और न ही सरकार को यह अधिकार है कि वह हमें सांप्रदायिक आधार पर बांटे। दोनों की मनसा वाचा कर्मणा यही कोशिश होनी चाहिए कि सभी जाति-धर्म और क्षेत्र के लोग प्यार और भाईचारे के साथ सुखद जीवन जियें। यही बात हमारे धर्मग्रंथ भी सिखाते हैं। बीते कुछ वर्षों से देश में जिस तरह से सांप्रदायिकता का माहौल बनाया जा रहा है। मॉब लिंचिंग की जा रही है, वह गंगा-जमुनी तहजीब के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने वाली है। पूरे देश में सीएए और एनआरसी का विरोध देखने को मिल रहा है। देश आंदोलन में जल रहा है और सरकार गर्म कमरों में ठंडी का मजा ले रही है।
हमें 9 नवंबर का दिन याद आता है, जब सुप्रीम कोर्ट ने रामजन्मभूमि के मामले में लीक से हटकर फैसला दिया। उसने सांप्रदायिक विवाद को हल करने का काम किया। मुस्लिम समुदाय ने आशंकाओं के बीच इसे शांति के साथ स्वीकार किया। निश्चित रूप से हमारा बड़प्पन तब होता जब हम, तुम कदम बढ़ाओ हम तुम्हारे साथ हैं, कहते हुए मस्जिद बनवाने की दिशा में काम करते और पूर्व में तोड़ी गई मस्जिद के लिए पश्चाताप मगर ऐसा नहीं हुआ। वजह साफ है, सांप्रदायिकता की सियासत करने वालों के हाथ से हथियार निकल गया था। अब अगले चुनावों में वह क्या भुनाते, तो एक और विवाद उत्पन्न करने की तैयारी कर ली गई। भारत में नागरिकता अधिनियम 1952 पहले से ही मौजूद था। उसमें वक्त जरूरत के मुताबिक बदलाव भी हुए थे। इस अधिनियम के तहत सरकार को पूरी शक्ति थी कि वह जिसको चाहे नागरिकता दे या न दे मगर मोदी सरकार ने इसमें सांप्रदायिक आधार पर संशोधन किया। गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा कि वह एनआरसी (नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजन) पूरे देश में लागू करेंगे। लोगों के सामने असम में हुई एनआरसी नजीर के तौर पर थी। जिसमें वहां के 19 लाख से अधिक लोगों को अवैध प्रवासी मान लिया गया, इनमें 13 लाख हिंदू हैं। इन लोगों का कसूर सिर्फ यह था कि उनके पास कागजी सबूत नहीं थे जबकि उनमें अधिकतर भारतीय ही हैं। यही वजह है कि सीएए को लेकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ है।
हालात तब और भी दुखद हो जाते हैं, जब हम देखते हैं कि जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग हालात संभालने के बजाय बिगाड़ते हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री यह आश्वासन देते हैं कि यह एक्ट मुसलमानों के उत्पीड़न के लिए नहीं लाया गया है। वही लोग सार्वजनिक सभाओं में ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं कि उनके आश्वासन झूठे लगते हैं। भाजपा सांसद राकेश सिन्हा का ट्वीट देश को सांप्रदायिकता की आग में धकेलने वाला होता है। आशंकाओं से घिरे देश और समाज का विरोध के लिए उतावला होना स्वाभाविक है। अच्छा होता कि सीएए लाने के पहले देशव्यापी चर्चा कराई जाती और संविधान के प्रस्तावना की लाज रखी जाती। सत्तारूढ़ दल को स्पष्ट है कि उसका वोटबैंक हिंदू बाहुल्य है। ऐसे में देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटे बिना उनकी मंशा पूरी नहीं होती। तुष्टीकरण के बीच वह यह भूल जाते हैं कि देश अगर बंटेगा तो भले उनको सत्ता मिल जाये मगर लाशों पर खड़ी सत्ता न उन्हें सुख देगी, न देशवासियों को। देश को सभी कौमों और जातियों ने मिलकर बनाया है। इसकी पहचान किसी एक धर्म से नहीं बल्कि हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से है। यही कारण है कि संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी सीएए का विरोध हुआ। देश के उन विश्वविद्यालयों और शहरों में भी इसका विरोध हो रहा है, जो मुस्लिम बाहुल्य नहीं हैं।
भारत आर्थिक संकटों से जूझ रहा है। उद्योग धंधे मंदी की मार में खत्म हो रहे हैं। बैंकिंग सेक्टर से लेकर घरेलू कारोबार बुरी तरह प्रभावित है। शैक्षिक संस्थाओं की गुणवत्ता गिर रही है, फीस लगातार बढ़ रही हैं। युवा बेरोजगारी के चलते मानसिक विकृति का शिकार हो रहे हैं। किसानों की हालत बदतर है। महिलायें-बच्चियां सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। ठगी-बेईमानी सहित अपराध बढ़ रहे हैं। देश के नागरिकों की मानसिकता हिंसक होती जा रही है, जिसके चलते सांसदों, विधायकों और मंत्रियों तक ने एक पुलिसिया हिंसा का समर्थन किया। नतीजतन हमारी जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) बुरे हाल में जा रही है। लोग सुख-शांति और सौहार्द की बातें करने के बजाय हिंसा, लूट और ठगी पर यकीन कर रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। नैतिकता-मानवता खत्म सी हो गई है। कश्मीर चार माह से नजरबंद है। बिगड़े हालात में जरूरत थी कि सरकार इन समस्याओं से निपटने की दिशा में आमजन और विरोधियों का साथ मांगती। उनके साथ मिलकर वह इनका समाधान खोज आगे बढ़ती। जैसा कि मोदी-2 की सरकार बनने के वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास चाहते हैं मगर यह बातें सिर्फ जुबानी ही रह गईं। सरकार ने जो कदम उठाये वह न तो विश्वास को मजबूत बनाने वाले हैं और न ही सबका साथ-सबका विकास वाले।
समय की मांग है कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी आदर्श प्रस्तुत करें। वह देश के नेता हैं। आगे आयें और सत्ता नहीं देश और समाज के लिए सर्वमान्य फैसले लें। एजेंडों से हटकर पूर्व की गलतियों को सुधारें। वह एक कदम बढ़ाएंगे, तो देश की जनता उनके कदम से कदम मिलाकर चलेगी, नहीं तो ठोकर खाकर गिरना स्वाभाविक है। महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू से सीखना चाहिए कि कैसे सबका साथ, विकास और विश्वास जीता जाता है। उन्होंने सत्ता के लिए नहीं बल्कि जनता के लिए काम किया था तो जनता उनकी हो गई थी। उसी तरह मोदी अगर सर्वजन हिताय और वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा पर काम करेंगे तो जनता भी कहेगी तुम आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं। गीता कहती है वक्त का पहिया घूमते देर नहीं लगती।

जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं )

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