World at the knee: घुटने पर दुनियाँ 

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द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनियाँ दो ख़ेमे में बंट गई थी। एक का सरग़ना अमेरिका था। इसका मानना था कि बाज़ारी तंत्र समाज को चलाने का सबसे कारगर तरीक़ा है। लोगों में प्रतिस्पर्धा होगी। ज़्यादा बुद्धि-विवेक-हौसले वाले समस्याओं का नया, सस्ता और सुलभ समाधान निकालेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को इसका फ़ायदा मिलेगा। रुस दूसरे खेमें का अगुआ था। इसका कहना था कि वर्गों में बँटा समाज ग़रीबों और मेहनतकशों के शोषण पर आधारित है। सारा काम सरकार के हाथ में होना चाहिए। सब काम करें। सबको ज़रूरत के हिसाब से सरकार से मिलेगा।
जब सोच उलट थी तो लड़ाई होनी ही थी। दोनों अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने में जुट गए। युद्ध और युद्ध की तैयारी में ऊर्जा खपाने लगे। कई बार तो लगा कि दोनों भिड़ ही जाएँगे। एक दूसरे पर नूक्लीअर बम चला देंगे और, जैसा कि आइन्स्टायन ने कहा था, तृतीय विश्व युद्ध के बाद वाली लड़ाई पत्थर और डंडे से लड़ी जाएगी। क्यूबा के ऊपर एक बार तो दोनों आमने-सामने भी हो गए थे। लेकिन मामला किसी तरह टल गया। ज़्यादा समय मोर्चा सीआईए, एमआई और केजीबी जैसे जासूसी संस्थाओं ने सम्भालें रखा। दुनियाँ भर में अपनी सुविधा के मुताबिक़ सरकारें बनाते-गिराते रहे। जहां एक की सरकार बन गई, दूसरे ने विद्रोहियों को हथियार-प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।
जिमी कार्टर 1980 में अमेरिका के राष्ट्रपति थे। दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे थे। उनके मुक़ाबिल रॉनल्ड रीगन थे। वे राजनीतिक मुख्यधारा से ना होकर अंग्रेज़ी फ़िल्मों से आए थे। जब उन्होंने ‘लेट्स मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का चुनावी नारा दिया तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि वे कार्टर जैसे दिग्गज को ढेर कर देंगे। वे वहीं नहीं रुके। रुस के ढहते साम्यवादी सरकार को खोखला करते रहे। अगला चुनाव भी जीता। अपने ख़ुशनुमा भाषणों के लिए चर्चित हुए और शीत-युद्ध समाप्त करने का तमग़ा भी साथ ले गए। आश्चर्य है कि शांति के लिए नोबेल पुरस्कार कार्टर को अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के बाद के शांति-प्रयासों को लेकर मिला। इससे दो सबक़ मिलता है। एक, अगर आप अपने आप को ख़ारिज ना करें और हौसला रखें तो आप कुछ भी कर सकते हैं। दूसरे, भविष्य अपनी दिशा खुद तय करता है।
आश्चर्य है कि 2014 में डोनाल्ड  ट्रम्प ने भी वही रीगन वाला नारा दिया – ‘लेट्स मेक अमरीका ग्रेट अगेन’। वे भी व्यापार से राजनीति में आए जैसे रीगन की पृष्टभूमि अभिनय की थी। वे भी चुनाव जीते। लेकिन इस बार आरोप ये लगा कि रुस ने सोशल मीडिया के ज़रिए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव को ट्रम्प के हक़ में प्रभावित किया। कोरोना के आने तक वे भी रोज़गार बढ़ाने को लेकर बड़े-बड़े दावे करते रहे। अर्थ-व्यवस्था को चाँद पर ले जाने की बात कहते रहे। अगर रीगन हँसी-मजाक के लिए प्रसिद्ध हुए तो ट्रम्प अपनी जो-जी-आए बोल देने के लिए। ट्विटर को अपना प्रेस सेक्रेटेरी बना डाला। उनके सहकर्मी भी उनकी राय जानने के लिए ट्विटर पर उनके पोस्ट को पढ़ते हैं। आजकल विश्व स्वास्थ्य संघटन और चीन से बहुत नाराज़ हैं। इनकी शिकायत है कि दोनों ने समय रहते कोरोना के बारे में दुनियाँ को आगाह नहीं किया जिसकी वजह से इसने महामारी का रूप ले लिया। इतनी बड़ी संख्या में लोग बीमार हो रहे हैं, मर रहे हैं। सैकड़ों करोड़ लोग ग़रीबी की गर्त में जा रहे हैं।
आप कितने भी बड़े ज्योतिषी हों या ज्ञानी, भविष्य के बारे में अंदाज़ा ही लगा सकते हैं। अमेरिका में जॉर्ज फ़्लॉयड के पुलिस के घुटने हुई मौत को ही लीजिए। पुलिस की अश्वेतों के प्रति बर्बरता के ख़िलाफ़ विश्वव्यापी आंदोलन का चेहरा बनने से पहले उनके ऊपर ग्यारह आपराधिक मामले दर्ज थे। उसमें एक लूट का था जिसमें वे पाँच साल जेल भी काट आए थे। फ़र्ज़ी नोट से सिगरेट ख़रीदने की बात थी। जैसा कि अक्सर ताक़तवरों के साथ होता है, मौक़े पर आए पुलिसवालों में एक की मति मारी गई। जोश में आकर घुटने से उसका गर्दन नींबू की तरह निचोड़ने लगा। वैसे भी जान मुश्किल से गरीब के शरीर में अटकी रहती है। मौक़ा ताड़ते ही सरक लेती है। यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ। फिर क्या था? लाक्डाउन में फँसे लोग जैसे स्प्रिंग से छूट गए हों। दुनियाँ भर में धरना-प्रदर्शन हो रहा है। हज़ारों-हजार सड़कों पर हैं। ‘डी-फंड पुलिस’, ‘एबालिश पुलिस’ ‘एंड ओफ़ पुलिस’ जैसी माँगे उठ रही है। पहले तो सरकार का रुख़ इसे सख़्ती से कुचल देने का था लेकिन संख्या को देख पीछे हट गई है। कई जगह पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के साथ ‘ब्लैक लाइफ़ मैटर’ के बैनर के साथ मार्च किया। घुटने के बल बैठ अनूठे तरीक़े से अत्याचार के लिए अफ़सोस  ज़ाहिर किया। मिनीऐपलिस, जहाँ ये घटना हुई थी, ने अपने पुलिस डिपार्टमेंट को भंग ही कर दिया है।
पुलिस-विहीन समाज तत्काल कल्पना से परे है। बराबरी का अधिकार प्रजातंत्र के मूल में है। ये एक तरह से डारविन के विकासवाद सिद्धांत के उलट है जो ‘सिलेक्शन ओफ़ द फिटेस्ट’ की बात करता है। एक तरह से देखें तो इसका मतलब ये हुआ कि आधुनिक प्रजातंत्र का तक़ाज़ा है कि शेर और बकरी एक ही घाट में पानी पिएँगे। ना तो शेर को अपनी ताक़त का गुमान होना चाहिए और ना ही बकरी को अपनी कमजोरी का भय। पुलिस से अपेक्षा ये रहती है कि ये शेर को चेताते रहे और बकरी को पुचकारते। लेकिन ‘क्राइम-फ़ाइटिंग मॉडल’ पर काम करती पुलिस खुद ही शेर बन बैठती है। शेर की प्रवृति ही बकरी के शिकार की है। ऐसी स्थिति में  बकरी के सामने एक और शेर से डरने और आते-जाते उसके हाथों शिकार होने की नियति खड़ी हो जाती है। अकेले-अकेले तो ये सह लेती है लेकिन जब कभी झुंड बन जाता है तो सरकारों से इन स्व-निर्मित शेरों से पीछा छुटाने की जिद करने लगती है। अमेरिका में यही हो रहा है। पुलिस को समझना चाहिए कि डारविन के विकासवाद में वातावरण के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता को ताक़त कहा गया है। सर्च इंजिन, सोशल मीडिया और कैमरे वाले मोबाइल फोन ने दुनियाँ बदल दी है। इनके साथ पले-बढ़े नए-नवेले अपना दिमाग़ रखते हैं। किसी को अपना माई-बाप मानने को तैयार नहीं हैं। अगर इस मुताबिक़ अपनी कार्यशैली को नहीं बदलेंगे तो विलुप्त होने का ख़तरा बना रहेगा।
हरियाणा सरकार ने पुलिस की अगुआई में  पिछले पाँच-छह साल से लोगों और विशेष कर युवाओं से खेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से ज़रिए ताल-मेल बिठाने की सफल कोशिश की है। ठग-बदमाशों के ख़िलाफ़ सघन कार्रवाई चलनी चाहिए लेकिन आम लोगों को विश्वास में लेने और उन्हें आश्वस्त रखने के काम को भी उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए।
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